दस्तक-विशेषस्तम्भ

आज भी भारत में साम्प्रदायिकता का जहर समाप्त नहीं हुआ है


फिरोज बख्त अहमद : पढ़ने व सुनने में एवं देखने में आ रहा कि धर्म की तिजारत करने वाली राजनीति की खतरनाक भूमिका रही है। जिन मुस्लिम नेताओं ने 1992 में बाबरी मस्जिद प्रकरण को चरम बिंदु पर पहुंचाया था, उनका तो बाल भी बांका न हुआ परंतु उसके बाद साम्प्रदायिक दंगों में हजारों बेगुनाहों की जानें गईं। भारतीय उप महाद्वीप की पिछली कई शताब्दियों का अनुभव हमें सिखाता है कि जब-जब राजनीति और धर्म का घाल-मेल हुआ है, साम्प्रदायिकता बढ़ी है और मानवता आहत हुई है। एक ही जैसा खाना खाने वालों, पहनने वालों और आपस में पड़ोसियों की भांति रहने वालों के बीच नफरत का जहर फैलाने वालों और सत्ता के भेड़ियों के कारण भयावह रक्तपात हुआ है और तकसीम हुई है। आज भी भारत में साम्प्रदायिकता का जहर समाप्त नहीं हुआ क्योंकि आए दिन कभी तो पीलीभीत में वरूण गांधी के खतरनाक बयान से तो कभी शबाना आजमी के मुसलमानों को घर न दिए जाने के आरोप से पता चलता है कि साम्प्रदायिकता अब भी जिंदा है और पनप रही है। साम्प्रदायिकता हमारे बीच उस बिल्ली की भांति घात लगाए बैठी है कि जैसे ही अवसर मिले तो वह शिकार को लील जाए और शिकार हमारे आप जैसे लोग ही बनते हैं। प्रायः हम लोग साम्प्रदायिकता का अर्थ धार्मिक दंगों के होने के रूप में लेते हैं। जब जब सांप्रदायिक दंगे नहीं होते तो इसका कारण यह नहीं है कि वह विचारधारा समाप्त हो चुकी है। ऐसा सोचने वाला तो मुंगेरीलाल की भांति हसीन सपने ले रहा है। वास्तव में साम्प्रदायिकता एक ‘‘माइण्डसेट’’ अर्थात् मनोभाव है और दंगे उसका सार्वजनिक विस्फोटक ऐलान। बकौल सामाजिक विशलेषज्ञ राज किशोर, हमारा इतिहास गवाह है कि समय-समय पर भारत में जमशेदपुर, भागलपुर, रांची, असम, बनारस, भिवण्डी, अलीगढ़, मुंबई, गुजरात, दिल्ली, उड़ीसा, आदि में सांप्रदायिक दंगे हुए हैं। ये साम्प्रदायिक दंगे केवल धर्म के आधार पर हीं नहीं बल्कि भाषा और प्रांत के आधार पर भी हुए हैं जैसा कि पिछले दिनों मुंबई में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ता हिन्दी भाषी छात्रों, मजदूरों, दुकानदारों एवं बिहारियों पर टूट कर पड़े थे। यह भी साम्प्रदायिकता का एक विहद स्वरूप है। लोग समझते हैं कि सांपदायिकता का अर्थ हिन्दू-मुस्लिम द्वेष भाव है। निःसंदेहा हिन्दु-मुस्लिम समस्या स्वतंत्रता-संघर्ष के समय से ही एक राष्ट्रीय समस्या रही है। और इसी के कारण देश का विभाजन हुआ और महात्मा की गांधी की हत्या हुई।

