संपादकीय

आत्मचिंतन का अवसर

30_12_2016-29hriday_narain_dixitराष्ट्र निर्माण दीर्घकालिक साधना है, लेकिन वर्तमान राजनीति में दीर्घकाल नहीं होता। संसद भारत भाग्य विधाता है, सवा अरब भारतीय जन-गण-मन की सर्वोच्च प्रतिनिधि पंचायत है, लेकिन अल्पकालिक लक्ष्यों वाली राजनीति ने संसद की गरिमा गिराई है। 2016 संसदीय निराशा के लिए जाना जाएगा। लोकसभा का बीता सत्र 16 नवंबर से 16 दिसंबर 2016 तक चला था। कहने को कुल 21 बैठकें हुईं, लेकिन हुल्लड़ और हंगामे के कारण सदन की कार्यवाही 92 घंटे बाधित रही। जुलाई-अगस्त में चले सत्र में 20 बैठकें हुईं, लेकिन कार्यवाही साढ़े छह घंटे से ज्यादा हंगामे का शिकार हुई। बजट सत्र भी निरापद नहीं रहा। संसद के दोनों सदनों ने निराश किया। बेशक जीएसटी पर संतोषजनक चर्चा हुई, लेकिन सामान्यतया मूलभूत मुद्दों की जगह व्यर्थ के सवालों को तूल दिया गया। नेशनल हेराल्ड का मसला न्यायालय के आदेश का भाग था। कांग्रेस ने इसे सरकारी षड्यंत्र बताया। विपक्ष ने राज्यसभा के बहुमत का दुरुपयोग किया। सदन की कार्यवाही को मनमाने ढंग से संचालित करने की कोशिशें हुईं। राष्ट्रजीवन से जुड़े मुद्दों की उपेक्षा हुई। सदन बाधित रहे। दोनों सदनों के पीठासीन सदन चलाने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करते देखे गए। उन्होंने तमाम बैठकें कीं, लेकिन संसद राष्ट्र को धीरज और आश्वासन देने में असफल रही।
संसद में पक्ष और विपक्ष, दोनों की महत्ता है। जनादेश ही इस या उस दल या समूह को सत्तापक्ष या विपक्ष बनाता है। विपक्ष ने इस तथ्य की उपेक्षा की। उसने जनादेश द्वारा दी गई विपक्षी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किया। संविधान आहत हुआ। सत्तापक्ष राजग ने संविधान निर्माण व प्रवर्तन पर संसद का विशेष सत्र प्रस्तावित किया। विपक्ष ने इस विशेष अवसर को भी ‘काल्पनिक असहिष्णुता’ के लिए इस्तेमाल किया। असहिष्णु विपक्ष ने सत्तापक्ष के विरुद्ध असहिष्णुता के आरोप लगाए। विपक्ष ने अडं़गेबाजी और विषयांतर के नए मुद्दे बनाए। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज व राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से त्यागपत्र मांगने के मुद्दे पर भी संसदीय कार्यवाही में बाधा डाली गई। फर्जी आरोपों की आंड़ में संसद को बाधित करने से गलत परंपराओं की नींव पड़ी है। विमुद्रीकरण बड़ा आर्थिक फैसला है, लेकिन संसद के दोनों सदनों में विमुद्रीकरण पर सार्थक चर्चा नहीं हुई। सत्तापक्ष ने बार-बार दोहराया कि वह बहस को तैयार है, लेकिन विपक्ष के अपने दुराग्रह थे।
संसद विधि निर्मात्री निकाय है। इसे संविधान संशोधन के भी अधिकार हैं। हुल्लड़ और हंगामे के बीच विधि निर्माण का काम असंभव है। विधि का प्रभाव सारे देश पर पड़ता है। इसलिए विधेयकों पर गंभीर विमर्श की परंपरा रही है। साल 2016 में जीएसटी छोड़ अन्य विधेयकों पर गंभीर और सारवान चर्चा नहीं हुई। काले धन की वापसी से जुड़ा संशोधन विधेयक बिना बहस ही पारित हुआ। इस साल किसी तरह केवल 37 विधेयक ही पारित हुए। संसदीय कामकाज का सुंदर अवसर है प्रश्नकाल। 2016 की संसदीय कार्यवाही में प्रश्नकाल भी बहुधा बाधा का शिकार हुआ। संविधान निर्माताओं ने सत्तापक्ष को संसद के सामने जवाबदेह बनाया था। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि हमने सरकार की स्थिरता की तुलना में जवाबदेही को उच्च स्थान दिया है। सरकारी जवाबदेही को सुनिश्चित कराने के लिए ही संसदीय कार्यवाही में प्रश्नकाल को सर्वोपरि महत्ता मिली। विपक्ष ने इसका सदुपयोग नहीं किया। उसने हंगामे को ही वरीयता दी। विपक्ष सरकार को जवाबदेह बनाने की संसदीय जिम्मेदारी में बुरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ है। 2016 की संसदीय कार्यवाही का सबसे मूलभूत प्रश्न यही है कि जो संसद प्रश्नकाल भी नहीं चला पाई उससे अन्य गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर निर्णायक कर्तव्य निर्वहन की आशा क्यों है?
