चमत्कार के चक्कर में लुप्त होती संवेदना
आज का समाज और युवा ऐसा है कि व हर तरह के संगीत को मिर्च-मसाला लगाकर चखना चाहता है। कभी ‘‘अलबेला सजन आयो रे’’ शास्त्रीय संगीत, कभी ससुराल गेंदा फूल की लोक धुन, कभी तमिल अंग्रेजी शब्द का मिश्रण कोलवेरी डी, कभी योयो हनी सिंह तो कभी तेज़ बीट्स पर बजने वाले रॉक संगीत। इसी दौर में फ्यूजन सांग की नयी विधा सामने आयी जिसमें शास्त्रीय धुनों को पाश्चात्य वाद्यों के साथ सजाया गया। यह विधा काफी हद तक लोकप्रिय रही, लेकिन इनमें से कुछ ही ऐसे गीत होते होंगे जो हमारे मनोमस्तिष्क को सुकून पहुंचाते होंगे और हमें जुबानी याद होंगे।
गीत स्वयं की अनुभूति है, स्वयं को जानने की शक्ति है एवं एक सौन्दर्यपूर्ण ध्वनि कल्पना है जिसका सृजन करने केलिए एक ऐसे अनुशासन की सीमा को ज्ञात करना है, जिसकी सीमा में रहते हुए भी असीम कल्पना करने का अवकाश है। मनुष्य अनुशासन की परिधि में रहकर संगीत को प्रकट करता है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के विचार, संवेदना, बुद्धिमता एवं कल्पना में विविधता होने के कारण प्रस्तुति में भी विविधता अवश्य होती है। इसी प्रकार देश एवं काल क्रमानुसार संगीत के मूल तत्व समाज में उनके प्रयोग और प्रस्तुतिकरण की शैलियों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। संगीत कला में भी प्रत्येक गुण की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक अवस्थाओं के अनुरूप परिवर्तन हुए और होते आ रहे हैं। विगत दस वर्षों में भारतीय शास्त्रीय संगीत और फिल्म संगीत की उपलब्धियों और विफलताओं का यदि आंकलन करें तो ज्ञात होता है कि यह परिवर्तन विभिन्न दिशाओं में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार का रहा है।
शास्त्रीय संगीत पूर्णतया रागश्रित है, जिसमें रागों की अवतारणा कलाकार राग में निहित स्वरों को अपनी ध्वनि कल्पना के माध्यम से करता है। रागों की सार्थकता विभिन्न शैलियों से होती है जो धु्रपद, धमार, ख्याल, ठुमरी, टप्पा आदि का आवरण ओढ़कर स्वयं को विविध रूपों में परिचित कराती है। उसके साथ ही आलाप, तान आदि इसके आभूषण हैं। जहां आलाप पूरी तरह से कल्पना प्रधान है और गम्भीर गुणों से युक्त है, जिसमें श्रोता को मन्त्रमुग्ध कर देने की असीम शक्ति है, वहीं तान उसके विपरीत है जिसमें चपलता है, द्रुत गति है, चमत्कारिता है और कल्पना का कोई भी अवकाश नहीं है। यदि कलाकार इन शैलियों को सही बरतें तो इसमें मन की गम्भीरता और चपलता दोनों ही मिलते हैं। ऐसी ही है राग गायन और वादन परम्परा जो सदैव धैर्य को धारण करने वाले श्रोता और प्रस्तोता दोनों के लिए उपयुक्त होती है।
वैसे विगत 50 वर्षों से संगीत में धैर्य की कमी तो हो ही रही थी किन्तु पिछले 10 वर्षों में धैर्य कहीं विलुप्त होता जा रहा है। सांगीतिक कार्यक्रमों में आज कलाकार और दर्शक दोनों ही समय की सीमा में बंध गये हैं, हर कोई जल्दबाजी में है, इसलिए जहां एक प्रस्तुति की समय सीमा दो घण्टे हुआ करती थी अब वह 25-40 मिनट में ही सिमट कर रह गयी है। जिसमें आनन्द की अनुभूति की गुंजाइश कम हो पाती है क्योंकि राग ध्यान करने की कला है, उसे प्रस्तुत करने और अनुभव करने के लिए उसका आह्वान करना होता है, जिसके लिए धैर्य और अनुशासन दोनों की आवश्यकता होती है। आज के इस द्रुत गति से बदलते परिवेश में संकटमोचन संगीत समारोह, ध्रुपद मेला, सवाई गन्धर्व संगीत महोत्सव जैसे कुछ ऐसे आयोजन हैं जो संगीत के रसत्व को जीवित रख रहे हैं, जहां आज भी संगीत की विविध विधाओं का प्रदर्शन किया जाता है और दर्शक पूरी रात बैठकर संगीत का रसास्वादन करते हैं।
