जीवनशैलीदस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

बड़ा बेटा

अजीत सिंह

स्वयं के जीवन से जुड़ा मार्मिक संस्मरण

स्तम्भ: बड़ी घबराहट हो रही है, मन बडा बेचैन है, चक्कर आ रहा है, अरे जगदीश जाओ डॉक्टर को बुला लाओ भैया, कहते हुए धनवंती का दांत बैठ गया और वो अर्ध बेहोसी में आ गईं।
जगदीश बंगाली डॉ को लाये दवा दी गयी।
डॉक्टर साहब का मामला है चिंतित होकर चंद्रभान मास्टर साहब ने पूछा।
अरे मास्टर साहब BP लो है। बोलिये जादा चिंता ना करे और सुबह शाम टहले।

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चन्द्रभान सिंह जौनपुर शहर से अपने गांव में अध्यापक बन के वापस आ गए थे। जौनपुर शहर में भी वह अध्यापक ही थे लेकिन गांव का मोह और 6 बच्चो की पढ़ाई लिखाई, खाने पीने का दबाव गांव की जमीन में खेती कर लेने की इच्छा शहर से उनको गांव लेकर आ गई थी।
अचानक गांव की अव्यवस्था, खेती में पर्याप्त उपज का ना होना और बच्चो के उज्ज्वल भविष्य की चिंता, बड़ी बेटी के अलावा बाकी पांच बच्चों की पढ़ाई और उनमें से दो बेटियो की शादी की चिंता ने उनकी पत्नी धनवंती को चिंतित कर दिया था।

क्या बिना मतलब की चिंता करती हो भगवान सब अच्छा करेगा। मास्टर साहब समझाते हुये बोले।
अरे भामा के पापा अनिल अभी पालीटेक्निक कर रहे हैं, रेखा रागिनी की शादी करनी है, अरुण पप्पू भी अभी पढ़ेंगे, कैसे सब होगा मन घबराता है, गेहू चावल भी खरीदना होता है।
सब हो जाएगा भगवान पे भरोसा रखो जिसने पैदा किया है, वो संभालेगा भी, भगवान मुँह देने के पहले भोजन की व्यवस्था कर देते हैं। वैसे भी अब अनिल की पढ़ाई पूरी हो गई है तो उनका खर्च बच जाएगा और खेती मैं अपनी मेहनत से सही कर दूंगा। गाय भैस पाल के बच्चो को दूध दही की कमी नही होने दूंगा, मिल के किया जाएगा कोई परेशानी नही होगी, मास्टर साहब सांतवना और विश्वास देते हुए बोले।
देखो भामा के पापा क्या क्या होता है भगवान जल्दी से अनिल की नौकरी लगा दे तो कुछ मदद मिले।
उसके बाद मास्टर साहब ने अपने आप को खेती, बच्चों की पढ़ाई और स्कूल में लगा दिया। सुबह जल्दी उठना चारा काटना, गाय—भैसों को खिलाना, खेतों में घास बीनना और काम करना फिर तैयार होकर घर के सामने स्कूल जाना, फिर चार बजे तक वापस आना, गाय, भैंस चराना चारा काटना देर रात तक काम करना उनकी दिनचर्या हो गई, उनकी मेहनत से खेती संभल गई, धनवंती का गाय भैस दूह कर दूध निकालना, उपली पाथना और खेती में क्या क्या होना है घर चलाने की जिम्मेदारी लेना उनको सहारा दे रहा था, लेकिन इसके बाद भी इतना पैसा नही था कि सब बच्चो की को पढ़ाई लिखाई के बाद कुछ बच सके, सयुंक्त परिवार में भाई और भतीजो का भी कुछ ना कुछ खर्चा था ही ऊपर से परिवार अलग अलग होने की राह पे भी था।

कुल मिला के गाड़ी चल रही थी बस लड़कियों के विवाह का दबाव और आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा धनवंती को ज्यादा परेशान कर रही थी, जबकि चन्द्र भान मास्टर अपनी मेहनत में रमे अपने कर्तव्य पथ पर इमानदारी के साथ डटे हुए थे और वह बार बार समझाते की भगवान सब अच्छा करेगा ऊपर वाले पर भरोसा रखो।

