अद्धयात्मस्तम्भ

‘आत्मा’ : भारतीय चिंतन का निराला तत्व

धर्म सांसारिक आचार संहिता है। देशकाल के अनुसार परिवर्तनीय है। भूत, भविष्य मनुष्य मन के गढ़े विचार हैं। गतिशील संसार दिक्काल के अधीन है। यहां दिक् और काल के प्रभाव हैं। क्या इसका अतिक्रमण संभव है? कठोपनिषद् की कथा में यम से नचिकेता का प्रश्न “धर्म और अधर्म व भूत भविष्य से पृथक तत्व” जानने का है। यम ने बताया कि “संपूर्ण वेद एक परमपद का प्रतिपादन करते हैं। सारे तप-श्रम उसका लक्ष्य करते हैं। साधक इसी की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। संक्षेप में वह पद ओउ्म है – ओ3म् इति एतत। यह अविनाशी अक्षर ही ब्रह्म है। यही परम है। इसको जानने वाला जैसी इच्छा करता है। वही उसे प्राप्त हो जाती है।” (कठोपनिषद् 1.2.15 व 16) भारतीय इतिहास के वैदिक काल में ओ3म् की विशेष महत्ता थी। उत्तर वैदिक काल में दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का खासा विकास हो चुका था। ‘ओ3म्’ की आस्था और अनुभूति में कोई कमी नहीं आई। मांडूक्योपनिषद् का पूरा विषय ओ3म् ही है। अन्य उपनिषदों में यही स्थापना है। ऋग्वेद से लेकर योग विज्ञानी पतंजलि तक विस्तृत भारतीय चिंतन में ओ3म् की प्रतिष्ठा है। यहां यम ने ओ3म् को ब्रह्म बताया। ‘ब्रह्म’ संपूर्णता है और उपनिषदों की प्रिय धारणा है। यम ने बताया कि ओ3म् के जानकार की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं – यद् इच्छति तस्य तत्। यहां ओ3म् सांसारिक उपलब्धियों का भी उपकरण है।
कठोपनिषद् की सुंदर कथा में यम ने नचिकेता को तमाम सांसारिक भोग सुख देने के प्रस्ताव किए थे। नचिकेता ने सांसारिक भोगों को तुच्छ और अनित्य बताया था। यम ने नचिकेता के इस त्याग की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी लेकिन उसी नचिकेता को यम ने ओ3म् को सारी इच्छा प्राप्ति का साधन बताया। यहां अन्तर्विरोध हैं। मूल प्रश्न से भटकाव भी है। नचिकेता ने धर्म और अधर्म व भूत भविष्य से परे किसी विशेष तत्व की जिज्ञासा की थी। यम ने ओ3म् की महत्ता से वार्ता शुरू की। ओ3म् को ब्रह्म बताया। इससे नचिकेता के मूल प्रश्न की ओर यात्रा बढ़ी। यम ने कहा “ ओ3म् ही आलम्बन है। श्रेष्ठ आलम्बन भी है। इसे ठीक से जानने वाला ब्रह्मलोक में महिमा पाता है।” (वही 17) ब्रह्म संपूर्णता है। यह ओ3म् में है। विश्व की दृश्य अदृश्य संपूर्णता ब्रह्म है तो अलग से ब्रह्मलोक की बात समझ में नहीं आती। यहां प्रत्यक्ष संसार भी ब्रह्मलोक क्यों नहीं है। संसार को ब्रह्मलोक से पृथक मानने का औचित्य कया है? जब ओ3म् या ब्रह्म संसार को बाहर और भीतर से आच्छादित करते हैं तो संसार भी ब्रह्मलोक का ही हिस्सा है।
यम नचिकेता के प्रश्नोत्तर हजारों बरस बाद भी रमणीय हैं। निस्संदेह इनका कुछ भाग कालप्रभाव में बूढ़ा हो गया है लेकिन बड़ा भाग भारत की दार्शनिक परम्परा की मूल पूजी है। नचिकेता ने “मृत्यु के बाद के जीवन प्रवाह” को जानने की इच्छा व्यक्त की थी। उत्तर वैदिक काल से आधुनिक काल तक यह प्रश्न सबकी जिज्ञासा है – क्या मृत्यु सब कुछ छीन लेती है? या मृत्यु के बाद भी जीवन की गति चला करती है? यम ने आत्मतत्व का स्वरूप बताया “यह ज्ञानस्वरूप आत्मा जन्म नहीं लेता। कभी नहीं मरता। यह स्वयं किसी से जन्म नहीं पाता और इससे भी कोई जन्म नहीं पाता। यह अज-सदा से है। शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।” (वही 18) ‘आत्मा’ भारतीय चिंतन का निराला तत्व है। कठोपनिषद का यही विचार गीता (2.20) में जस का तस आया है। कठोपनिषद् में वक्ता यम है। गीता के प्रवक्ता श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था, “आत्मा जन्म नहीं लेता। नहीं मरता। यह उत्पन्न नहीं होता। यह अजन्मा नित्य, सनातन व पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता।” दोनो श्लोकों की अंतिम पंक्ति एक ही है “न हन्यते हन्यमाने शरीरे। दोनो का भाव एक है। अंतर श्रोता और वक्ता का है। कठोपनिषद् का नचिकेता जिज्ञासु है। गीता का अर्जुन विषाद में है।
