दस्तक-विशेष

प्रतीकात्मक गणपति के व्यावहारिक अर्थ

 

आध्यात्म : स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती ‘बापू’

ऊँ वक्रतुंड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभा
निर्विघ्नं कुरू मे देवं सर्व कार्येषु सर्वदा।
adhyatmहमारे देश-धर्म में सबसे पहले महाराज गणपति की वंदना की जाती है और माना जाता है कि गणपति संसार के समस्त कार्यों को निर्विघ्न रूप से पूर्ण कराने की क्षमता रखते हैं। अभी कुछ दिन पूर्व हम लखनऊ प्रवास में थे और उन दिनों गणेश पर चर्चा हुई। आजकल गणेश की विशालकाय मूर्तियां बनाकर गणपति स्थापना की जाती है और फिर उनका विसर्जन कार्यक्रम बहुत ही ख्याति पा रहा है। अब से पहले यह कार्यक्रम केवल महाराष्ट्र में ही मनाया जाता था। यह कार्यक्रम बहुत ही पुरानी महाराष्ट्रियन परम्परा है, जिसे स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान बालगंगाधर तिलक ने गहराई से समझा और इसे सामाजिक चेतना जगाने के रूप में प्रयोग किया। हर घर में होने वाली इस गणपति पूजा परम्परा को उन्होंने सार्वजनिक रूप से विशाल उत्सव में बदल दिया। धीरे-धीरे यह उत्सव इतना लोकप्रिय हुआ कि पूरे महाराष्ट्र की राजनैतिक और सामाजिक चेतना का प्रतीक बन गया। खासतौर से मुम्बई में यह उत्सव सभी उत्सवों का सिरमौर बन गया। यहां पर हर वर्ष हजारों की संख्या में विशालकाय से लेकर सूक्ष्म तक गणपति मूर्तियों की स्थापना की जाती है और फिर उन्हें समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है। हर वर्ष हजारों टन कूड़ा-कचरा समुद्र की तलहटी में पहुंचा दिया जाता है।

इसकी देखा-देखी पूरे देश में यह उत्सव अपना स्थान बनाने लगा और उत्तर भारत में आज गणपति स्थापना और विसर्जन होने लगा। लेकिन यहां पर यह एक समस्या के रूप में सामने आया है क्योंकि यहां पर समुद्र न होने से इन विशाल मूर्तियों को नदियों में विसर्जित किया जाता है। हमारे देश की नदियां तो पहले से ही भारी प्रदूषण के चलते मरणासन्न हो रही हैं, ऊपर से अब गणपति के विसर्जन की इस नई बनती परम्परा ने उन्हें और भी मारने का ही काम किया है। धर्म आदमी का व्यक्तिगत विषय भी है और सार्वजनिक भी। दुनिया के लगभग सभी प्रचलित धर्मों की मूल भावना में प्रकृति की साज-संवार करने का वर्णन मिलता है। कहीं भी प्रकृति के विरोध में कार्य करने का प्रावधान नहीं है। लेकिन हम जाने-अनजाने में अपनी ही परम्पराओं से प्रकृति को भारी नुकसान पहुंचाते हैं, जो कि धर्म के विरुद्ध है। जबकि हमारे ऋषियों ने धर्म की स्थापना में स्थापित परम्पराओं में प्रकृति के संवर्धन का सफल प्रयास किया था। हमें यह देखना होगा कि नदी ही नहीं समूची प्रकृति को कैसे सुन्दर और स्वच्छ बनाया जा सके!अब हम बात करते हैं हमारे धार्मिक आस्था के प्रतीक गणपति की, जिनकी पूजा से सब काम बनते हैं और घर-परिवार में, समाज में सुख-शान्ति का वातावरण निर्मित होता है। वास्तव में गणपति एक प्रतीकात्मक अवधारणा है जिसकी व्याख्या की आवश्यकता होती है। हमारे धर्म में जितनी भी परम्पराएं मौजूद हैं, वे सब की सब प्रतीकात्मक हैं। यदि इनके प्रतीक अर्थों को समझकर व्यवहार किया जाए, आचरण किया जाए तो ये धरती स्वर्ग बन सकती हैं।

