दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

हर कवि के पास एक बोरा प्रेम

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सिद्धांत मोहन

हिन्दी को अच्छा करने का सबसे तगड़ा उपाय तो यह ही हो सकता है कि पुरस्कार ख़त्म कर दिए जाएं। लेखक बिना पुरस्कार के मर जाएं तो ज्यादा अच्छा। कम से कम इसकी गारंटी तो मिलेगी कि किस लेखक ने पुरस्कार पाने के लिए नहीं लिखा था या किस लेखक की सेटिंग ध्वस्त होकर रह गयी। ऐसे में लेखक को पुरस्कार के साथ पहचानने का वर्गीकरण भी ख़त्म हो जाएगा। इसे लेखक कर सकते हैं। वे पुरस्कार न स्वीकार करें। यह एक दिवास्वप्न है, जिसे साबित होने में ही तमाम मुश्किलें हैं, सच होने में तो हैं ही।

Captureहिन्दी का पाठक अब बदल रहा है या हिन्दी की साहित्यिक लेखनी में भी अब बदलाव आ रहा है…. सिर्फ कह देने भर से हम इन कथनों को सत्यापित नहीं कर सकते। सच्चाई तो यह है कि हिंदी का पाठक दिनोंदिन इतनी बुरी तरह से बेवकूफ बनाया जा रहा है कि उसे वहां हर क्षण एक सजग और गंभीर पाठक होने का बोध होता रहता है। हिन्दी की सबसे बड़ी शक्ति ही सबसे बड़ी समस्या है। इस भाषा में एक्सप्रेस करने के माध्यम सर्वाधिक हैं। यह माध्यम ज्यादा सुलभ है, ज्यादा चश्मदीद है। अब यह भी तो तथ्य ही है कि यह माध्यम आसानी से टाइप किया जा सकने वाला है। गूगल के कुछ प्रयोगों की बदौलत अब हिन्दी टाइपिंग आसान है।’
इस दौर में फेसबुक ज़ाहिर होने का सबसे बड़ा माध्यम है। साहित्य की कोई भी मुहिम, जो अक्सर समाज को संबोधित नहीं होती है, फेसबुक से ही शुरू होती है। देश में बढ़ रही असहिष्णुता की घटनाओं ने जब लेखकों को साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने को प्रेरित किया तो इस प्रेरणा के लिए सबसे बड़ा माध्यम फेसबुक ही बनकर आया। ऐसे में एक चेन रिएक्शन की शुरुआत हुई, जिसमें बहुत सारे लेखक और कलाकार जुड़ते गए। इस तथ्य को सच मानकर चलें कि देश में असहिष्णुता है तो लेखकों और कलाकारों की मुहिम ने सरकार की नाक में दम ज़रूर कर दिया।
इसके साथ सबसे बड़ा प्रश्न यह बनता है कि सोशल मीडिया पर छाई रही इस सारी मुहिम को फैलाने और पकड़ने वाले सभी लोग लेखक ही क्यों हुए? इस मुहिम में आम पाठक क्यों नहीं जुड़ सका? या यह भी प्रश्न है कि साहित्य का पाठक न रहने वाला भी इस पक्ष को सही से क्यों नहीं समझ पाया? पत्रिका या ब्लॉगों पर कोई रचना छपने के बाद बाहुत सारे युवा उर्फ़ अधेड़ रचनाकारों, वरिष्ठ लेखकों और साथी लेखकों के आंकलन का इंतज़ार करते नज़र आना आम बात है। यह इंतज़ार अच्छा है। यह हमें स्वयंभू होने से बचाता है। हमारे भीतर एक बोध है कि हम गलत या खराब भी लिख सकते हैं और उस पर हमें दो बातें सुननी भी पड़ सकती हैं, लेकिन इसके साथ हम एक अव्वल नुकसान को भी जन्म दे रहे हैं। यहां भी हम पाठकों से ज्यादा लेखकों को ही जगह दे रहे हैं, यानी मोटा-मोटी हम पाठकों के बजाय लेखकों के लिए लिख रहे हैं, मुहिम चला रहे हैं। इसका दिनभर घूमने-फिरने और दूसरे ज्यादा ज़रूरी