दस्तक-विशेषस्तम्भ

छलावे और सत्ता की मशीनरी के बीच दुनिया में लोकतंत्र की यात्रा: लोकतंत्र दिवस 15 सितंबर पर विशेष

डॉ. अजय खेमरिया : पूरी दुनियां में 15 सितंबर को लोकतंत्र दिवस मनाया जाता है। इस आयोजन का मूल उद्देश्य इस बेहतरीन जीवन और सुशासन पद्धति को दुनिया में अंतिम छोर तक स्थापित करने का आह्वान प्रमुख रहता है। लोकतंत्र का आधुनिक स्वरूप आज चुनाव प्रक्रिया और उसके लोकतांत्रिक प्रावधानों के आधार पर निर्धारित होता है। किस देश में, किस शासन व्यवस्था को अंगीकार किया गया है यह उसकी चुनाव प्रक्रिया से ही पता चलता है। मसलन ब्रिटेन, यूएसए, भारत तीनों में लोकतंत्र है, लेकिन बड़ी बुनियादी विभिन्नता के साथ। यूके यानी इंग्लैंड में राजशाही के महीन आवरण में छिपा लोकतंत्र है, जो बंकिघम पैलेस के अपने शाही क्राउन (राजमुकुट) को हर स्थिति में जीवित रखना चाहता है। दुनिया में लोकशाही नाम से दरोगाई करने वाले अमेरिका में अध्यक्ष प्रणाली वाला लोकतंत्र है, जहां जनता एक इलेट्रॉलर के जरिये राष्ट्रपति को चुनती है।

भारत के लोकतंत्र को हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इस अर्थ में तो कह ही सकते हैं कि एक साथ 60 करोड़ वोटर अपने वोटिंग राइट का इस्तेमाल कर सरकार चुनते हैं।वैसे दुनिया में अप्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था ही व्यवहारिक है, लेकिन स्विटरजरलैंड एक ऐसा देश भी है जहां प्रत्यक्ष लोकतंत्र के दर्शन होते हैं वहां कुछ केंटनो में राज्य की नीतियां जनता के मतानुसार निर्धारित की जाती हैं। इसे आप रेफरेंडम कह सकते हैं। यानी जनमत संग्रह। लेकिन यह बड़े राज्यों में संभव नही है। प्रसिद्ध विचारक अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की विश्वविख्यात परिभाषा दी थी। “लोकतंत्र जनता का जनता द्वारा जनता के लिये किया जाने वाला शासन है”। अगर इस परिभाषा के आलोक में आज के वैश्विक लोकतांत्रिक परिदृश्य का ईमानदारी के साथ आकलन किया जाए तो लोकतंत्र के प्रति हमारी अवधारणा हिल सकती है। क्योंकि न केवल भारत बल्कि दुनिया के किसी मुल्क में लोकतंत्र उसकी अंतर्निहित अवधारणा पर काम नहीं कर पा रहा है, अधिकतर देशों में जम्हूरियत का आवरण है और सिर्फ चुनावी उपक्रम से ज्यादा महत्व लोकतांत्रिक व्यवस्था को हासिल नहीं है, जो अमेरिका पूरी दुनिया में अपनी मिसाइलों के मुंह लोकतांत्रिक सरकारें बनाने के नाम पर घुमाता रहता है उस अमेरिका की धरती पर लोकतंत्र है क्या? नहीं। अमेरिका पर बाहरी मूल के लोगों का शासन कोलम्बस के आगमन के साथ से ही कायम है। आज भी मूल अमेरिकन जंगली जीवन जीने को विवश हैं, रेड इंडियन के नाम से। आयरलैंड, स्कॉटलैंड, औऱ बेल्स पर कब्जा जमाकर ब्रिटेन दुनिया में जम्हूरियत का मदरसा चलाता है। अफगानिस्तान मूलतः बौद्ध लोगों की धरती है वामिहान के खंडित मंदिर इसकी गवाही देते पर आज अफगानिस्तान पर मुसलमानों का शासन नहीं है? श्रीलंका तमिलों की मातृभूमि है पर उसके ऊपर भारतीय मूल के सिंहलियों का कब्जा है। रूस में भी लोकतंत्र है जहां 98 फ़ीसदी वोट पाकर पुतिन राष्ट्रपति बनते हैं। इराक में भी कभी सद्दाम हुसैन शत—प्रतिशत वोट पाकर जीतते रहे।बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल, रंगून और एशियन पट्टी से लेकर यूरोप और अमेरिकन प्रायद्वीप के लगभग सभी मुल्कों में लोकतांत्रिक व्यवस्था का दावा किया जाता है।
सवाल यह है कि दुनिया में लोकतंत्र क्या संभव है? क्या यह अपरिहार्य है? इसका जबाब हर मुल्क की परम्पराओं, उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उसकी सामाजिकी, आर्थिकी और सामयिक पर्यावरण पर निर्भर करता है। भारत की स्वतंत्रता के प्रस्ताव का विरोध करते हुए तब के ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत में लोकतंत्र के नाम पर अराजकता की स्थिति निर्मित होगी और शासन व्यवस्था पर धीरे—धीरे अपराधी, गुंडों और संगठित समहू काबिज हो जाएंगे।
चर्चिल की चिंता भारतीय लोगों के गहन अध्ययन पर आधारित भी था, आज 70 साल बाद चर्चिल को हम सिरे से अंग्रेज कहकर खारिज नहीं कर सकते हैं। यह सही है कि भारत ने लोकशाही की एक मिसाल दुनिया में कायम की है। वर्तमान लोकसभा का चुनाव जिस पारदर्शिता औऱ व्यापक जनसहभागिता से हुआ है, वह अद्वितीय महत्व का मामला है। तथापि हम एक आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था से बहुत दूर हैं क्योंकि लोकतंत्र के बीज हमारे मन, मस्तिष्क में रोपित ही नहीं है। हमारे लिये लोकतंत्र एक चुनावी सिस्टम मात्र है। इससे इतर लोकतंत्र में लोक की भूमिका आज भी रेखांकित होने के लिये तरस रही है। सच तो यह है कि जब लोकतंत्र हमारे घरों में ही नहीं है तो देश में कैसे आदर्श रूप में संभव है? जन गण मन से अधिनायक की जय जयकार कराने वाली आत्मस्वीकृत व्यवस्था में हम लोकतंत्र के आदर्श का सपना साकार करने में फंसे हैं, जो मारीचिका के समतुल्य है। जरा सोचिये हमारे यहां लगातार चुनाव होते रहते हैं, लेकिन भारत का संविधान चुनने का मौका हमें मिला? क्या औपनिवेशिक संसद और अदालतें गठित करने से पहले भारतीयों की राय ली गई? आईसीएस का नाम बदलकर आईएएस वाली अफसरशाही को हमारे लोकजीवन पर थोपा नहीं गया है? पुलिस एक्ट से लेकर दण्ड विधान और प्रक्रिया सहिंता किसी के भी निर्माण या लागू करने में जनता की राय ली गई? ऐसे हजारों सवालों का जबाब एक ही है-नहीं।

