अद्धयात्म

क्या आप जानते हैं मुहर्रम पर क्यों मातम करते हैं शिया मुसलमान?

मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है. इस महीने की 10वीं तारीख को इस्लाम के अनुयायी रंज और गम के तौर पर मनाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि आज से करीब 1337 साल पहले मुहर्रम की इसी तारीख को पैगंबर मोहम्मद के नवासे हजरतहुसैन को कत्ल किया गया था.क्या आप जानते हैं मुहर्रम पर क्यों मातम करते हैं शिया मुसलमान?

इराक की राजधानी बगदाद से करीब 120 किलोमीटर दूर कर्बला नाम की एक जगह है. इस्लामिक स्कॉलर्स के मुताबिक, ये महज किसी शहर का नाम नहीं है, बल्कि यहां की मिट्टी गवाह है इस्लामिक तारीख की उस सबसे बड़ी जंग की, जिसमें जुल्म की इंतेहा हो गई. यहां की हवाएं चश्मदीद हैं यजीद के उन पत्थर दिल फरमानों की, जब 6 महीने के अली असगर को पानी तक नहीं पीने दिया गया और उस अत्याचार की, जहां भूख-प्यास से एक मां के सीने का दूध खुश्क हो गया.

632 ई. में पैगंबर मोहम्मद का निधन हो जाने के बाद उनके परिवार और इस्लाम के दुश्मन मजबूत होने लगे. पहले दुश्मनों ने मोहम्मद की बेटी फातिमा जहरा पर हमला किया. फिर उनके दामाद हजरत अली पर तलवार से वार कर उन्हें कत्ल कर दिया गया. इसके बाद अली के बड़े बेटे हसन की शहादत हुई.

परिवार को खत्म करना था मकसद

इस्लामिक स्कॉलर्स के मुताबिक, दुश्मन पैगंबर मोहम्मद के पूरे परिवार को खत्म करना चाहते थे. अली और उनके बड़े बेटे हसन की शहादत के बाद अब दुश्मनों ने छोटे बेटे हुसैन को निशाना बनाना शुरू कर दिया.

यजीद और हुसैन

पैंगबर के परिवार को खत्म करने की साजिश मक्का-मदीना से निकलकर कर्बला तक पहुंच गई. यजीद (जो कि खुद को खलीफा मानता था) ने हुसैन पर अपने मुताबिक चलने का दबाव बनाया. हुसैन को हुक्म किया कि वो उसे अपना खलीफा माने. वह चाहता था कि अगर हुसैन उसे मानने लगा तो इस्लाम पर उसका बोलबाला हो जाएगा, जिसे वो अपने मुताबिक चला सकेगा. मगर, हुसैन ने ऐसा मानने से इनकार कर दिया. हुसैन ने यजीद के हर ऑफर को ठुकरा दिया.

जब हुसैन कर्बला पहुंचे थे, उनके साथ एक छोटा सा लश्कर था. इस काफिले में औरतों के अलावा छोटे बच्चे भी थे. इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक मुहर्रम की दूसरी तारीख को हुसैन कर्बला पहुंचे थे. इसके बाद 7 मुहर्रम को यजीद ने हुसैन के लश्कर का पानी बंद कर दिया और उन पर अपनी बात मानने का हर मुमकिन दबाव बनाया.

हुसैन को पता था कि यजीद बहुत ताकतवर है. उसका लश्कर कहीं ज्यादा बड़ा है. उनके पास हथियार हैं, खंजर हैं, तलवारें हैं. जबकि उनके अपने लोग बेहद कम संख्या में हैं. बावजूद इसके हुसैन अपने उसी दीन पर कायम रहे, जो उनके नाना और पैगंबर मोहम्मद का इस्लाम है.

इस बीच यजीद के जुल्म बढ़ते गए. मगर, वो हुसैन और उनके काफिले के हौसलो को डिगा न सके. मुहर्रम की 9 तारीख को इमाम हुसैन ने साथियों से काफिला छोड़कर अपनी जान बचाने की पेशकश की. हुसैन ने कहा कि कल दुश्मनों से हमारा मुकाबला है और वो बेहद ताकतवर हैं, इसलिए मैं खुशी से ये चाहता हूं कि आप लोग यहां से निकल जाएं. मगर, उनके साथियों में से कोई भी नहीं गया.

72 लोगों का हुआ कत्ल

आखिरकार मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन के लश्कर पर हमला बोल दिया. इस जंग में हुसैन समेत 72 लोगों को कत्ल कर दिया गया. इनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शहीद हो गए.

हुसैन को क़त्ल करने के बाद उनके घरों में आग लगा दी गई. जितनी औरतें और बच्चे बचे उन्हें एक ही रस्सी में बांधकर यजीद के दरबार ले जाया गया. यजीद ने सभी को अपना कैदी बनाकर जेल में डलवा दिया.

मुसलमानों का मानना है कि यजीद ने इस्लाम को अपने ढंग से चलाने के लिए लोगों पर जुल्म किए. यजीद ने खलीफा बनने के लिए इस्लाम के आखिरी पैगंबर मोहम्मद के नवासे हुसैन को कत्ल कर दिया. हुसैन की उसी कुर्बानी को याद करते हुए मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से दुख जाहिर करते हैं. शिया मुस्लिम अपना खून बहाकर मातम मनाते हैं, सुन्नी मुस्लिम नमाज-रोज के साथ इबादत करते हैं.

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