बीते सालों में शास्त्रीय संगीत में विद्युत उपकरणों और तकनीक के प्रवेश से संगीत में क्रान्तिकारी परिवर्तन आए। आज प्रत्येक हस्तचलित वाद्य का विकल्प हमें विद्युत उपकरण अथवा वाद्य के रूप में प्राप्त हो जाता है। जिसमें न स्वरों की मार्जना का उपक्रम है और न स्वरों के संवाद का, ना ही हमें यात्रा के दौरान इसका बोझ उठाना होता है। तीन से चार फुट का तानपुरा एक छोटे से बॉक्स में आ जाता है। तकनीक ने इसे निरन्तर परिष्कृत करते हुए अब ऐसा रूप दे दिया है कि उसके लिए हमें तानपुरे/तबले या नगमें (लहरा) की आवश्यकता ही नहीं है। आज इंटरनेट पर तानपुरा एंड्राइड एप्लिकेशन उपलब्ध हैं जो हमारे मल्टीमीडिया मोबाइल फोन में ही मिल जाते हैं, जिसे काफी हद तक हस्तचालित तानपुरे/तबले के समकक्ष बनाने का प्रयास किया गया है। किन्तु जो गुणवत्ता वास्तविक तबले की थाप और तानपुरे के तारों से उत्पन्न स-प और सा-म संवाद में है वह इलेक्ट्रानिक वाद्यों में देखने को नहीं मिलती।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को सप्त स्वरों के साथ-साथ स्वरों के भी सूक्ष्म अंश श्रुतियों में भी बरता जाता है, तानपुरे की मार्जना (ट्यूनिंग) श्रुतियों में भी होना स्वाभाविक है, अन्य वाद्यों में भी ऐसा ही होता है। उसी के विपरीत इलेक्ट्रानिक वाद्यों में केवल स्वरों को स्थापित कर दिया गया है, जिसमें सूक्ष्मतम स्वाभाविक स्वर उत्पन्न होना असम्भव है, हम इस पर केवल निर्भर होते जा रहे हैं और हमारी बेहतर सुनने की क्षमता कम होती जा रही है, बेहतर सुनने की अवस्था में ही हम बेहतर गान-वादन कर सकते हैं यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम तकनीकि का सहारा लेते हुए भी हस्त चालित वाद्यों को भी प्रयोग में लाते रहें। इलेक्ट्रानिक वाद्यों के अतिरिक्त इंटरनेट ने भी अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिससे संगीत वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना रहा है। पहले जिन कलाकारों को हमें सुन पाना अत्यंत दुर्लभ था आज उनकी प्रस्तुतियां सहज ही इंटरनेट पर उपलब्ध हो जाती है। इसका एक सकारात्मक पक्ष है कि जिनके पास समय का अभाव है व जो कार्यक्रमों को सुनने या देखने नहीं जा पाते उन्हें वो कार्यक्रम इंटरनेट से उपलब्ध हो जाता है किन्तु इसके विपरीत आज लोग कार्यक्रमों में जाने के बजाय उसे घर बैठकर ही सुनना पसन्द कर रहे हैं। किन्तु रिकार्डेड कार्यक्रम और मंच पर होते जीवंत कार्यक्रम के बीच कोई समानता ही नहीं है। मंच का कार्यक्रम जीवंत होने के साथ-साथ क्षणभंगुर है, एक बार जो मंच पर हो गया वैसा दोबारा घटित होना असम्भव है। रिकार्डेड कार्यक्रम डिब्बे में बंद भोजन के समान है, जिसमें सबकुछ बासी है।
कुछ वर्षों में संगीत की शिक्षण संस्थाओं में संगीत के छात्रों की संख्या पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ गयी है, इसका मात्र एक कारण है टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले रियालिटी शो, जिसका बुखार बहुत तेज़ी से समाज पर चढ़ा और हर कोई अपने बच्चे को सोनू निगम और श्रेया घोषाल बनाने की होड़ में संगीत की शिक्षण संस्थाओं में दाखिला दिला रहा है। सवाल ये है कि बच्चे को संगीत की जन्मजात प्रतिभा प्राप्त हो न हो पर हर कोई स्वर को अपने अधीन करने के प्रयास में लग गया है। कुछ तो निराश हुए और कुछ ने सफलता भी प्राप्त की जिनमें संगीत का अनुकरण करने का गुण विद्यमान था। इससे भारतीय संगीत को एक लाभ अवश्य हुआ कि संगीत का जनसाधारण में प्रचार-प्रसार हुआ, परन्तु इसके साथ ही संगीत की शिक्षण संस्थाओं का एक बाजार खुल गया, जिसमें संगीत सीखने वालों और शिक्षण संस्थाओं की संख्या तो बढ़ी किन्तु उसकी गुणवत्ता में कमी आने लगी। संगीत