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इन्ही सब के बीच उनका दूसरे नंबर का बेटा अनिल अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था, मॉ बाप को परेशान देख कुछ बोल नही पाता, संकोची स्वभाव और अंतरमुखी होने के कारण वह उतना साहस ना दे पाते जितना सोचते थे।
उन्होंने प्राइवेट नौकरी करनी शुरू की जितना भी मिलता उसमे खाते कम बचाते ज्यादा। मॉ बाप को भरोसा देने लगे कि जब जरूरत होगी तब मैं साथ खडा हूं।
बेटे का सहयोग मिलने से मास्टर साहब योग्य पुत्रवत प्रेम से और धनवंती विश्वास से भर उठी।
अनिल ना केवल आर्थिक रुप से परिवार की मदद करते बल्कि ब्यवहार भी उनका बड़ा उदार था, भाइयों और बहनों में ना कभी बड़े होने का अधिकार जमाया और ना ही कभी किसी का दिल दुखाया, उपर से कभी—कभी छोटे भाई ही धृष्टता कर देते थे लेकिन इस बात का कभी बुरा नही माना और ना ही कभी शिकायत की।
बहनों की शादी में अधिक से अधिक देने का प्रयास किया, अपनी बचत के साथ—साथ लोगो से उधार भी लिया, मास्टर साहब पूछते अनिल दबाव में तो नही हो बेटा ?

नही पापा है मैंने ओवर टाइम किया है। अलग से कुछ छोटी मशीने चलवाई हैं, पैसा है मेरे पास आप चिंता ना करिये, अनिल अम्मा और पापा चिंतित ना हो इसलिए कुछ सही और कुछ झूठ बोल दिया करते थे।
बहनों की शादी ठीक—ठाक हो गई सब सुखी परिवारों में गई मास्टर साहब अपने पुत्र साथ ही सहयोगी की प्रेम और कर्तव्य निर्वहन से गदगद बस इतना कहते भगवान सुखी रखे बेटे का धर्म अनिल ने निभाया!
छोटा भाई अरुण बहुधंधी प्रकार का निकला, इलाहाबाद गया तो मौज मस्ती किये जब चाहे घर से भी पैसा लिए अनिल से भी लिए।
फिर नौकरी ना करके कई व्यवसाय किये सब में बड़े भाई से पैसा लेते रहे। मकान में जो अधूरा कार्य था उसको अनिल ने पूरा कराया।
स्वयं कानपुर में नौकरी करते रहे अपना मकान नही बनवाया, अरुण बाद में ईंट के व्यवसाय में जम गए अब अच्छा खासा कमाने लगे लेकिन गांव में उनके बच्चे पढ नही पाएंगे ये सोच के अनिल चार पांच साल के उनके दोनों बच्चों हर्ष और उत्कर्ष को अपने साथ कानपुर ले आये।
किराये के दो कमरों में अपने बच्चो के साथ उतने ही या कहिये अपने बच्चो से ज्यादा प्रेम से पाला पोसा और पढ़ाया लिखाया। हर्ष MBBS डॉ बना उनकी बेटी नेहा भी MBBS डॉ बनी। उत्कर्ष अपने पिता की तरह खुरापाती था लेकिन उसकी हर गतिविधि पे नजर रखते हुए उसको संभाल लिया बिगडने नहीं दिया वो अब लॉ कर रहा है।
उसके साथ ही उसी छोटी सी जगह में अपनी बहन रागिनी के बेटे सूरज को भी लाये इंटर कराया, उसके बाद कोचिंग के लिए अलग कमरा लिया तो कुछ दिन बाद वापस ले आये की कहीं बिगड ना जाये सूरज आज एक विदेशी कंपनी में इंजीनियर हैं दबा के पैसा कमा रहा है।
अनिल भी खुश हैं मकान बनवा लिया बेटी—बेटे की शादी कर दी अपनी पत्नी चंदा जिसे प्यार से हरिया बोलते हैं उनके साथ दिन भर गुटुर—गुटुर करते आनंदमय समय व्यतीत कर रहे है।

चंद्रभान मास्टर साहब अब इस दुनिया में नही है जब तक रहे यही कहते रहे “अनिल ने बड़े बेटे का धर्म निभाया है— “भगवान उसको सुखी रखे।”
आज भी जब परिवार में कुछ ऊँच नीच होता है तो ऐसा लगता है जैसे मास्टर साहब अपने दोनों बेटों अरुण और पप्पू से कहते हो— “नही अरुण, नही पप्पु”
“वो बड़ा बेटा है” तुम लोगो का धर्म पिता…

(लेखक लखनऊ में कार्यरत राजपत्रित अधिकारी है।)

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