गणपति के लिए विशालकाय मूर्तियों की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि गणपति का उत्स माँ पार्वती के शरीर से हुआ है। यूं तो हर बच्चे का जन्म मां के शरीर से ही होता है लेकिन गणपति के बारे में अलग ही कथा है। मां पार्वती ने अपनी सुरक्षा हेतु मिट्टी का एक बच्चा बनाकर, उसमें प्राण संचरित करके उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए तैनात कर दिया। इतने में भगवान शंकर मां पार्वती से मिलने के लिए वहां आ पहुंचे, तो गणपति जिन्हें मां ने अपनी सुरक्षा में लगाया था उन्होंने भगवान शंकर का मार्ग रोक लिया। क्रोधित होकर भगवान शंकर ने उनका सिर काट दिया। मां ने जब अपने बच्चे की ऐसी हालत देखी तो क्रोध से आग-बबूला हो गईं। तब भगवान शंकर ने अपने गणों द्वारा किसी जानवर का सिर मंगाया और गण हाथी के बच्चे का सिर ले आए, जिसे गणपति के शरीर में जोड़कर भगवान शंकर ने उन्हें पुन: जीवित किया। वह गणपति जिसमें सर्वशक्तिमान भगवान शंकर ने स्वयं प्राण प्रतिष्ठा की थी। भगवान समर्थ हैं और विश्व के नियंता हैं, इसलिए वह ऐसा कर सके और इसी कारण उन्होंने विश्व को यह संदेश दिया कि गणपति के प्रतीक अर्थों को समझकर आचरण करने से मानव समाज में फैली सभी बुराइयों का अंत हो सकेगा।गणपति की मूर्ति को ध्यान से देखो, आप देखते तो हमेशा ही हैं लेकिन उसके शारीरिक अंगों की बनावट और उनके अर्थों को समझने का कभी प्रयास नहीं करते। तुम लोग अपने को भी शीशे में देखते हो और स्वयं को सुन्दर बनाने के हर संभव प्रयास करते हो, लेकिन उस रूप-रंग पर मिटने से पहले उसके गुणों को भी कभी देखा करो। गणपति का शरीर कहीं से भी सुन्दर नहीं है लेकिन गुणों के कारण ही सर्वप्रथम उनकी पूजा होती है। आदमी का शरीर कैसा भी हो उसके अन्दर गुण अच्छे होने चाहिए।
गणपति की छोटी-छोटी आँखें हैं, जिसका अर्थ कि वह सबके लिए समान दृष्टि रखते हैं। यदि हम लोग अपने चारों ओर फैले चराचर विश्व के प्रति सम दृष्टि पैदा कर लें तो हम गणपति के समान हो जायेंगे। उनकी दृष्टि में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, सब समान हैं। वह बुराइयों को नहीं देखते, केवल अच्छाइयों को ही देखते हैं। उनके लिए संसार में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। ज्ञानी के लिए यह समस्त संसार एक समान होता है।
अब देखिये दूसरा प्रतीक गणपति की नाक बहुत ही बड़ी है, जिससे वह समाज में प्रतिष्ठा और इज्जत पाते हैं। जिसकी जितनी ऊंची और बड़ी नाक वह उतना ही श्रेष्ठ व्यक्ति। समाज में कहते भी हैं कि वह तो बड़ी नाक वाला है अर्थात बड़ी इज्जत सम्मान वाला आदमी है। जिसकी इज्जत चली जाती है, उसे समाज में नकटा कहते हैं और कहते हैं कि उसकी तो नाक ही कट गई, या फिर इनकी तो नाक ही नहीं है, यानि कि नाक न होने वाले व्यक्ति की इज्जत कुछ नहीं होती है। इस दृष्टि में गणपति की बड़ी इज्जत है, बड़ा सम्मान है। अगला प्रतीक है कान, कान जो कि इतने विशाल हैं जिन्हें सूप भी कहा जा सकता है। हमारे घरों में जो सूप होता है उससे अनाज साफ करते हैं। सूप की खासियत है कि वह अच्छी चीजों को ग्रहण करता है और खराब चीजों को बाहर फेंक देता है। गणपति की यही खूबी है कि वह संसार की अच्छाइयों को ग्रहण करते हैं और उनके विस्तार का प्रयास करते हैं। जीवन में हमारे लिए यह एक बड़ा सबक है कि हम संसार में फैली बुराइयों को न देखकर उसकी अच्छाइयों का संकलन करें, उन्हें स्वीकार करें और उन्हें ही बढ़ाने का प्रयास करें, तो निश्चित ही संसार में अच्छाइयों का राज होगा। हर बुरी वस्तु को सूप की भांति छांटकर बाहर फेंक दो।