काम करने वाले लोगों से क्या संबन्ध है? अभी तक तो कोई नहीं, साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी निश्चय ही सरकार पर दबाव बनाने का एक बड़ा कदम था, लेकिन लेखकों द्वारा लेखकों के लिए चलाई गयी इस मुहिम में यह साबित होता जा रहा था कि यह लेखक बनाम साहित्य अकादमी की लड़ाई है, बजाय इसके कि यह लेखक बनाम फासिस्ट ताकतों की लड़ाई है। इस बहस में यदि इतिहासकार, वैज्ञानिक और फिल्मकार न उतरते तो हम हिन्दी साहित्यिक, समाजी कभी का इस बहस में से सरकार को गायब कर चुके होते।
कविता एक माध्यम है। इसे परिष्कार दरकार है। कविता ने आन्दोलन खड़े किए हैं। साउथ अफ्रीका का सबसे बड़ा आन्दोलन अमरीका के एक ऐसे म्यूजिक एल्बम के बल पर खड़ा हुआ जिससे खुद अमरीका में ही कोई नहीं जानता था। यह एक ही उदाहरण है। ऐसे कई हैं। अब कविता लिखना एक नित्यक्रिया है। इसे कोई भी कहीं भी कर सकता है। फेसबुक पर खाता खोलने के बाद आपको बस 50 फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने हैं। उसके बाद आपके पास खुद ही आने लगेंगे फिर एक महीने बाद आप हर रोज़ बिला नागा अपनी टाइमलाइन पर बेतहाशा कविताएं पढ़ सकते हैं। यहां हर कोई कवि है। उनके जीवन की हरेक घटना कविता की तरह ही बाहर आती रहती है। वे एक दिन में कविताएं इतनी लिख सकते हैं, जितनी बार आप जम्हाई न लेते होंगे। यह दावा है कि कुछेक महीनों बाद आपकी उंगलियां भी फड़कने लगेंगी।
ऐसी कविताएं रोज़ाना आती हैं। यह एक बार में एक सांस में लिखी गयी कविताएं होती हैं। इन पर किसी आलोचक की नज़र नहीं होती। इन पर खुद लिखने वाला रीझा रहता है। हमारे समय के कुछ नामचीन मंचीय कवि, जिनमें अधिकतर युवा हैं, अभी इसी तरह की ही कविताएं लिख रहे हैं। उन्होंने इसी तरह से कविता में अपनी जगह बनायी है। वे शायद यूं ही लिखते रहेंगे।
साफ शब्दों में यह खराब कविताएं होती हैं। शायद यह कहना सामंती भाव लगे। साहब, क्या अब आप तय करेंगे कि किसे लिखना चाहिए या किसे नहीं? यह कहा जा सकता है लेकिन हम यह तय नहीं करेंगें बल्कि यह कोशिश की जा सकती है कि किसे पढ़ा जाना चाहिए और किसे नहीं। फेसबुक की इन कविताओं को पढ़ने से पहले और पढ़ने के बादए दोनों ही स्थितियों में सोचना चाहिए।
हिन्दी में खेमेबंदी को लेकर एक बड़ी बहस चलती आई है। इस बहस का आप तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक यह साबित न हो जाए कि खेमेबंदी के खिलाफ खड़ा लेखक किसी खेमे का तो नहीं है। हिन्दी में विषय सीमित होते जा रहे हैं। प्रेम बोरियों में भर-भरकर हर कवि के पास पड़ा हुआ है। हिन्दी की प्रेम कविता का अनिवार्य पहलू सेक्स है। यह अच्छा है कि हम ऐसे समाज में हैं जहां सेक्स पर बात हो रही है लेकिन यहीं पर असली बहस शुरू होती है।
