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अपने-अपने स्नान

शिप्रा चतुर्वेदी

कहानी : एक ही माता-पिता की जुड़वां बेटियाँ बड़ी होकर अलग-अलग देशों में बस गई थीं। वैचारिक भिन्नता होने के बावजूद दोनों में गहरा नैसर्गिक लगाव था। एक विचित्र सा समीकरण था दोनों के बीच। दोनों के अलग-अलग व्यक्तित्व को परस्पर स्वीकृति! कुछ अपना खुद का स्वभाव और कुछ वातावरण का प्रभाव, जीवन शैली, लक्ष्य, सभी कुछ भिन्न थे।

पांच मिनट पहले जन्मी बड़की वर्तमान से बहुत अलग, बेहद स्वतंत्र विचार, सब कुछ कर सकने का विश्वास, किसी का अनुसरण करने के बजाय लोगों को अपना अनुसरण करने के लिए प्रेरित करने की इच्छा रखने वाली, किसी भी प्रकार के पाखण्ड को न मानने वाली थी। ज़ाहिर सी बात है, परिवार में समय-समय पर किसी न किसी के द्वारा किसी न किसी रूप में असंतोष जताया जाता। पर ईश्वर की लीला! जिसको उसने जैसा बनाया उसके उसी रूप को पोषित करने के लिए वैसा ही परिवेश भी तैयार करता है। तो ऐसा संयोग बना कि वह विदेश में जा बसी। पांच मिनट बाद जन्मी छुटकी बेहद घरेलू, सबकी बात सुनने वाली, घर के सभी रीति-रिवाज़ और और परम्पराओं को संजीदगी से मानने वाली थी। घर के ही क्यों, आस-पास के लोग, रिश्तेदार सभी उससे बहुत खुश और अपनी–अपनी संतानों को उसका उदाहरण देकर उलाहने देते नहीं थकते थे। वह भी इस माहौल में पूर्णरूपेण रची-बसी हुई थी।

एक अजीब सी बीमारी देश में या फिर यों कहें विश्व भर में फैली हुई है। नई बीमारी है, वैज्ञानिक भी अनभिज्ञ हैं सो कुछ स्पष्ट नीति सामने नहीं आ रही। चूँकि पूरे देश की जनता के स्वास्थ्य का सवाल है सो राजनीतिक स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाने का निर्णय लिया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण और जीवन शैली को प्रभावित करने वाला नियम है लॉकडाउन। शुरू में उसे अपनाने में कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। यह सब क्षणिक है, गुज़र जाएगा। धीरे-धीरे समय बढ़ने लगा, धैर्य घटने लगा। लम्बे इंतज़ार के बाद जीवन सामान्य रूप में वापस आया। अभी इसकी खुशी को ठीक से महसूस भी नहीं कर पाए थे कि पता चला बीमारी एक नए, अधिक घातक रूप में वापस आ गई है। दूसरी लहर! फिर से वे पाबंदियाँ! इस ऊहापोह भरी जीवन-शैली के साथ लगभग साल भर का समय बीत चुका है। आज उन पिछले दिनों के मुक्त और स्वच्छंद जीवन का स्मरण मन को विचलित कर रहा है। इन परिस्थितियों ने अलग-अलग लोगों को अलग-अलग रूप से प्रभावित किया।

शाम के समाचारों में बताया गया कि कल से रेस्टोरेंट, मधुशाला समुद्र-तट आदि खुल जायेंगे। सुनते ही बड़की के मन में अजीब-अजीब से ख्याल आने लगे। कहीं यह मज़ाक तो नहीं! जो भो हो, कल तो खुल ही जायेंगे तो सबसे पहले मुझे बार में जाकर अपनी मित्र-मण्डली के साथ बियर पीनी है।कितना समय बीत गया सबके साथ बैठकर पिए हुए। सबको फ़ोन किया गया। सवेरे बाजार खुलने के पहले ही हम वहाँ पहुँच जायेंगे। उसने सोचा, थोड़ा कैश भी रखना चाहिए, कहीं कार्ड की व्यवस्था नहीं काम आई तो! इतने दिनों दिनचर्या थोड़ी अस्त-व्यस्त हो गई है। सुबह का अलार्म लगा लेती हूँ। कहीं नींद देर से खुली तो! एक का फोन आया कि मौसम विभाग की जानकारी के अनुसार कल बरसात हो सकती है तो विंड शीटर ज़रूर ले लेना। सुबह की कल्पना करके ही मन हिलोरें ले रहा है। फिर वे पुराने दिन, साथी, मस्ती, बियर! सुबह की पौ फटने के पहले ही घूँट!


