अन्तर्राष्ट्रीय

कॉल सेंटर में काम करने वाले भारतीय होते हैं नस्लभेद के शिकार: शोध

लंदन : जब कभी उसका क्लाइंट फोन काट देता है, तो वह वॉशरूम जाकर अकेले में रोती है। फिर वह अपनी आंखें धोती है और डेस्क पर वापस आकर अगली कॉल के लिए तैयार होती है। यह केवल हैदराबाद के एक कॉल सेंटर की कहानी नहीं है, बल्कि देश के हर कॉल सेंटर का कुछ ऐसा ही हाल है। देश को भले ही कॉल सेंटर्स का हब माना जाने लगा हो, लेकिन देश-विदेश को सर्विस उपलब्ध करा रहे बीपीओ कर्मचारी खासे तनाव में रहते हैं। विदेश से आने वाली कॉल्स पर उन्हें नस्लवादी टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। अमेरिका जैसे देशों के लोग उन्हें ‘जॉब चोर’ तक कह देते हैं। बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिग (बीपीओ) सेंटर्स इन इंडिया’ की रिपोर्ट के मुताबिक, क्लाइंट से बात करते हुए कर्मचारियों को नस्लवादी गालियां सुननी पड़ती हैं, जो तनाव का कारण बनती हैं। इंग्लैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ केंट की श्वेता राजन ने यह रिपोर्ट तैयार की है। वह बताती हैं, यह मंदी के बाद की सच्चाई है।

पश्चिमी देशों के क्लाइंट्स का स्वभाव कॉल सेंटर्स वालों के लिए काफी रूखा होता है। यदि उन्हें लगता है कि कॉलर भारतीय है, तो उनका सबसे बड़ा डर यह होता है कि ये लोग उनकी नौकरी चुरा रहे हैं और सारी चीजें आउटसोर्स हो रही हैं। एक कॉल सेंटर वर्कर ने बताया, अपशब्द रोज की बात हैं। दिन में एक या दो बार हमें इस तरह के शब्दों को सुनना पड़ता है। रिसर्च में बताया गया कि कैसे हालिया अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम ने भी बीपीओ कर्मचारियों को प्रभावित किया है। श्वेता का कहना है कि ब्रेग्जिट और अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्लभेदी टिप्पणियां बढ़ गई हैं। 90 के दशक में जब विदेशी कंपनियां भारत आई थीं, तब उन्होंने पूरी कोशिश की थी कि कॉलर्स को पता न चल पाए कि उनकी मदद करने वाला कोई भारतीय है। इसका एक कारण यह भी था कि लोग विदेश में बैठे किसी व्यक्ति से मदद लेने के बजाय उनके देश के व्यक्ति से प्रोडक्ट या सर्विस पर मदद लेना चाहेंगे। 90 के दशक में भारतीय कर्मचारियों को अमेरिका तक भेजा गया, ताकि वे वहां बात करने के तौर-तरीके सीख जाएं।

 

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