साम्प्रदायिकता यहीं समाप्त नहीं होती। यदि हम उत्तर-पूर्व भारत की जन-जातियों के साथ भारत की सेना और कश्मीर में सैनिक एवं अर्धसैनिक बल का बर्ताव देखें तो अंदाजा होगा कि साम्प्रदायिकता का पूर्ण क्या है। एक समय ‘‘पश्चिमी पाकिस्तान’’ से ‘‘पूर्वी पाकिस्तान’’ भी भाषायी एवं प्रांतीय साम्प्रदायिकता के कारण अलग हुआ क्योंकि पाकिस्तान के जमीनदारी फ्यूडल लाॅर्ड बंगालियों को नीचा समझते थे जिसके कारण उनमें हीन भावना ने विस्फोटक रूप से जन्म लिया और वह शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में पाकिस्तान से अलग हो गया। बहुत से लोग कहते हैं कि मुसलमान भारत में अरब देशों से आए हैं और इन्हें वहीं भेज देना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि मुसलमान भारत के ही रहने वाले हैं उनका जन्म भी यहीं हुआ था। जो मुसलमान भारत में रह रहे हैं वे वास्तव में पहले हिन्दू थे जिन्हें बाहर से आने वाले या सूफी-संतों ने अपने प्यार और व्यवहार से मुसलमान किया या कुछ बादशाहों ने तलवार की नोंक पर धर्म परिवर्तन किया। वैसे भारत में अधिकतर उन लोगों ने इस्लाम मजहब धारण किया जो ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, बाबा बुल्ले शाह, ख्वाजा सलीम चिश्ती, हजरत निजामुद्दीन औलिया, ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी आदि ऐसे सूफी-संतों की खानकाहों में जाते थे और उनके व्यवहार से इतना प्रभावित हो जाते थे कि उनके जीवन का, उकने गुणों का स्वयं अपने जीवन में आचरण कर लेते थे। रही बात धर्म निपेक्षता की तो बकौल न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्ण, इसको समझना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है इसे परिभाषित करना। आजकल इस शब्द का खूब प्रयोग हो रहा है। हर व्यक्ति इस शब्द का प्रयोग अपने ढंग से करता है। शुरू शुरू में यह शब्द ‘धार्मिक’ के विपरीत अर्थों में काम मे लिया जाता था परंतु धीरे-धीरे इसका अर्थ बदलता गया और इसे समाजशास्त्रीय संदर्भाें से जोड़ दिया गया। ‘‘इन्साइक्लोपीडिया आॅफ रिलीजन्स’’ के अनुसार, ‘सेक्युलरिज्म’ एक विचारधारा है, इसे मानने वाले हर प्रकार की अलौकिकता का अस्वीकार करते हैं और वैयक्तिक नैतिकता एवं सामाजिक संगठनों के आधार के रूप में गैरधार्मिक अथवा अधार्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं। अमेरिका के इंसाइक्लोपीडिया के अनुसार ‘सेक्युलरिज्म’ एक नीति शास्त्रीय व्यवस्था है जो प्राकृतिक नैतिकता के सिद्धांत पर आधारित है और धर्म एवं अलौकिकता से स्वतंत्र है। एशिया के महान कवि और ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ के रचयिता अल्लामा इकबाल के नजदीक साम्प्रदायिकता राजनीति के कफन की भांति थी। हिन्दू और मुसलमान की एकता को अंग्रेजों की गुलामों से मुक्ति की पहली शर्त माना था उन्होंने। नया शिवाला में सभी देवी-देवताओं को भुलाकर वतन के हर जर्रे को देवता की मानिंद उन्होंने वंदनीय करार दिया था। ‘‘दुई’’ की तकसीम को गर्क करके इकबाल ने ‘‘हम एक हैं’’ की आवाज बुलंद की थी। फिर कुछ ऐसी घटनाएं घटी कि अल्लामा हमारे न रहे। कुछ यही हालात उदार एवं सामान्यवादी चिंतन के धनी मुहम्मद अली जिन्नाह के साथ हुए कि जो भारत की हिन्दू-मुस्लिम एकता व अखण्डता का झंडा सबसे आगे लिए धूर्त अंग्रजों के खेमें में घुस कर हड़कंप मचा देते थे। वे कतई भी सांप्रदायिक न थे जिस प्रकार से उन्होंने एक प्रतिष्ठित पारसी परिवार की युवती से प्रेम-विवाह किया तो उतनी ही उदारता से अपनी इकलौती बेटी को उस पारसी युवक से विवाह करने की अनुमति दी जिससे वह प्यार करती थी मगर राजनीतिक सत्ता एवं शक्ति की लिप्सा ने उन्हें भारत विभाजन का सूत्रधार बना दिया।