अलार्म बज रहा है! जल्दी! फिर भीड़ हो जाएगी। जी तो कर रहा है पंख लग जाएँ और उड़ कर बार तक पहुँच जाऊं। कितना उत्साह! लगता है पहली बार बियर पीने जा रही हूँ। उत्फुल्लित और उत्साहित वह घर से बाहर निकलती है। यह सड़क के मोड़ पर इतने लोग कैसे दिखाई दे रहे हैं? पास जाने पर पता चला के वे सब बियर के लिए लाइन लगाए हैं। ज़रूर कोई ग़लतफ़हमी है। या तो ये लोग किसी और दुकान के लिए लाइन लगाए हैं या किसी ने इन्हें गुमराह किया है कि यहाँ स्पेशल किओस्क लगाया जाएगा। अपने अटल और अमित आत्मविश्वास के साथ बड़की आगे बढ़ती है। वह इन लोगों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देती। पर यह क्या ? जब वह बार तक पहुँचती है तो पाती है कि यह वही लाइन है जो इस बार से शुरू होकर उसके घर की सड़क के मोड़ तक पहुँच गई थी। उसी के जैसे अन्य बियर प्रेमियों की यह कतार आधी रात को ही लगनी शुरू हो गई थी और अब तो इसकी लम्बाई दो किलोमीटर तो अवश्य हो चुकी होगी।

इधर इस नई बीमारी ने छुटकी के जीवन की भी दिशा ही बदल दी है। पूजा-अर्चना का तरीका भी बदल गया है। बाहर आने-जाने की मनाही होने के कारण घर पर ही दर्शन से संतुष्ट होना पड़ता है। वह सोचती है, खैर, हम तो वैसे भी घट-घट में भगवान में विश्वास रखते हैं। भगवान की पूजा तो खैर हो जाती है पर कीर्तन, सत्संग इत्यादि की कमी अखर रही है। विशेष उत्सव, जो सामूहिक रूप से मनाये जाते हैं उनका क्या? दशहरा, दीपावली, होली सब बीत गए। कुम्भ पास है। क्या कुम्भ स्नान भी नहीं कर पाऊँगी? यह क्या हो रहा है! इतने लम्बे समय बाद तो इसका अवसर आता है और वह भी गँवा दिया जाए? क्या ये पाबंदियां हमारे पूर्व कर्मों के फलस्वरूप हैं? यदि ऐसा है तो स्नान करने अवश्य जाना चाहिए। सभी प्रकार के कल्मष से मुक्ति! तो तय रहा। सुबह की पौ फटने के पहले ही डुबकी!

दादी कहती हैं कि सुबह जल्दी उठना हो तो तकिये से कह कर सो जाओ। सो उसने तकिये से कहा, “मेरे प्यारे तकिये, मुझे सुबह जल्दी ज़रूर उठा देना।” तकिये ने सचमुच अपना काम किया। छुटकी जाग गई है। बाहर अभी भी अँधेरा है। क्या थोडा इंतज़ार करना चाहिये? नहीं, तुरंत चलना चाहिए, वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते भी तो समय लगेगा। फिर भीड़ हो जायेगी। उमंग से भरी हुई वह सोचती है : कितना आनन्द आयेगा जब मैं स्नान करके आकर सभी को चकित कर दूंगी! आस्था और ऊर्जा से भरी हुई वह घर से बाहर निकलती है। पर ये सड़क के मोड़ पर इतने लोग कैसे दिख रहे हैं? ऊसने सोचा, मुझे क्या, इन सब बातों में समय न गँवा कर मैं गली-गली का शार्टकट लेकर जब वह तट तक पहुँचती है तो देखती है कि यहाँ तो जन-सैलाब आया हुआ है I भोर का विचार दूर, ये तांता तो आधी रात से जारी है।

परिचय
जन्म : 7 मार्च 1956
रसायन शास्त्र में पी.एचडी
ग्योटे इंस्टीट्यूट दिल्ली, पुणे एवं फ़्रंकफ़र्ट, म्युनिख़, बर्लिन से जर्मन भाषा का अध्ययन
लखनऊ के विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों में अध्यापन का अनुभव
1984 से जर्मन भाषा का अध्यापन
तीन उपन्यास, एक कहानी संग्रह, कई कहानियां व कविताओं के अनुवाद (कादम्बिनी, राजस्थान विश्वविद्यालय की महिला संस्था द्वारा संचालित वार्षिक पत्रिका शक्ति, सार-संसार, गर्भनाल, अनुसृजन आदि) में प्रकाशित, जीबीओ नई दिल्ली द्वारा आयोजित अनुवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार, लगभग बीस उपन्यासों के पुस्तक परिचय प्रकाशित, वर्तमान में निजी इंस्टीट्यूट में जर्मन भाषा का अध्यापन, मैक्स मुलर भवन के केंद्रीय विद्यालय प्रोजेक्ट की लखनऊ रीजन की समन्वयक, इंडो जर्मन टीचर्स एसोसिएशन के नार्थ जोन का प्रतिनिधित्व, इग्नू के डीटीजी कोर्स की लखनऊ सेंटर की काउंसेलर, दो बार एलसीबी बर्लिन व तीन बार ट्रांसलेशन हाउस लोरेन,स्विट्ज़रलैंड की स्कालरशिप प्राप्त की

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