नेतृत्व की तलाश में विपक्ष
क्या भारत में केंद्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति की गुंजाइश खत्म हो गई है? केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बने ढाई साल हो गए हैं। इन ढाई सालों में विपक्षी दल एकता की कोई धुरी नहीं खोज पाए हैं। विपक्ष का बिखराव भी सरकार को ताकत दे रहा है। यह स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन इस वास्तविकता को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। दरअसल एकता के लिए एक ऐसे नेता की जरूरत होती है जिसमें लोगों का भरोसा हो। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ऐसे नेता के रूप में उभर रहे थे, लेकिन पिछले कुछ समय से उन्होंने विपक्षी राजनीति की मौजूदा संस्कृति से अपने को अलग कर लिया है। वह एक नए रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। जो सरकार के अंध विरोध के बजाय गुण-दोष पर आधारित है। बीते दिनों कांग्रेस ने विमुद्रीकरण के विरोध के लिए विपक्षी दलों की साझा बैठक बुलाई। शायद राहुल को लगा कि उन्होंने बैठक बुलाई है तो विपक्ष के बाकी नेता मना कैसे कर सकते हैं, लेकिन बैठक में राजनीतिक दलों और नेताओं की उपस्थिति ने उन्हें शाही घोड़े से उतार दिया। बैठक में आने वाली पार्टियों से ज्यादा संख्या न आने वालों की थी। जो आए उनमें भी ममता बनर्जी के अलावा किसी और दल का कोई बड़ा नेता नहीं आया। इस बैठक ने राहुल के नेतृत्व की राजनीतिक परिपक्वता और पार्टी से बाहर स्वीकार्यता, दोनों पर सवालिया निशान लगा दिया। विपक्षी नेताओं ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। जो नहीं आए उन्हें तो छोड़ दीजिए। जिन दलों ने प्रतिनिधि भेजा उनके बड़े नेताओं ने न आकर बता दिया कि वे राहुल की पालकी उठाने के लिए तैयार नहीं हैं।
राहुल गांधी के साथ समस्या यह है कि उनका नेतृत्व कोई उम्मीद या उत्साह नहीं जगाता। उक्त बैठक में उन्हें जो मौका मिला उसका भी वह फायदा नहीं उठा पाए। बैठक में ममता बनर्जी विरोध के स्वर की अगुआई करतीं नजर आईं। ममता बनर्जी 2016 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद से अपने लिए राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका तलाश रही हैं। उन्हें लग रहा है कि विमुद्रीकरण का मुद्दा ऐसा है जो उन्हें राष्ट्रीय मंच पर पहुंचा सकता है। उन्होंने पहले दिन से इस मुद्दे पर मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया है। ममता को लग रहा है कि समस्या बढ़ेगी और उसके साथ ही लोगों में नाराजगी भी। उस समय लोग उनकी ओर आकर्षित होंगे। उनकी सारी उम्मीद लोगों की संभावित नाराजगी पर टिकी है जो अभी तक तो दिख नहीं रही। ममता की इस राजनीतिक महत्वाकांक्षा के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा उनका स्वभाव है। क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा वाला उनका स्वभाव किसी संबंध को लंबे समय तक चलने नहीं देता। वह कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़कर आई हैं, लेकिन अब कांग्रेस के साथ हैं। एक समय वह नीतीश कुमार और नवीन पटनायक के साथ संघीय मोर्चा बनाने में सबसे आगे थीं। अब वही नीतीश कुमार उनके लिए गद्दार हो गए हैं।
