देहरादून: तमाम पाबंदियों और हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद दून शहर में सरकारी एवं निजी अस्पतालों से निकल रहा ‘खतरनाक जहर’ शहर में ही समा रहा। बएयामेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट की व्यवस्था करने में नाकाम जिले के 97 अस्पताल चिकित्सीय कचरा खुले में ही डंप कर रहे हैं। इनमें 45 अस्पताल तो शहरी क्षेत्र में हैं। नगर निगम कर्मी भी सच जानते हुए कूड़े को अपने ट्रेंचिंग ग्राउंड में डंप कर कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। यह स्थिति तब है जब हानिकारक रसायनों की दवाओं के साथ ही गंभीर रोगों में प्रयुक्त चिकित्सा उपकरण, असाध्य बीमारी में कटे मानव अंग समेत हानिकारक बायोमेडिकल वेस्ट (जैव चिकित्सीय अपशिष्ट) आमजन के लिए जानलेवा साबित हो सकता है। न तो नगर निगम, पर्यावरण संरक्षण व प्रदूषण बोर्ड गंभीर दिख रहे, न ही सरकार।
अस्पतालों से निकलने वाला कचरा इतना ज्यादा हानिकारक है कि उसे सामान्य कूड़े के साथ डंप नहीं किया जा सकता। शासन की तरफ से बायोमेडिकल वेस्ट के ट्रीटमेंट के लिए रुड़की स्थित मेडिकल पॉल्यूशन कंट्रोल कमेटी को अधिकृत किया गया है। अस्पतालों से निकलने वाले कचरे के लिए यहां जैव चिकित्सा अपशिष्ट निस्तारण केंद्र बनाया गया है। नियमानुसार अस्पतालों का कूड़ा नियमित रूप से उक्त केंद्र में पहुंचता रहे, इसके लिए उन्हें प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से ऑथराइजेशन (प्राधिकार) लाइसेंस हर हाल में लेना अनिवार्य है।
मगर, सच इसके एकदम उलट है। स्वास्थ्य विभाग की एक जांच रिपोर्ट के अनुसार जिले में कुल 220 अस्पतालों में से 97 के पास ऑथराइजेशन लाइसेंस है ही नहीं। ऐसे में इन अस्पतालों का हानिकारक रासायनिक कचरा कहां डंप किया जाता है, कुछ पता नहीं। यह कचरा जमीन की उर्वरता, भूजल व वातावरण में घुलकर लोगों की सेहत पर क्या बुरा असर डाल रहा है, यह जानने तक की जहमत भी सरकारी तंत्र नहीं उठा रहा।
हालात ये है कि बड़े अस्पतालों के साथ ही शहर में जगह-जगह खुले नर्सिंग होम व क्लीनिक बॉयोमेडिकल वेस्ट पर्यावरण कंट्रोल बोर्ड को देने के बजाए नगर निगम के कूड़ेदानों में ही गिरा देते हैं। कई मर्तबा ये नगर निगम के वाहन चालकों से सेटिंग कर लेते हैं व इनका रसायनिक कूड़ा बिना रसीद के सामान्य कूड़े के साथ ट्रेंचिंग ग्राउंड में गिरा दिया जाता है। सबकुछ जानते हुए भी निगम के अधिकारी मुंह सीले हुए हैं।
रोजाना निकलता है 2300 किलो मेडिकल वेस्ट
शहर में रोजाना करीब साढ़े तीन सौ मीट्रिक टन कूड़ा एकत्र होता है। इसमें अस्पतालों से हर दिन 2300 किलो बायोमेडिकल वेस्ट निकलता है, जबकि उठता केवल 1128 किलो है। जो कूड़ा उठ भी रहा है, वह भी ज्यादातर सरकारी अस्पतालों का है।
सख्त कानून के बाद भी नहीं खौफ
बायोमेडिकल वेस्ट के उचित निस्तारण पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986 के प्रावधानों के तहत किया जाता है। नियमों की अनदेखी पर अधिनियम के सेक्शन 15 में एक लाख तक जुर्माना, पांच साल तक की जेल व दोनों हो सकते हैं। इसी तरह सेक्शन-05 में अस्पताल के बिजली-पानी के कनेक्शन काटने के साथ ही सीलिंग की कार्रवाई भी की जा सकता है। अफसोस कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व सरकार की सख्ती के अभाव में अधिकतर अस्पताल संचालकों में कानून का भय ही खत्म हो गया है।