सदन में लोक महत्व के विषयों पर चर्चा के अनेक अवसर व नियम हैं। शून्यकाल ऐसा ही है। हंगामा कभी संसदीय नहीं होता, लेकिन 2016 में हंगामा भी संसदीय कार्यवाही का मुख्य भाग बना है। भारतीय संसद ने अपनी परंपरा में शून्यकाल का विकास किया है। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल में यूरोपीय दौरे में थे। कुछेक सांसदों ने पूछा कि मि. पीएम आपके यहां शून्यकाल क्या है? इसमें बहुत शोरगुल होता है। राव ने हंसते-हंसाते उत्तर दिया कि इसे संसदीय परिपाटी में भारत का योगदान समझना चाहिए। हंगामा संसदीय परंपरा में भारत की खोज है? सदन में असहमति व्यक्त करने के अनेक उपाय हैं। कार्यस्थगन, औचित्य प्रश्न ध्यानाकर्षण आदि के माध्यम से जनहित के मुद्दे उठाए जाते रहे हैं। असहमति भी रहे तो मुद्दा विशेष को लेकर सदन से बहिर्गमन अंतिम उपाय है, लेकिन 2016 की कार्यवाही ने हंगामा और शोरगुल को महत्वपूर्ण संसदीय हथियार बनाया है। संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच समझकर संसदीय जनतंत्र अपनाया था। भारत का लोकजीवन स्वभाव से ही जनतंत्री और संसदीय रहा है। यहां सभ्य होने की मुख्य योग्यता ही सभा में बोलने लायक होना था। अथर्ववेद के अनुसार जो सभा के योग्य है वही सभेय है और वही सभ्य। सांसद, विधायक होने के लिए तमाम परिश्रम, जोड़, जुगत व प्रयास किए जाते हैं। आमजन को प्रसन्न करना होता है। सांसद, विधायक जनसमस्याएं उठाने और राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करने, सहमति या असहमति व्यक्त करने के लिए ही चुने जाते हैं। उन्हें इसीलिए विशेषाधिकार मिले हैं। विशेषाधिकार जिम्मेदारी बढ़ाते हैं। ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस की समिति ने 1951 में टिप्पणी की थी कि संसद सदस्य होने के कारण सदस्यों पर अन्य नागरिकों की तुलना में समाज के प्रति दायित्व और भी बढ़ जाते हैं, लेकिन 2016 के संसदीय परिदृश्य ने निराश किया है। 2016 में विधानमंडलों की कार्यवाही ने और भी निराश किया है। उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है। विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो गया है। नियमावली की अपेक्षानुसार पांच वर्ष में 450 दिन बैठक होनी चाहिए थी, लेकिन पूरे कार्यकाल में कुल 135 बैठकें ही हुई हैं। शोर, हंगामा, स्थगन घटा दें तो परिणाम घोर निराशाजनक है।
2016 विदा हो रहा है, 2017 परिवर्तन का साल होगा। लेकिन 2016 की भूलें, गलतियां 2017 में भी बनी रह सकती हैं। काल अखंड प्रवाह है। 2016 का जन्म 2015 के गर्भ से हुआ था, 2017 का जन्म 2016 से हो रहा है। हम भारत के लोग इतिहास से सबक न लेने के लिए पहले से ही बदनाम हैं। संसद की शक्ति का क्षीण होना अशुभ है। दलतंत्र को आत्मचिंतन करना होगा। 2017 से उम्मीदें बहुत हैं, लेकिन आशंकाएं भी कम नहीं। अब आत्मविश्लेषण का कोई विकल्प नहीं है।

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