ममता एक ऐसे राजनेता की छवि पेश कर रही हैं जो अपना परछाई से डरा हुआ है। उन्हें हर तरफ षड़यंत्र नजर आ रहा है। पहले एक विमान के उतरने में देरी को उन्होंने ऐसे पेश किया मानों उनकी हत्या की साजिश हो रही थी। फिर बंगाल में सेना के एक रुटीन अभ्यास पर हंगामा कर दिया कि उन्हें अपदस्थ करने की तैयारी है। दोनों मुद्दे उलटे पड़ गए। इन सब बातों के बावजूद ममता बनर्जी की लोकप्रियता और वोट दिलाने की क्षमता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। इसमें कोई शक नहीं कि ममता बनर्जी जनता की नेता हैं पर यही बात राहुल गांधी के बारे में नहीं कही जा सकती। राहुल गांधी वोट दिला सकते हैं, इसका भरोसा उनकी पार्टी के ही लोगों को नहीं है तो दूसरे दलों को कैसे होगा? गठबंधन तभी बनते हैं जब सबके पास एक-दूसरे को देने के लिए कुछ हो। कांग्रेस की झोली इस समय खाली है। वह दूसरों से लेने को तैयार हैं,लेकिन उसके पास देने के लिए कुछ नहीं है। यही वजह है कि संसद के भीतर दिखने वाली एकता सदन से बाहर आते ही तिरोहित हो जाती है। रही बात ममता की तो उनकी राजनीतिक शैली उन्हें बंगाल से बाहर स्वीकार्यता दिला पाएगी, इसमें संदेह है।
जो कांग्रेस पार्टी देश में भ्रष्टाचार की पर्याय बन चुकी है, ममता उसी कांग्रेस के साथ खड़ी हैं। हाल यह है कि राहुल जब कहते हैं कि कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सरकार के साथ है तो उनके अगल बगल खड़े लोग ही उन्हें संदेह की नजर से देखते हैं। सत्ता में रहते हुए दस साल तक जिसे कभी भ्रष्टाचार दिखाई नहीं दिया उसकी बात पर आज किसी को कैसे भरोसा होगा? भ्रष्टाचार के खिलाफ तो लोग अब केजरीवाल तक पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं, जबकि वह नेता ही बने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कारण। इसलिए राहुल गांधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना बंद कर देना चाहिए, क्योंकि वह जब भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की बात करते हैं तो लोगों को हास्य रस का बोध होता है। इसलिए उन्हें मोदी का विरोध करने के लिए किसी और मुद्दे की तलाश करना चाहिए। पिछले ढाई साल में विपक्ष में एकजुटता की बजाय बिखराव आया है। नोटबंदी ने नए राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है। विपक्षी दल तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस मुद्दे पर सरकार का कितना और कहां तक विरोध करें?
बिहार में जिस राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिलकर वह सरकार चला रहे हैं, नोटबंदी के मुद्दे पर उससे अलग खड़े हैं। पिछले एक साल में उन्होंने राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर सरकार का समर्थन किया है। फिर चाहे मामला जीएसटी का हो, सेना की पाक अधिकृत कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक का हो या फिर नोट बंदी का, नीतीश कुमार सरकार के साथ खड़े नजर आए हैं। इतना ही नहीं उनके पास कहने और करने के लिए नया है। जब विपक्षी दल नोटबंदी पर लोगों के विद्रोह की बाट जोह रहे हैं उस समय उन्होंने बिहार सबआर्डिनेट और सुपीरियर जूडीशियल सेवा में पचास फीसदी आरक्षण का फैसला किया है। राजनीतिक विश्लेषकों ने इस बदलाव की ओर ध्यान नहीं दिया है। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक फिलहाल उनके एकमात्र साथी नजर आते हैं। ऐसे लोग जिस दिन सरकार की आलोचना में खड़े होंगे तो उनकी बात की विश्वसनीयता ज्यादा होगी। यह साल खत्म होते-होते विपक्ष का ज्यादा बांटकर जा रहा है। इससे ज्यादा चिंता की बात यह है कि 2017 में स्थिति में बदलाव का कोई संकेत भी देकर नहीं जा रहा। मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष को गोलबंद होना है तो पहले प्रभावी मुद्दों की तलाश करना पड़ेगा। इसके साथ ही एक ऐसे नेता की भी जो सपने दिखा सके और सपनों को पूरा करने का भरोसा भी दिला सके। जब तक ऐसा नहीं होता मोदी सरकार के सामने कोई राजनीतिक चुनौती नहीं है।