शायद जिन्नाह ने सोचा न होगा कि अपने उनकी विचारधारा बदलने से तकसीम के दौरान लगभग छः लोगों की नृशंस हत्याएं होंगी, औरतों की अस्मत गली-चैराहों पर लुटेगी और एक करोड़ से अधिक हिन्दू-सिख तथा मुसलमान जिला वतन कर दिए जाएंगे। विभाजन से उखड़े भीष्म साहनी, खुश्वंत सिंह, करतार सिँह दुग्गल, फैज अहमद फैज, इंतजार हुसैन, सआदत हसन मन्टो, अली सरदार जाफरी, सरदार, मोहिन्दर सिंह बेदी आदि अनेक कवियों-लेखकों ने मेल-मिलाप, और प्रेम-मुहब्बत को बढ़ावा देने वाला साहित्य रचा है। इसी पंक्ति में राजा जस्वंत सिंह की पुस्तक, ‘जिन्नाः भारत-विभाजन के आईने में’ भी है जिसकी कुछ समय पूर्व बड़ी चर्चा रही। धर्म निपेक्षता के संबंध में आचार्य विनोबा भावे की चार बातों का वर्णन हम अवश्य करेंगे जो इस प्रकार हैं- अपने धर्म में श्रद्धा, सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव, अपने धर्म में सुधार और अधार्मिकता का निषेध। जहां ये चारों तथ्य होते हैं वहीं सर्वधर्म संभाव होता है। देश के बंटवारे के पूर्व की घटनाओं में हमारे संविधान निर्माताओं को बहुत प्रभावित किया था। और गांधी, नेहरू व आजाद ने भारत की सामाजिक एवं राजनीतिक सोच को दिशा एवं गति दी। गांधी के अनुसार सेक्युलरिज्म का अर्थ था-सर्वधर्म संभाव। वास्तव में विभाजन के पूर्व और उसके बाद की घटनाओं से जिस तरह का भययुक्त वातावरण बन गया था, उसमें ऐसी कोई अवधारणा आवश्यक थी जो सभी वर्गों में विश्वास की भावना जगा सके। एस. मोहन्ती ने अपनी पुस्तक ‘‘सेक्युलरिज्म एण्ड इण्डियन पालिटी’’ में लिखा है कि परीक्षा की इन घड़ियों ने धर्म निपेक्षता के एक भारतीय स्वरूप को जन्म दिया। सांप्रदायिकता आज भी लोगों के दिलों में निवास करती है और यदि कोई कहता है कि भारत से इसका खात्मा हो गया है तो अनुचित है। तो यह एक ठोस सांस्कृतिक समस्या है कि जिसकी आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रांतीय, जैविक आदि अनेक कारण हैं। सांप्रदायिक जहर को समाप्त करने के लिए हमें एक ऐसे विचारधारा को जन्म देना होगा कि जो धर्मनिर्पेक्ष होने के साथ-साथ हमारी मानसिक प्रवृत्ति में भी कुछ इस प्रकार का बदलाव लाए जैसा कि कहा गया है, मानुष की जात सब एकै है पहचान गो जब तक हम सड़क पर आने से पूर्व अपने धर्म को, जाति को, वर्ग को, भाषा को, वंश को घर छोड़कर नहीं आते और सामने वाले को बजाए हिन्दू या मुसलमान के तौर पर देखने के, एक इंसान, एक हिन्दुस्तानी के नाते नहीं देखेंगे तो साम्प्रदायिकता हमें इसी प्रकार से बांट कर रखेगी। उर्दू शायरी में बड़ी लुभावनी नज्में लिखी गई हैं श्रीकृष्ण, श्रीराम, होली, दीवाली, दशहरा आदि पर। गीता, कुरान, बाइबल, गुरू ग्रंथ साहिब आदि सभी सहअस्तित्व का संदेश देते है। साझा विरासत में ही खैर का पहलू है और हमें इसके साथ ही जीना होगा।


(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार एवं मौलाना आज़ाद के पौत्र हैं)
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