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अब भाजपा की निगाहें 2019 के चुनाव पर

लोकसभा की गोरखपुर और फूलपुर सीटों के उपचुनाव के लिए भाजपा ने जिस तरह पूरी ताकत झोंक दी है, उससे साफ पता चलता है कि पार्टी के रणनीतिकार इन चुनाव को हल्के में नहीं लेना चाहते। उनके लिए इन दो सीटों के चुनाव सिर्फ-जीत हार के नाते ही प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बने हैं, बल्कि भविष्य की तैयारी के लिहाज से भी साख का सवाल हैं।अब भाजपा की निगाहें 2019 के चुनाव पर

कोशिश उपचुनाव के जरिये पूर्वांचल की इस पट्टी में भविष्य के सियासी समीकरणों की नब्ज टटोलने और भविष्य के लिए संदेश देने की भी है। इसमें अगले साल होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के लिहाज से समीकरणों को दुरुस्त करने की चिंता भी शामिल है। शायद यही वजह है कि दोनों ही जगह भाजपा ने अपने तीन-तीन प्रमुख पदाधिकारी बिठा रखे हैं। प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल भी दोनों स्थानों पर जाकर बूथ स्तर तक के कार्यकर्ताओं की बैठक कर चुके हैं।

दरअसल, लोकसभा की गोरखपुर सीट लंबे समय से गोरक्षपीठ की सीट मानी जाती रही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के 1998 से यहां पांच बार सांसद का चुनाव जीतने से पहले उनके गुरु महंत अवेद्यनाथ भी यहां से सांसद रहे। मंहत अवेद्यनाथ से पहले उनके गुरु महंत दिग्विजय नाथ भी सांसद रहे।

अब जब योगी आदित्यनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके हैं तो भाजपा के रणनीतिकारों ने उनकी जगह उपेंद्र शुक्ल के रूप में पार्टी के पुराने कार्यकर्ता को मैदान में उतारकर बड़े राजनीतिक बदलाव की ओर कदम बढ़ाया है। साथ ही यह संदेश देने की कोशिश की है कि पार्टी किसी के इशारे पर या प्रभाव में नहीं चलती। वहीं, फूलपुर जैसे पिछड़ा, दलित और मुस्लिम आबादी प्रभावित क्षेत्र से पिछड़े वर्ग के कौशलेंद्र पटेल को उतारकर प्रदेश में भविष्य के लिए अपने परंपरागत कुर्मी मतदाताओं के बीच प्रतिनिधित्व का संदेश देने की तैयारी की है।

गोरखपुर : संदेश बड़े बदलाव का

पहले गोरखपुर से शिवप्रताप शुक्ल के रूप में ब्राह्मण चेहरे को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करना और अब उपेंद्र शुक्ल के रूप में एक अन्य कार्यकर्ता को योगी की जगह लोकसभा का चुनाव लड़ाना बताता है कि पार्टी यहां के ब्राह्मण समीकरण को अपने पक्ष में दुरुस्त रखना चाहती है।

योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री का पद सौंपने के बाद उसकी तैयारी नए चेहरों से अगड़ा व पिछड़ा समीकरण दुरुस्त कर आगे की चुनौतियों से निपटने की है। वैसे तो सपा ने निषाद बिरादरी का उम्मीदवार उतारकर यहां मुसलमान, निषाद और अन्य पिछड़ों के वोटों को जोड़कर अपना गणित ठीक करने की कोशिश की है। पर, यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि गोरखपुर और आसपास की पिछड़ी आबादी बहुत बड़ी संख्या में मंदिर से भी जुड़ी हुई है। वर्ष 2014 में भी सपा ने यहां निषाद बिरादरी का ही उम्मीदवार उतारा था लेकिन पिछड़ों का समर्थन योगी के पक्ष में ज्यादा रहा।

लगता है भाजपा के रणनीतिकारों ने इन समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उसमें ब्राह्मणों के मतों को जोड़कर गणित को और दुरुस्त करने की कोशिश की है। साथ ही पिछले दिनों गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी के यहां पड़े छापे से ब्राह्मणों में भाजपा को लेकर झलकी नाराजगी को भी थामने का प्रयास किया है।

फूलपुर : आगे के इतंजाम की तैयारी

वैसे तो 2014 के चुनाव में फूलपुर की सीट पहली बार केशव प्रसाद मौर्य के रूप में भाजपा को मिली थी। पर, यहां पिछड़ी जातियों के समीकरण को देखते हुए भाजपा ने वाराणसी के पूर्व महापौर कौशलेंद्र पटेल को प्रत्याशी बनाकर सिर्फ इस चुनाव की जीत-हार के समीकरणों पर काम नहीं किया है। कोशिश फूलपुर के बहाने पार्टी के लिए कुर्मी बिरादरी के एक और नेता की तलाश भी पूरी करने की है जिससे आगे पूर्वांचल में गोरखपुर से फूलपुर तक बड़ी संख्या में मौजूद इस जाति के लोगों को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने में सुविधा रहे।

यहां ध्यान रखने की बात है कि यादव के मुकाबले कुर्मियों को जनसंघ और भाजपा का अधिक समर्थक माना जाता है। पूर्वांचल में भाजपा के पास एक वक्त ओमप्रकाश सिंह जैसा कुर्मी चेहरा हुआ करता था। सिंह के पुत्र अनुराग इस समय विधायक हैं, पर उनका कद अभी अपने पिताजी जैसा नहीं बन पाया है। शायद यही वजह रही कि लोकसभा के 2014 के चुनाव में पार्टी को पूर्वांचल के कुर्मी मतदाताओं को लामबंद करने के लिए अपना दल से समझौता करना पड़ा और अनुप्रिया पटेल को मिर्जापुर से चुनाव लड़ाना पड़ा।

पार्टी ने फूलपुर के बहाने संभवत: भविष्य के लिए इस कमी की भरपाई की तैयारी की है। भाजपा यहां से कौशलेंद्र को जिता लेती है तो भगवा टोली यह संदेश देने में सफल हो जाएगी कि फूलपुर में भाजपा की पिछली जीत सिर्फ संयोग नहीं थी। अगड़ों के साथ पिछड़े और दलित अब भी भाजपा के साथ खड़े हैं। 

 
 
 

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