क्यों जरूरी है बायोमेडिकल वेस्ट का विशेष निस्तारण
बायोमेडिकल वेस्ट इतना खतरनाक होता है कि उसे न तो खुले में छोड़ा जा सकता है, न ही पानी में बहाया जा सकता है और न ही उसे अन्य कचरे की भांति सामान्य तरीके से डंप किया जा सकता है। इसके निस्तारण के लिए अलग-अलग मेडिकल कचरे के उठान के लिए भी अलग-अलग प्रक्रिया अपनाई जाती है। इसके बाद उसके निस्तारण के लिए भी कचरे को 10 श्रेणी में बांटा जाता है। हर कचरे को अलग ढंग से उपचारित करने के बाद कुछ को जमीन में गाड़ दिया जाता है तो कुछ को जला देना अनिवार्य होता है।
कचरे की श्रेणी, उपचार विधि व निस्तारण
मानव अंग: जमीन में गाड़ या जला भी सकते हैं।
पशु अंग: जमीन में गाड़ या जला भी सकते हैं।
माइक्रोबायोलॉजिकल वेस्ट: जमीन में गाड़ दिया जाता है।
वेस्ट शार्प: उपचार में प्रयुक्त ब्लेड, चाकू जैसे उपकरणों या औजारों को केमिकल में साफ करके जमीन में गाडऩा।
एक्सपायर दवाएं: जलाना।
सॉयल्ड वेस्ट: खून, घावसनी रुई, प्लास्टर आदि जैसे इस वेस्ट को जलाया जाता है।
सॉलिड वेस्ट: यूरीन ट्यूब आदि जैसे उपकरणों को केमिकल ट्रीटमेंट के बाद जमीन में गाडऩे का प्रावधान।
लिक्विड वेस्ट: हाइपो सॉल्यूशन के माध्यम से उपचारित कर नाली में भी बहाया जा सकता है।
इंसिन्युरेटर ऐश: यह वह राख होती है, जो चिकित्सीय कचरे को जलाने के बाद निकलती है। इसे नगर पालिकाओं की साइट पर डंप किया जा सकता है।
केमिकल वेस्ट: केमिकल ट्रीटमेंट के बाद नाली में बहाया जा सकता है।
कूड़ा उठान के लिए भी अलग-अलग रंग के होने चाहिए कूड़ेदान
पीला: मानव अंग, पशु अंग, माइक्राबायोलॉजी वेस्ट, सॉयल्ड वेस्ट।
लाल: माइक्रोबायोलॉजी वेस्ट, सॉयल्ड वेस्ट, सॉलिड वेस्ट।
नीला/सफेद: वेस्ट शार्प, सॉलिड वेस्ट।
काला: एक्सपायरी दवाएं, इंसिन्युरेटर एश, केमिकल वेस्ट।
दून मेडिकल कॉलेज अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक डॉ. केके टम्टा ने बताया कि बायोमेडिकल वेस्ट का उठान व इसका निस्तारण वैज्ञानिक तरीके से होना चाहिए। कूड़ा अगर खुले में गिर रहा है तो आमजन के लिए बीमारियों का कारण बन सकता है और यह बेहद हानिकारक भी साबित होता है। दून मेडिकल कालेज से बॉयोमेडिकल वेस्ट निस्तारण के लिए हरिद्वार स्थित प्लांट में भेजा जाता है।
वहीं पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी एसएस राणा ने कहा कि जिम्मेदारी नगर निगम है कि वह अपने कूड़े में मिलने वाले मेडिकल वेस्ट की रोकथाम करे। इसके अलावा निगम स्तर से कभी कोई शिकायत भी नहीं मिली कि उनके कूड़े में किसी क्षेत्र विशेष से मेडिकल वेस्ट आ रहा है। ऐसी शिकायत पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड क्षेत्र विशेष के सभी चिकित्सा प्रतिष्ठानों पर कार्रवाई कर सकता है।
नगर आयुक्त विजय जोगदंडे का कहना है कि निगम कर्मियों को अस्पतालों का रासायनिक कूड़ा उठाने से मना किया हुआ है। अस्पताल कूड़ा निस्तारण के लिए खुद संयंत्र लगाएं या रुड़की स्थित प्लांट में कूड़े को ट्रीटमेंट के लिए भेजें।