मोदी सरकार के लिए अब जन-धन खाते गले की फांस बनते जा रहे हैं। दरअसल लाख कोशिशों के बाद भी जन-धन में जीरो बैलेंस अकाऊंट यानी जिन खातों में बिल्कुल भी पैसा नहीं है उनकी संख्या बढ़ रही है।वित्त मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार नोटबंदी लागू होने के बाद इन अकाऊंट्स में अचानक पैसे जमा हुए थे। अब फिर से तेजी के साथ जीरो बैलेंस अकाऊंट की संख्या बढ़ी है। यानी जमा पैसे निकाल लिए गए।
आंकड़ों की बात करें तो अक्तूबर में जहां जन-धन स्कीम में कुल जीरो बैलेंस अकाऊंट्स की संख्या 5.93 करोड़ थी वहीं फरवरी तक यह संख्या बढ़कर 6.90 करोड़ हो गई। मामले की गंभीरता को देखते हुए वित्त मंत्रालय में बैठकों का दौर आरंभ हो चुका है। सरकार जल्द अब बैंकों के साथ बैठक करने जा रही है। जल्द ही इसका समाधान ढूंढा जाएगा। बैंकों ने अब साफ तौर से सरकार को कह दिया है कि वे ज्यादा समय तक जीरो बैलेंस वाले अकाऊंट का भार वहन नहीं कर सकते। बेहतर है कि इन खातों को बंद कर दिया जाए। वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 14 जून तक देश में 28.9 करोड़ प्रधानमंत्री जन-धन खाते थे। इनमें से 23.27 करोड़ बैंक खाते सरकारी बैंकों में, 4.7 करोड़ खाते रीजनल रूरल बैंकों में और 92.7 लाख खाते प्राइवेट बैंकों में थे। इन खातों में संयुक्त रूप से 64,564 करोड़ रुपए जमा थे। सरकारी बैंकों में 50,800 करोड़ रुपए, रीजनल रूरल बैंकों में 11,683.42 करोड़ रुपए और प्राइवेट बैंकों में 2080.62 करोड़ रुपए जमा हुए।
बैंकों के अनुसार जन-धन स्कीम के तहत एक अकाऊंट को जारी रखने पर 140 रुपए से ज्यादा का खर्च आता है। ऐसे में अगर 7 करोड़ अकाऊंट में जीरो बैलेंस रहेगा तो यह राशि करोड़ों में चली जाएगी। सरकार ने बैंकों से कहा है कि वे जन-धन अकाऊंट में पैसे जमा करवाने के लिए जागरूकता अभियान चलाएं। जागरूकता अभियान चलाया भी गया मगर इससे कोई फायदा नहीं हुआ। एक सरकारी बैंक के उच्चाधिकारी का कहना है कि इस वक्त बैंकिंग सैक्टर की जो दशा है उसके तहत जीरो बैलेंस वाले खातों को बंद करने का विकल्प ही सबसे बेहतर है। बैंकों पर इस वक्त एन.पी.ए. को कम करने का दबाव है। ऐसे में जीरो बैलेंस वाले खातों से जो वित्तीय बोझ बैंकों पर पड़ रहा है उसको बैंक किस तरह से उठा सकते हैं। एक विकल्प यह है कि जीरो बैलेंस वाले खातों का खर्चा सरकार बैंकों को अलग से दे।