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अगर उपचुनाव जीते तो परवान चढ़ेगी सपा-बसपा की दोस्ती

अब चाहे राजनीतिक मजबूरी हो या फिर अस्तित्व बचाने की लड़ाई, एक-दूसरे से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले बसपा-सपा साथ आ गए हैं। भाजपा विरोध के नाम पर बसपा ने गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा उम्मीदवारों को समर्थन देने का एलान कर दिया है। हालांकि इसे 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पक्के तौर पर महागठबंधन का आगाज नहीं माना जा सकता।अगर उपचुनाव जीते तो परवान चढ़ेगी सपा-बसपा की दोस्ती

बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी स्पष्ट कहा है कि यह गठबंधन नहीं है। बावजूद इसके, इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इस समर्थन के बहाने भविष्य में विपक्षी एका का बीजारोपण हो गया है। हालांकि इसका अंकुरित होकर बड़े वृक्ष में तब्दील होना परिस्थितियों पर निर्भर है। यह समर्थन एक तरह से अपने-अपने वोटरों को परखने का जरिया भी होगा कि वे इस गठबंधन को स्वीकार करते भी हैं कि नहीं। इसका परिणाम ही तय करेगा कि दोस्ती परवान चढ़ेगी या यहीं पर विराम लग जाएगा।

दरअसल, सपा और बसपा की अलग-अलग कार्यसंस्कृति, अपनी-अपनी प्राथमिकताएं हैं। दोनों के अपने-अपने एजेंडे और वोटों के गणित के समीकरण हैं। दोनों के कार्यकताओं के बीच जमीनी स्तर पर सामंजस्य एवं समन्वय की पेचीदगी जैसे कई सवाल ऐसे हैं जो भाजपा के खिलाफ मोर्चाबंदी के इस बीजारोपण के बड़े वृक्ष के रूप में तब्दील होने की राह में खड़े हैं। इनका जवाब तलाशे बगैर सपा या बसपा के लिए महागठबंधन की संभावनाओं को साकार करना असंभव नहीं तो आसान भी नजर नहीं आता। पूरी तस्वीर तो लोकसभा के इन दो उप-चुनाव के नतीजों के बाद ही साफ हो सकेगी।

बसपा अगर अपने वोट ट्रांसफर कराने में सफल रहती है तो यह संदेश साफ हो जाएगा कि मायावती का अपने समर्थक वोटर के बीच पहले जैसा ही जादू बरकरार है। वह उनका इशारा समझता है। इससे सपा और कांग्रेस पर मायावती का दबाव बढ़ेगा। राजनीतिक तौर पर यह संदेश व समीकरण भी स्पष्ट हो जाएगा कि पिछड़ों और दलितों को जोड़कर यूपी में भाजपा की मुश्किलें बढ़ाई जा सकती हैं।

इसलिए स्थानीय स्तर पर घोषणा
समर्थन की घोषणा स्थानीय स्तर पर और भाजपा को हराने के तर्क के साथ की गई है ताकि आगे का रास्ता खुला रहे। एलान के कुछ ही देर बाद ही मायावती ने जिस तरह राज्यसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस के सामने बसपा को समर्थन की शर्त रखी, समर्थन को गठबंधन न मानने को आगाह किया, उसे देखते हुए उनकी मजबूरी समझ में आ जाती है।

मायावती ने दोनों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि गठबंधन उनकी शर्त पर होगा। बात अगर न बनी तो मायावती किसी वक्त यह कह सकती हैं कि उनके लोगों ने तो भाजपा को हराने के लिए सपा का समर्थन किया था। दोनों में कोई रिश्ता नहीं है ताकि उनकी साख कायम रहे।

संदेश देने की कोशिश… तल्खी पहले जैसी नहीं

बसपा की तरफ से यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि उनके और सपा के बीच अब पहले जैसी तल्खी नहीं है। मायावती के दिल और दिमाग में अखिलेश को लेकर उस तरह की शत्रुता का भाव नहीं है जैसा कि गेस्ट हाउस कांड को लेकर मुलायम को लेकर हुआ करता था। मायाराज के स्मारकों मे दफ्तर खुलवाने, उनके घर के सामने पुल बनवाने और आंबेडकर उद्यान का नाम जनेश्वर मिश्र पार्क रखने को लेकर भी तल्खी रही है, लेकिन दोनों ने वक्त और समीकरणों से बहुत कुछ सीखा है। समीकरण मायावती के अनुकूल बैठे तो वे अखिलेश के साथ खड़ी हो सकती हैं।
दोनों का विधानसभा चुनाव के नतीजों की पूर्व संध्या पर भी एक-दूसरे को लेकर नरम टिप्पणियों व गठबंधन की संभावनाओं को स्वीकार करना अकारण नहीं था। इसीलिए त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर के राज्यों के नतीजों में भाजपा को मिली अच्छी सफलता के अगले दिन ही बसपा ने उप चुनाव के बहाने सपा के समर्थन का एलान कर दिया। बसपा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि विपक्ष को अगर भाजपा को रोकना है तो उनकी सुप्रीमो मायावती के मन के मुताबिक आगे बढ़ना होगा।बसपा ने पहली बार गठबंधन सपा से ही किया था
वर्ष 1993-94 में बसपा ने पहली बार किसी राजनीतिक दल से गठबंधन किया था तो वह सपा ही थी। जगह-जगह यह नारे लगे थे, ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम।’ नतीजों से भाजपा तो नहीं उड़ी, लेकिन ढांचा ढहने और मंदिर के नाम पर सत्ता की कुर्बानी का संदेश देने के बावजूद पिछड़ी और दलित जातियों की गोलबंदी से हार गई। उसे बमुश्किल 177 सीटें ही मिल पाईं और सपा व बसपा के गठबंधन ने दूसरों के समर्थन से बहुमत का आंकड़ा पाकर सरकार बना ली।