एक गुरुमुखी विद्या है, जो गुरु के सानिध्य में रहकर ही प्राप्त होती है, जो कि संस्थागत शिक्षण परम्परा की एक या दो घंटे की कक्षाओं से सम्भव नहीं है, उसमें हम संगीत से केवल प्राथमिक स्तर पर परिचित हो सकते हैं इसीलिए किसी भी संस्था के छात्र से निष्णात कलाकार बनने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इसके विपरीत आईटीसी कोलकाता, स्पिक मैके और गंगूबाई हंगल संगीत नृत्य अकादमी जैसी संस्थाएं भी हैं जो गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित है और जहां सुपात्र शिष्यों का ही चयन किया जाता है।
जिस प्रकार अन्य विषयों में स्मार्ट क्लास (ई-लर्निंग) का दौर आया उसी प्रकार संगीत भी इससे अछूता नहीं रहा। आज संगीत के विद्वजन इंटरनेट के माध्यम से संगीत की शिक्षा दे रहे हैं, इससे एक शहर से दूसरे शहर गुरु के पास जाने का धन और समय दोनों की ही बचत हो पा रही है। जिससे शिक्षा तो मिल पा रही है पर ज्ञान नहीं, गुरु की कलात्मक ‘शैली’ तो मिल रही है पर गुरु का ‘तेज’ नहीं। शास्त्रीय संगीत से इतर यदि हम फिल्म संगीत की बात करें तो बीते हुए कुछ साल अनेक प्रयोगों से परिपूर्ण रहे जिसमें समय-समय पर बहुत अच्छा संगीत सुनने को मिला और कोलाहल तथा अश्लील शब्दों से युक्त संगीत भी। कहते हैं कि फिल्में समाज का आईना होती है, और फिल्म संगीत फिल्म के कथानक में निहित भावों को सार्थक बनाने में सहायक है। फिल्म संगीत समाज को वही परोसता है जो समाज को पसन्द है। आज का समाज और युवा ऐसा है कि व हर तरह के संगीत को मिर्च-मसाला लगाकर चखना चाहता है। कभी ‘‘अलबेला सजन आयो रे’’ शास्त्रीय संगीत, कभी ससुराल गेंदा फूल की लोक धुन, कभी तमिल अंग्रेजी शब्द का मिश्रण कोलवेरी डी, कभी योयो हनी सिंह तो कभी तेज़ बीट्स पर बजने वाले रॉक संगीत। इसी दौर में फ्यूजन सांग की नयी विधा सामने आयी जिसमें शास्त्रीय धुनों को पाश्चात्य वाद्यों के साथ सजाया गया यह विधा काफी हद तक लोकप्रिय रही, लेकिन इनमें से कुछ ही ऐसे गीत होते होंगे जो हमारे मनोमस्तिष्क को सुकून पहुंचाते होंगे और हमें जुबानी याद होंगे। इस प्रयोगवादी संगीत के दौर में संगीत में केवल चमत्कारिता रह गयी है, ऐसा संगीत ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता हैं, जिन्हें सुनते वक्त आंखें बन्द कर खो जाने को जी चाहें, जहां हम स्वयं को भूल जायें।
एआर रहमान ने काफी हद तक फिल्म को सुरीले संगीत दिए हैं जिसमें सुकून भी हैं, सादगी भी है और फ्यूज़न का भी एक बेहतरीन प्रयोग है। वर्तमान में रेखा भारद्वाज और अरिजीत सिंह इस बात का साक्षात उदाहरण है कि आज के गायक और श्रोता दोनों ही बहुमुखी गायकी को पसन्द कर रहे हैं, जिसमें स्वर और भाषा का देशी तड़का और विदेशी बीट्स के साथ शास्त्रीय संगीत की आलाप और तान की खट्टी-मीठी चटनी भी है। जो कभी किसी समूह को बेहद पसन्द आती है और किसी को नहीं भी। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि आज का फिल्म संगीत बाजार है, जिसे जिस तरह का संगीत पसन्द आए वह उसी ओर चल दे।
संसार में ऐसा कोई भी तत्व नहीं है जिसमें गुण और दोष न हों शास्त्रीय संगीत अपनी जटिलता चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति की प्रधानता, भाव प्रवणता की कमी के कारण विकृत हुआ तो फिल्म संगीत असभ्य अभिव्यक्ति, पॉप और रॉक संगीत के मिश्रण से मधुर ध्वनि से दूर हो गया, लेकिन इस संसार में प्रत्येक वस्तु पुनर्चक्रित अवश्य होती है, आज का समाज और युवा यदि इस कोलाहल के उन्माद में व्यस्त है लेकिन एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब ये गीत जरूर बज उठेगा ‘‘जाइये आप कहां जाएंगे ये नज़र लौट के फिर आएगी।’’