आत्मा के सम्बन्ध में गीता और कठोपनिषद् का तल एक है। यम ने आगे कहा “मारने वाला मारने में स्वयं को समर्थ कर्त्ता बताता है। मारा जाने वाला स्वयं को मारा जाने वाला कहता है। दोनों ही सही तथ्य तत्व नहीं जानते। यह आत्मा न तो मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है।” (वही 19) इस मंत्र श्लोक में भी गीता (2.19) व कठोपनिषद् के अंतिम वाक्य शब्दशः एक हैं, “उमौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते – दोनो नहीं जानते कि यह मारा जाता है और न ही मारता है।” गीता में इसे और भी विस्तार मिला है “इसे शस्त्र नहीं मार सकते। आग नहीं जला सकती। वायु शुष्क नहीं कर सकती। आदि।” आत्मा के सभी परिचय ‘नहीं’ कहकर समझाए गए हैं। वह क्या है? इसका परिचय कम है। यम ने नचिकेता को बताया, “जीवों की गुहा में भीतर रहने वाला आत्मा अणु से छोटा – सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से भी विराट है। आत्मा की महिमा को कामनारहित चिन्तामुक्त साधक ‘धातु प्रसाद’ से ही देखता है।” (वही 20) यह मंत्र ज्यों का त्यों श्वेताश्वतर उपनिषद् (3.20) में भी आया है। यहां शब्द ‘धातु प्रसाद’ ध्यान देने योग्य है। गीता प्रेस के भाष्य में धातु प्रसाद का अर्थ ‘ईश्वर कृपा’ किया गया है। धातु मूल है। सृष्टि का आदि तत्व भी धातु होना चाहिए। धातु या मूल के गुणों से परिचय बड़ा उपयोगी होता है। संसार का मूल जानने वाला आत्मा को भी जान सकता है।
उपनिषदों में आत्म तत्व की गतिशीलता भी बड़ी रोचक है। ईशावास्योपनिषद् (5) में कहते हैं, “वे चलते हैं, नहीं भी चलते। वे बहुत दूर हैं, बहुत निकट भी हैं। वे संपूर्ण जगत के भीतर हैं और बाहर भी हैं।” यम ने नचिकेता को बताया “वह बैठे बैठे दूर पहुंच जाता है। वह शयन करता हुआ सब ओर चलता है। ऐश्वर्य से भरे पूरे इस देव को मैं (या मेरे जैसे) जानने में समर्थ हूँ।” (कठोपनिषद् वही 21) यहां सारा परिचय गतिशीलता पर आधारित है। यम ने आगे बताया, “विनाशशील शरीरों में अविचल स्थित वह अशरीरी है। अशरीरं है। सर्वव्यापी है। इसे जानने वाला शोकग्रस्त नहीं होता।” (वही 22) पहले गति फिर स्थिरिता। ‘अविचल स्थित’ शब्द का भाव यही है। अशरीरी होने के कारण उसका रूप नहीं है। मजेदार बात है कि वह शरीरों में है। लेकिन शरीर नहीं है। मूल समस्या उसे जानने की है। परिचय हो तो हो कैसे? यम ने बताया कि “यह आत्मा प्रवचन से नहीं मिलता। न बहुत बुद्धि से। ज्ञान सुनने से ही वह नहीं जाना जा सकता। यह आत्मा स्वयं ही जिस पर अपना तत्व प्रकट करता है, उसे प्राप्त हो जाता है।” (वही 23) यहां प्रवचन को व्यर्थ बताया गया है और तीव्र बुद्धि या मेधा को भी। प्रवचनकर्ता उत्तर वैदिक काल में भी रहे होंगे। आधुनिक काल में उनकी बाढ़ है। उपनिषद् की माने तो प्रवचन से ज्ञान नहीं मिलता। सही बात है कि प्रवचन से ज्ञान मिलता तो सारा मानव समाज ज्ञानी हो गया होता।
आत्मबोध कठिन साधना है। यह सामान्य ज्ञान से अनुभूत नहीं होता। आत्मबोध का उपकरण अन्तरयात्रा है और अन्तर्यात्रा आसान नहीं। इस यात्रा में कोई सुनिश्चित मार्ग नहीं होते। मार्ग पर पत्थर के पथसंकेतक का भी प्रश्न नहीं उठता। यम ने नचिकेता को बताया, “आचरणहीन मनुष्य को यह नहीं मिलता। अशांत लोगों को भी यही प्राप्य नहीं है। संयमहीन भी इसे नहीं पाते। ब्रह्म ज्ञानी विद्वान और शक्तिशाली शासक भी इसके भोजन होते हैं। मृत्यु भी उपसेचन या सहायक भोज्य सामग्री हो जाती है। ऐसे आत्मतत्व को बारे में ठीक से कौन जानता है?” (वही 24 व 25) आचरणहीन व अशांत मन वालों को आत्मज्ञान के अयोग्य बताना सदाचार की स्थापना है। दर्शन में सदाचार लाना उपनिषदों की प्रशंसनीय सामाजिक भ्ूामिका है। विद्वानों और शक्तिशाली लोगों को इसका भोजन व मृत्यु को सहायक भोजन बताना कालवाद या नियतिवाद है। यहां कर्म भूमिका की प्रासंगिक उपेक्षा है। कालवाद गीता में भी है। गीता में इसी दर्शन का उपयोग कर्मप्रेरणा के लिए किया गया है। कर्मविरत अर्जुन को युद्ध कर्मरत करने के लिए कालवाद का भी सहारा लिया गया है। नचिकेता जिज्ञासु है। संभवतः उसकी आत्म विषयक जिज्ञासा के लिए ही यहां आत्मा और नियति का साथ लिया गया है। लेकिन अंत बड़ा प्यारा है “ऐसे आत्मतत्व के बारे में कौन ठीक से जानता है?” यहां ऋग्वेद के नासदीय सूक्त की गूंज है कि सृष्टि का अध्यक्ष भी अपना रहस्य जानता है कि नहीं जानता?

 

 

 

 

 

 

 

  • हृदयनारायण दीक्षित

(रविवार विशेष)

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