सेक्सरूपी प्रेम पर लिखने वाले सभी कवि पुरुष हैं। महिलाएं प्रेमी की सिगरेट या कंधे का तिल ही खोज रही हैं। अव्वल तो यह कि हिन्दी कविता के इतने आगे निकल जाने के बाद भी वे प्रेमी के लौटने इंतज़ार ही कर रही हैं या तो उसे याद ही कर रही हैं। यहां सेक्स केवल पुरुष के पास है और यह एक गहराता हुआ संदेह है कि यहां पसरा आधे से ज्यादा सेक्स सिर्फ कपोल कल्पना है। संदेह यह भी है कि सेक्स को आधार बनाकर लिखने वाले कुछ कवि कोरे कवि ही हैं। वह कभी घटित हुआ ही नहीं, वह झूठ है। वह ऐसा है कि उस दौरान स्त्री क्या सोचती है, उसकी कोई जगह ही नहीं है।
लेखिकाओं में बेहद कम नाम हैं। अधिकतर फेसबुक पर सिमटी कवयित्रियां है। इनमें दिनोंदिन इज़ाफा हो रहा है। वे कुकुरमुत्तों की तरह उगती चली आ रही हैं। संजीदा लेखिकाओं को चाहिए वे पेस्ट कंट्रोलिंग करें। वे अच्छे रचनाकार को एक आम सहमति के साथ सामने लाएं, तो बात बन सकती है।
हिन्दी को अच्छा करने का सबसे तगड़ा उपाय तो यह ही हो सकता है कि पुरस्कार ख़त्म कर दिए जाएं। लेखक बिना पुरस्कार के मर जाएं तो ज्यादा अच्छा। कम से कम इसकी गारंटी तो मिलेगी कि किस लेखक ने पुरस्कार पाने के लिए नहीं लिखा था या किस लेखक की सेटिंग ध्वस्त होकर रह गयी। ऐसे में लेखक को पुरस्कार के साथ पहचानने का वर्गीकरण भी ख़त्म हो जाएगा। इसे लेखक कर सकते हैं। वे पुरस्कार न स्वीकार करें। यह एक दिवास्वप्न है, जिसे साबित होने में ही तमाम मुश्किलें हैं, सच होने में तो हैं ही। आलोचक तुम्हें कविता को साबित करने के औजार को व्यक्तिगत आंच पर तेज़ नहीं करना चाहिए था। इस आलोचक ने अच्छे लेखक को सामने आने ही नहीं दिया। उसने खुद के लौंडों को ही प्रोमोट किया। ऐसे तो यह साबित हो ही जाता है कि आलोचक ही खेमे का सरदार है। आलोचना विकसित भी नहीं हुई और एक प्रकटीकरण के माध्यम में भी नहीं पहुंची। यह एक ही जगह पर रहती रही। इसके आकार और काया में ज़रूर बदलाव हुए। इसके बावजूद हम भाषा से दूर हुए हैं। हम भाषा को मारते हैं। हम संस्कृत, उर्दू और अंग्रेज़ी का ऋण नहीं चुकाते हैं। हम यदि इन भाषाओं का ऋण चुका सकें तो ज़ाहिर है कि हम भाषा की सेवा करेंगे। हम ठहरकर, सोचकर और थोड़ी ज्यादा संजीदगी से लिखेंगे। भाषा की सेवा करना किसी आलोचक की सेवा करने से ज्यादा मुफीद है। भाषा की सेवा करना अच्छी बात है।
हमारे सरोकार और संबन्ध मर रहे हैं। हम समाज से दूर जा रहे हैं। प्रेम थोड़ा कम सामाजिक बनाता है। हमें रचनाओं को राजनीति के पास लेकर आना होगा। उसे बहस बीच खड़ा करना ज्यादा जरूरी है। उसे गांवों के पास ले जाने में और भी भलाई है। गांवों से रास्ते खुलते हैं। विस्थापन पर अब लिखना नहीं हो रहा है उसे होना चाहिए। सेक्स पर, नशे पर, विवाहेत्तर प्रेम संबंधों पर विवाह पूर्व प्रेम संबंधों पर, विवाह के बाद पत्नी से हुए प्रेम पर, सिर्फ पत्नी से हुए प्रेम पर, नित्य क्रियाओं पर, राजनीति से आपकी दूरी के कारणों पर राजनीति से करीबी के कारणों पर, जो अपना संगीत नहीं है उस पर, दूसरी भाषाओं पर, अपने बीमार पड़ जाने या एड्स हो जाने या कैंसर या हार्ट अटैक से मर जाने पर और मरने के बाद के जीवन पर लिखना बाकी है। यानी पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त!

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