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स्कूल में अभिभावकों का दखल जरूरी, तभी रुकेगा बच्चों का उत्पीड़न!

दिल्ली के एक नामी स्कूल में नौवीं कक्षा की छात्रा के द्वारा की गई आत्महत्या के बाद कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि इस तरह की घटनाओं को आखिर किस तरह से रोका जा सकता है. अभिभावक और स्कूल प्रशासन बच्चों की सुरक्षा और उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए क्या कर सकते हैं?

मशहूर वकील और बच्चों के लिए काफी काम कर चुके अशोक अग्रवाल मानते हैं कि स्कूलों में बच्चों के किसी भी तरह के उत्पीड़न को रोकने के लिए शैक्षिक और कानूनी दोनों प्रावधान है. इसके अलावा नेशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स के तहत (एनसीपीसीआर) स्कूलों के लिए सख्त गाइडलाइंस है जिसमें किसी भी बच्चे के साथ मारपीट से लेकर आपराधिक घटनाओं और सेक्सुअल हैरेसमेंट जैसी शिकायतों से निपटने के प्रावधान हैं.

बच्चों की काउंसिलिंग करके भी समस्या को काफी हद तक काम किया जा सकता है. लेकिन समस्या यह है कि बड़े-बड़े स्कूलों की बड़ी-बड़ी दीवारों के भीतर अक्सर स्कूल प्रशासन और अभिभावक बच्चों के साथ होने वाले शारीरिक या मानसिक शोषण पर चुप रहना ज्यादा पसंद करते हैं.

अशोक अग्रवाल कहते हैं कि इसकी सबसे बड़ी वजह अभिभावकों का स्कूल प्रशासन में दखल ना के बराबर होना है. अगर स्कूलों की मैनेजमेंट कमेटी में 50 फ़ीसदी अभिभावकों की सलाह और हिस्सेदारी हो तो इस तरह की घटनाओं को बेहद कम किया जा सकता है.

अभिभावकों का दखल जरूरी

अभिभावकों की हिस्सेदारी का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि ना सिर्फ वह स्कूल प्रशासन के गैरजरूरी आदेशों पर लगाम लगाने के लिए काम कर सकते हैं, और बच्चों की समस्याओं के हल स्कूल प्रशासन के माध्यम से खोज सकते हैं जिनको अक्सर जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया जाता है.

स्कूल भी सिर्फ अभिभावकों को पेरेंट्स टीचर मीटिंग में बुलाकर अपने फर्ज को पूरा हुआ समझ लेते हैं. और अगर स्कूल की मैनेजमेंट कमेटी नहीं सुनती है तो पुलिस कोर्ट और सरकार के पास अभिभावक अपनी समस्याओं को लिख सकते हैं या सीधे संपर्क कर सकते हैं.

लेकिन कई बार जानकारी के अभाव में और कई बार हिचक के चलते अक्सर अभिभावक अपने बच्चों से जुड़ी समस्याओं को बाहर बता ही नहीं पाते. यानी अभिभावकों का दखल जब तक स्कूलों के भीतर नहीं बढ़ेगा, जब तक वह स्कूलों पर दबाव नहीं डालेंगे तब तक ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकना मुश्किल होगा.

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