बेटिकट यात्रा करते पकड़ाया तो दी ऐसी सजा, 20 साल से उठा रहा लाशें
गया। ट्रेन में बिना टिकट यात्रा करना अपराध है, इसके लिए या तो जुर्माना लगाया जाता है या फिर जेल जाना पड़ता है। लेकिन एक यात्री को बिना टिकट यात्रा करने की कुछ ऐसी सजा मिली है जिसे वो पिछले 20 साल से भुगत रहा है।
दरअसल गया जिले का लखन दो दशक पहले पत्नी के साथ ट्रेन से बेटिकट यात्रा करते पकड़ा गया था। जुर्माना भरने के पैसे नहीं थे सो, टीटीई जेल भेजने की तैयारी में था। तभी रेल थाना के बड़ा बाबू ने उनका जुर्माना भर दोनों को मुक्त करा लिया। यहां से शुरू हुआ लखन के लखन का नया सफर।
बड़ा बाबू ने लखन को रेलवे ट्रैक पर मिलने वाले अज्ञात शवों को कानूनी तरीके से अंतिम संस्कार करने की जिम्मेदारी दी। बढ़ती महंगाई और परिवार के बोझ के आगे अब इस जिम्मेदारी को ढोने में उसके कंधे जवाब देने लगे हैं। शव निस्तारण को मिलने वाले चंद रुपयों से ही उसे परिवार का भरण-पोषण करना पड़ रहा है।
1995 में अपनाया था पेशा
1995 में गया जंक्शन पर लखन व उसकी पत्नी बेटिकट पकड़े गए थे। उस समय रेल थाना के रामदेव बाबू दोनों को बड़ा बाबू रामदास के पास ले गए। उन्होंने अज्ञात शव के निस्तारण करने की शर्त पर जुर्माना भर दोनों को मुक्त कर लिया। इसके बाद रेलवे ट्रैक पर मिलने वाली अज्ञात लाशों के निस्तारण की शर्त रखी। तब से यही उसका पेशा बन गया।
अलग से नहीं मिलती फूटी कौड़ी
लखन लाश को उठाने से लेकर अंमित संस्कार के लिए रेल प्रशासन की ओर से 1000 रुपये मिलते हैं। उसकी मानें तो शव को उठाने के लिए एक साथी जरूरी है, इसके लिए उसे दो सौ रुपये देने होते हैं। फिर 100 रुपये पोस्टमार्टम हाउस में। अंतिम संस्कार में चार सौ की लकड़ी लगती है। मरघट पर जलाने के लिए सौ पचास देना पड़ता है। बचे दो-ढाई से घर चलाना पड़ता है। इसके अलावा एक भी फूटी कौड़ी उसे नहीं मिलती।
ऐसी विडंबना
लखन कहता है- रोज-रोज अज्ञात लाश थोड़ ही मिलती है। महीने में औसतन चार-पांच ऐसी घटनाएं होती हैं। कई बार मांग कर या रेल थाने में हाथ फैलाकर घरवालों का पेट भरना पड़ता है।
जिम्मेदारी का बोझ
बढ़ती महंगाई में पत्नी व चार बच्चों का लालन पालन उसके लिए कठिन हो गया है। बेटी दीपा के हाथ पीले करना, बेटे कार्तिक, गणेश और रमेश के पढ़ाई लिखाई की चिंता उसे खाए जा रही।
वफादारी से काम
लखन दास गया रेल थाना के इर्द-गिर्द ही रहता है। रेल ट्रैक पर शव या घायल मिलने इस रेल थाने के अस्थायी ‘कर्मचारी’ की बुलाहट होती है। वह घायलों को अस्पताल पहुंचाता है।
आस की कुछ मिले
लखन और पत्नी ओरूम दास सरकार से आस लगाए बैठे हैं कि कभी न कभी उन्हें इस काम के लिए स्थायी नौकरी या जरूरत भर पैसा मिलेगा