माया की दलित वोट सहेजने की कोशिश
भले ही मायावती इसे एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो का व्यवहार करार दे रही हों, लेकिन कहीं न कहीं इसके पीछे मायावती की दलित वोट सहेजने और राज्यसभा पहुंचने की कोशिश भी नजर आती है। भाजपा की रणनीति से जिस तरह दलित वोट पहले 2014 व फिर 2017 में बसपा से छिटक कर भगवा टोली की तरफ आकर्षित हुआ है, खासतौर से यादव और जाटव जोड़ों जैसे अभियानों ने जिस तरह के खतरे माया व अखिलेश के सामने खड़े किए हैं, ऐसा लगता है कि इस एलान के पीछे दोनों की अपने वोट को सहेजने की मजबूरी भी है।

पर, सवाल ये भी है… कौन किसे मानेगा लीडर

अखिलेश का नेतृत्व स्वीकार करना माया के लिए आसान नहीं

सवाल यह भी है कि मायावती और अखिलेश में कौन किसे लीडर मानेगा। यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि दोनों ही नेताओं का मुख्य आधार यूपी ही है। बसपा ने जब मुलायम को मुख्यमंत्री स्वीकार किया था, तब कांशीराम न तो मुख्यमंत्री रहे थे और न ही मायावती तब इतनी प्रभावशाली थीं। पर, कुछ ही दिन बाद उनकी जिस तरह मायावती की महत्वाकांक्षा जगी और स्टेट गेस्ट हाउस कांड जैसा घटनाक्रम हुआ, उसको देखते हुए मायावती के लिए किसी दूसरे का या अखिलेश के नेतृत्व को स्वीकार कर लेना बहुत आसान नहीं दिखता। यही स्थिति अखिलेश के लिए भी है।

अखिलेश के लिए ‘घर’ ही सबसे बड़ी चुनौती
भले ही अखिलेश व मायावती में अतीत की गेस्ट हाउस कांड जैसी घटनाओं को लेकर बहुत तल्खी न हो, लेकिन मुलायम और शिवपाल जैसे नेताओं के लिए मायावती के साथ सहज रिश्ते रख पाना और मायावती का इन नेताओं के साथ सहज रिश्ते रखना बहुत आसान नजर नहीं आता। मुलायम व शिवपाल के लिए किसी भी परिस्थिति में मायावती को नेता स्वीकार कर पाना आसान नहीं है।

जमीनी स्तर पर भी बसपा और सपा के कार्यकर्ताओं के बीच रिश्ते मधुर नहीं रहे हैं। ऐसे में अखिलेश के सामने इस संभावित गठबंधन को लेकर अपने घर में ही विरोध का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही जमीनी स्तर पर भी इसे स्वीकृति दिलाने में कड़ी मेहनत करनी पड़ सकती है।

सपा व बसपा क्या छोड़ पाएंगी सवर्णों का मोह

मायावती और अखिलेश आपस में गठबंधन या तालमेल के जरिये पिछड़ों और दलितों के गठबंधन के सहारे राजनीतिक सफर आगे बढ़ाने में सवर्णों का मोह छोड़ पाएंगे। खासतौर से यूपी में जिस तरह 23-24  प्रतिशत सवर्ण ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य व कायस्थ राजनीतिक तौर पर खासे सक्रिय व सचेत रहते हैं, उसको देखते हुए दोनों के लिए दलित व पिछड़ों के गठबंधन की राजनीति करना क्या आसान होगा।
मोदी का नेतृत्व और भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग बड़ी चुनौती
भाजपा और खासतौर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा जिस तरह दलित व पिछड़ों के समीकरण पर काम करते हुए उसमें अगड़ों के वोट को शामिल कर राजनीतिक लड़ाई को 80 बनाम 20 प्रतिशत बनाने में जुटी है, उसे देखते हुए भी सपा और मायावती के लिए सिर्फ दलित व पिछड़ों को आधार बनाकर राजनीतिक सफर में सफलता पाना आसान नहीं दिखता।अब तक के परिणाम यही बताते हैं कि सपा के पास पिछड़ों में यादव मतदाता ही मुख्य आधार है। पर, हिंदुत्व के एजेंडे पर भाजपा अब इसमें भी सेंध लगा रही है। ऊपर से गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियां भी सपा के साथ आमतौर पर खुद को बहुत सहज नहीं महसूस करती।

 
 

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