अगला है गणपति का पेट, जो कि बहुत ही बड़ा है। बड़े पेट का अर्थ है अधिक सहनशक्ति। जो लोग एक-दूसरे की बातें सुनकर अपने ही अन्दर समां लेते हैं और इधर-उधर नहीं कहते हैं, उन्हें बड़े पेट वाला कहा जाता है। संसार में आधे से अधिक झगड़े इसी बात पर होते हैं, जबकि लोग इधर की बातें सुनकर उधर बोलते हैं और वह लोग आपस में ही भिड़ जाते हैं। हम साधु हैं, सब लोग हमारे पास आते हैं अपना-अपना दुख-सुख हमें सुनाते हैं। हमारा दायित्व है कि उन्हें अपने पास तक ही सीमित रखें। जिसके बारे में सामने वाला कह रहा है, उससे तो उस बात का जिक्र ही नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा करते ही उन दोनों में वैमनस्य पैदा होगा और झगड़ा हो जायेगा। फिर कोई हमें अपना दर्द नहीं सुनायेगा। इसलिए हमें अपना पेट बड़ा रखना पड़ता है। इस तरह के बड़े पेट वाले लोग समाज के लिए शुभ होते हैं, ऐसा बनने का प्रयास करना चाहिए। अब देखिए गणपति के हाथ में लड्डू है, लड्डू हमारे यहां प्रसाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। प्रसाद वह जो बांटकर खाया जाता है। एक ही लड़डू में से कई लोगों को प्रसाद दिया जा सकता है और सब उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करते हैं। यानि कि बांटकर खाओ। बांटकर खाने से आपसी सौहार्द बढ़ता है और समाज में एकरसता पैदा होती है। जिसके पास जो भी है उसे बांटकर ही खाना चाहिए। जिसके पास ज्ञान है, उसे ज्ञान बांटना चाहिए। निरन्तर बांटने से ज्ञान भी बढ़ता है।अब आते हैं गणपति के दांत जो कि बाहर निकले हुए हैं। एक दांत दिखाने के होते हैं और दूसरे खाने के लिए। जिनसे खाया जाता है, वह दिखाई नहीं देते हैं। लेकिन जिनसे खाया नहीं जाता है, वह दिखाने के लिए बाहर निकले रहते हैं। इसका अर्थ है कि अपने-अपने घरों में ज्यादा दिखावा नहीं करना चाहिए। जो गुण हैं उन्हें छुपाकर रखना चाहिए और उनसे समाज का भला चुपचाप करना चाहिए। आजकल आदमी दिखावे में ही मरा जा रहा है।अब आता है चूहा, जिस पर गणपति सवार हैं। हमने जो ऊपर बातें कहीं हैं, वह सारे गुण जब मनुष्य में विद्यमान होते हैं तो अपने चूहा रूपी मन पर सवारी कर सकता है। जिसकी नाक बड़ी हो, जिसका पेट बड़ा हो सहनशक्ति वाला हो, जिसके कान सूप के जैसे हों, जो सब कुछ बांटकर खाता हो ऐसा व्यक्ति ही अपने मन रूपी चूहे पर सवारी कर सकता है। उसे वश में करके रख सकता है। मन बड़ा चंचल है चूहे की भांति। कभी एक स्थान पर नहीं ठहरता है, इसे वश में करने के लिए मनुष्य में गणपति के जैसी शक्तियां होनी चाहिए।
आज क्या हो रहा है? चारों ओर बड़े मंदिर बन रहे हैं और गुणात्मक रूप से मनुष्य हीनतर होता जा रहा है।
मानवता को निरन्तर आघात लगा रहा है और पूजा करने के लिए मंदिरों में जा रहा है। बड़ी मूिर्तयां बनाकर नदियों में फेंक रहा है और उन्हें गंदा कर रहा है। अरे भाई, यह हमारे प्रतीक हैं। इन्हें समझकर व्यवहार और आचरण करोगे तो सुखी रहोगे और समाज को भी सुख-शान्ति दे सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं कि भगवान को भगवान ही रहने दो, उसे मजाक मत बनाओ। परमात्मा सबके अन्दर है, तो सबका सम्मान करो। नदी भी परमात्मा का ही रूप है। उसे मुक्त होकर बहने दो। न उसे बांधों और न ही उसे गंदा करो। एक छोटा सा भगवान अपने अन्दर बसा लो फिर तुम्हें किसी बड़ी मूर्ति की आवश्यकता नहीं होगी।

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