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एससी/एसटी जैसे कठोर कानून के बाद भी देश में आज भी जारी है छुआछूत

बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने एक बार कहा था, ‘यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरुपयोग किया जा रहा है तो इसे सबसे पहले मैं ही जलाऊंगा।’ एससी-एसटी (प्रताड़ना निरोधक) कानून पर सळ्प्रीम कोर्ट का हालिया फैसला बाबा साहब की इस उक्ति के अनुरूप है। इसके दुरुपयोग की बढ़ती शिकायतों के मद्देनजर ही उसने इसके तहत तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने और फौरन गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। उम्मीद है अब इसका बेजा इस्तेमाल नहीं होगा। एससी-एसटी एक्ट जैसे कानून के बावजूद न तो देश से छुआछूत खत्म हुआ और न ही दलितों पर अत्याचार रुके। हमारी सुस्त न्यायिक प्रक्रिया की वजह से ही देश की विभिन्न अदालतों में इस समय करोड़ों मामले लंबित पड़े हैं।एससी/एसटी जैसे कठोर कानून के बाद भी देश में आज भी जारी है छुआछूत

बढ़ती शिकायतें

एससी-एसटी (प्रताड़ना निरोधक) कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला बाबा साहब की इस उक्ति के अनुरूप है। इसके दुरुपयोग की बढ़ती शिकायतों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के सुभाष काशीनाथ महाजन केस में दिए गए अपने फैसले में इसके तहत तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने और गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। असल में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (प्रताड़ना निरोधक) कानून 1889 में लागू होने और फिर 1995 में इस विशेष कानून के तहत बने सख्त नियमों के बाद से ही बहस का विषय रहा है। अगड़ी जाति के लोग इसे दलितों के जरिये निजी स्वार्थो और राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किए जाने के आरोप लगाते रहे हैं। उनके ये आरोप निराधार भी नहीं हैं।

तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान

इसकी वजह यह है कि इसमें आरोपी के खिलाफ फौरन एफआइआर दर्ज होने और तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान था। यही नहीं इस कानून की धारा 18 के तहत आरोपी की अग्रिम जमानत भी नहीं हो सकती थी। यह धारा भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 438 के विरुद्ध है जिसमें आरोप साबित होने तक अग्रिम जमानत का प्रावधान है। यही वजह है कि दलित उत्पीड़न जैसी घोर सामाजिक बुराई को समाप्त करने के लिए बना यह कठोर कानून अपने हित साधने जैसी एक दूसरी सामाजिक कुरीति को बढ़ावा देने लगा था। इसकी नजीरें जब-तब सामने आती रही हैं।1नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग की कहानी बयान करने के लिए काफी हैं। उसके अनुसार 2016 में इस कानून के तहत राष्ट्रीय स्तर पर दर्ज हुए कुल मामलों में महज 15.4 प्रतिशत ही सजा के पात्र पाए गए थे।

दलित उत्पीड़न रोकने में नाकाम कठोर कानून

इसी तरह सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के 2015 के आंकड़ों के अनुसार दलित प्रताड़ना के कुल 15638 मामलों में अदालत में सुनवाई हुई जिनमें से 11024 मामलों को या तो निरस्त कर दिया गया या फिर आरोपी बरी कर दिए गए। 495 मामले वापस ले लिए गए और केवल 4119 मामलों में ही आरोपियों को सजा हुई। सजा की इतनी कम दर से साबित होता है कि दलित प्रताड़ना निरोधक कानून के तहत दर्ज हुए अधिकतर मामले या तो फर्जी साबित हुए या अभियोजन पक्ष उन्हें साबित करने में नाकाम रहा। यह भी एक तल्ख हकीकत है कि इतने कठोर कानून की व्यवस्था होने के बावजूद देश में न तो दलित उत्पीड़न के मामलों में कमी आई है और न ही यह दलितों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने में सफल रहा है।

