चुनाव का क ख ग
भारतीय मतदाता महान है, यह बात बार बार कही गयी है तो भी एक बार फिर कहने का मन कर रहा है। हाल में हुए पांच विधानसभा चुनावों में मतदाता ने जो करिश्मा किया, वह सिवाय खुद उसके और कोई नहीं समझ सकता। कैसे? जरा गौर करिए:-
चुनाव की कुण्डली वॉचने वाले एक्सपर्ट हमेशा से एक बात कहते रहे हैं और वह यह कि एन्टी-इनकम्बेंसी यानी सत्ता-विरोधी हवा आरपार फैसला करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लेकिन अभी क्या हुआ? केरल और असम में वहॉ के सत्तारूढ़ दल परास्त हो गए लेकिन पश्चिम बंगाल और तामिलनाडु में सत्तारूढ़ जीत गए। पश्चिम बंगाल में सरदा और नराधा जैसे भ्रष्टाचार के बड़े काण्ड हुए थे जिसमें सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कई नेता शामिल पाए गए थे और इसको लेकर विपक्ष और मीडिया ने बहुत हंगामा किया था, चुनाव प्रचार में इसका बार बार उल्लेख किया था लेकिन चुनाव में इसका कोई असर नहीं हुआ। मतदाता ने 2011 के चुनाव से कहीं ज्यादा- लगभग तीन चौथाई बहुमत ममता बनर्जी को दे दिया। लेकिन केरल में भ्रश्टाचार के दो बड़े मामलों ने जो तूल पकड़ा तो वहां की कांग्रेस-नीत सरकार चित हो गई।
भाई-भतीजावाद राजनीति में न तो नई बात है और न ही अनहोनी। इस सबके चलते राजनीतिक दल जीतते भी रहे हैं और हारते भी। लेकिन असम में इसने बड़ा असर दिखाया। करीब 35 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस ने जो उम्मीदवार उतारे थे वे किसी न किसी बड़े नेता के भाई-भतीजे थे। खुद मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने अपने बेटे को सांसद बनवा दिया। लोगों को बात पसंद नहीं आई। कांग्रेस की जो दुर्गति पिछले दो वर्षों से चल रही है, उसका यह चरम था। उसकी दो सरकारें जनता ने उड़ा दीं और मतदाता में उसके प्रति गुस्सा इतना था कि विभिन्न राज्यों में जिसने भी उसे छुआ उसकी दुर्गति हो गई। दो राज्यों में मिली करारी हार से ज्यादा कष्ट इसी बात का कांग्रेस को है। पश्चिम बंगाल में माकपा ने कांग्रेस से गठजोड़ किया तो उसकी यह दुर्दशा हो गई। वह कांग्रेस से भी पीछे हो गई ओर मुख्य विरोधी दल बने रहने की ताकत भी उसके पास नहीं रह गई। कांग्रेस को वामपंथियों के वोट तो मिल गए लेकिन वामपंथियों को कांग्रेस के वोट नहीं मिले। अब सीताराम यचुरी की माकपा के अन्दरखाने में इस बात को लेकर आलोचना हो रही है कि उन्होंने कांग्रेस से चुनावी तालमेल करके चलने की पुरजोर वकालत की थी। तामिलनाडु की भी लगभग यही स्थिति है। द्रमुक के तमाम नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस से गठजोड़ न किया होता तो उसे निश्चित ही बहुमत मिल जाता।
भाजपा में जितना जश्न- ज्यादातर मीडिया के माध्यम से- मनाया जा रहा है, उतने का आधार चुनाव परिणामों में कहीं दिखाई नहीं देता। लोकनीति-सी0एस0डी0एस0 ने चुनाव परिणामों का जो विश्लेषण तैयार किया है, उससे पता लगता है कि ज्यादातर राज्यों में, यहां तक कि असम में भी भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनाव से कम वोट मिले हैं। इस विश्लेषण से एक और महत्वपूर्ण बात पता लगी। नैट का इस्तेमाल करने वालों से पूछा गया कि वे मोदी सरकार से संतुष्ट हैं तो असम को छोड़ बाकी तीन राज्यों में असंतुष्टों की संख्या कहीं अधिक थी। असम में असंतुष्टों की तुलना में संतुष्टों की संख्या केवल एक प्रतिशत अधिक थी।
प0 बंगाल: 2014 में 16.8 प्रतिशत, 2016 में 10.2 प्रतिशत।
तामिलनाडु: 2014 में 5.5 प्रतिशत, 2016 में 2.8 प्रतिशत।
केरल: 2014 में 10.3 प्रतिशत, 2016 में 10.7 प्रतिशत।
असम: 2014 में 36.6 प्रतिशत, 2016 में 29.5 प्रतिशत।