मजेदार बात यह कि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट में कोई लोकतंत्र नहीं है। सामाजिक न्याय की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के ज़ज अपनी बेंचों पर सामाजिक न्याय की चिंता नहीं करते हैं। दुनिया के न्यायिक इतिहास में सुप्रीम कोर्ट के जज अपने ही केस की सुनवाई खुद करके खुद को बरी करते हों, ऐसा लोकतांत्रिक सिस्टम कहीं और देखने को नहीं मिल सकता है सिवाय भारत के।
भारतीयों के अवचेतन में आधुनिक लोकतंत्र सम्भव नहीं है क्योंकि हम बुनियादी रूप से रूढ़िवादी समाज के हामी है। जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को हमने आत्मस्वीकृत किया है वह असल में एक विशिष्ट आत्मानुशासन की मांग करती है। एक विशिष्ठ कर्तव्यबोध की जमीन पर ही यह साकार हो सकता है, लेकिन हम भारतीयों के मन, मस्तिष्क में राजनीतिक बिरादरी ने सिर्फ अधिकारों का शोर इस हद तक भर दिया है कि हम कर्तव्य और आत्मानुशासन को पहचानने के लिये भी तैयार नहीं हैं। मुफ्तखोरी की राजनीतिक संस्कृति ने भारत में नैतिकता और नागरिक बोध का भी खतरनाक संकट खड़ा कर दिया है। आज पूरे मुल्क में लोकतंत्र मतलब चुनाव जीतने की मशीन बनकर रह गया है।लोककल्याण का संवैधानिक लक्ष्य सत्ता के संघर्ष में पिस चुका है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र जिन लोगों के आलोक में निर्मित होना था वे खुद लोकतंत्र पर ताला लगाकर परिवार के शो रूम खोलकर मजे कर रहे हैं। भारत के सभी राजनीतिक दल घनघोर अलोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से संचालित हैं। जाहिर है जब दलों में ही लोकतंत्र की जगह परिवारवाद है तो भारतीयों के लोकजीवन में लोकतंत्र कहां से आएगा। न्यायपालिका में परिवारवाद, विधायिका में परिवारवाद और कार्यपालिका में भ्रष्टाचार कैसे आदर्श लोकतंत्र को खड़ा कर सकता है। आज लोकतंत्र सच मायनों में सत्ता का खेल रहा गया है। दूर से एक छलावा है जिसके आगोश में पूरी दुनिया का लोक है।

(यह विचार लेखक के स्वतंत्र विचार हैं इनसे प्रकाशक एंव संपादक का सहमत होना आवश्यक नही है।)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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