उद्देश्यों की पूर्ति में नाकाम रहा है SC/ST कानून

मतलब साफ है कि एससी-एसटी कानून लक्षित उद्देश्यों की पूर्ति करने में नाकाम रहा है। इसीलिए जस्टिस यूयू ललित और आदर्श गोयल की दो सदस्यीय खंडपीठ को अपने फैसले में कहना पड़ा कि कोई भी कानून स्वार्थो की पूर्ति के लिए बेकसूर लोगों और लोकसेवकों को सजा दिलाने का हथियार नहीं बनना चाहिए। काबिलेजिक्र है कि दोनों जजों की यह वही खंडपीठ है जिसने दहेज उत्पीड़न मामलों में भी जिला स्तरीय समिति बनाने की वकालत की थी। एससी-एसटी कानून के इस बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इससे संबंधित शिकायत मिलने पर तत्काल प्राथमिकी दर्ज नहीं होगी, बल्कि इसकी जांच होगी कि कहीं मामला फर्जी या दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है। इसके साथ ही कोर्ट ने अभियुक्त की तत्काल गिरफ्तारी पर भी रोक लगा दी है।

एससी-एसटी कानून का दुरुपयोग रोकना

अदालत ने कहा है कि सामान्य व्यक्ति की गिरफ्तारी से पहले एसएसपी की मंजूरी और सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी से पहले सक्षम अधिकारी की मंजूरी लेनी होगी। इसी तरह अदालत ने दूसरे मामलों की तरह इसमें भी अग्रिम जमानत का रास्ता खोल दिया है। इस फैसले के पीछे सुप्रीम कोर्ट की पूरी कवायद एससी-एसटी कानून का दुरुपयोग रोकना है। इस पर कांग्रेस समेत दीगर विपक्षी दलों और दलित संगठनों ने व्यर्थ की बहस छेड़ दी है कि केंद्र सरकार अदालत के सामने इस कानून पर मजबूती से अपना पक्ष रखने में नाकाम रही, इसीलिए दलितों के अधिकारों की रक्षा करने वाले इस कानून के प्रदत्त प्रावधानों में उच्चतम न्यायालय को परिवर्तन करना पड़ा।

राजनीतिक नफा-नुकसान

सत्तारूढ़ एनडीए के कुछ सहयोगियों ने भी इसका विरोध किया है। असल दिक्कत यही है कि हर मुद्दे की तरह इसको भी दलित अधिकार से ज्यादा राजनीतिक नफा-नुकसान के नजरिये से देखा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट का मकसद इस कानून के दुरुपयोग को रोकना मात्र है। अलबत्ता इस फैसले के कई बिंदुओं पर सार्थक बहस की गुंजाइश है। मसलन तत्काल एफआइआर, गिरफ्तारी और अग्रिम जमानत को लेकर अदालत ने ‘सक्षम अधिकारियों’ से अनुमति की जो शर्ते लगाई हैं, उससे हमारे पुलिसिया तंत्र और समाज में ऊंचा मुकाम रखने वाले लोगों के बीच एक गठजोड़ बनने की संभावना है। सभी जानते हैं कि रसूख रखने वाले अभियुक्तों को बचाने के लिए इनके द्वारा किस तरह के षड्यंत्र रचे जाते हैं।

दलित उत्पीड़न के मामले

फिर इतने कठोर कानून होने के बावजूद जब दलित उत्पीड़न के मामलों में अभियुक्तों के बरी होने की दर इतनी है तो फिर इसके बाद अग्रिम जमानत मिलने या फिर इन प्रावधानों के लचीला होने का खतरा भी बढ़ सकता है। हमारी सुस्त न्यायिक प्रक्रिया की वजह से देश की अदालतों में वैसे ही करोड़ों मामले विचाराधीन हैं। दलित और दहेज उत्पीड़न जैसे मामलों के दुरुपयोग को रोकने के लिए उसकी विभिन्न स्तरों पर प्रमाणिकता जांचने से इसकी रफ्तार और सुस्त पड़ने का खतरा है। देखा जाए तो इस कमजोरी की जड़ कहीं न कहीं कमजोर पुलिसिया और जांच तंत्र ही है। ऐसे में राजनीतिक दलों को बहस इस पूरे तंत्र को मजबूत करने के लिए करनी चाहिए। शोषित और कमजोरों के हितों की रक्षा करना संसद का मकसद तो होना चाहिए, लेकिन उसके लिए न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता के साथ समझौता भी नहीं होना चाहिए।

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