आजादी से पहले सेंसर बोर्ड: शहर के पुलिस चीफ करते थे फिल्मों को पास
साल 1913 में पहली भारतीय फिल्म राजा हरिशचंद्र प्रदर्शित हुई. इसके बाद शुरुआती पांच सालों तक फिल्मों पर कोई सेन्सरशिप नहीं लगाई गई. फिल्में भी इन सालों में कम बनीं. 1918 में पहला सिनेमैटोग्राफ एक्ट बना. इसके तहत कोई भी फिल्म रिलीज करने से पहले सर्टिफाइड कराना जरूरी हो गया. साथ ही देश के बड़े शहरों में सेंसर बोर्ड बनाया गया.उसी समय से आज तक सेंसर बोर्ड शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है. जबकि 1983 में बोर्ड का नाम सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन कर दिया गया था. सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1918 के तहत फिल्म की सेंसरशिप के अधिकार शहर के पुलिस चीफ को दिए गए. प्रमुख शहर मद्रास, बॉम्बे, कलकत्ता और लाहौर में बोर्ड के ऑफिस बनाए गए. जबकि रीजनल फिल्मों को सेन्सरशिप से मुक्त रखा गया.
आजादी के पहले अंग्रेज अधिकारियों ने फिल्मों की सेंसरशिप के लिए एक ही गाइडलाइन दी थी कि यूरोपीय देश और ब्रिटिश राज के खिलाफ कुछ भी न दिखाया जाए. साथ ही हिंसा और अश्लीलता को भी फिल्मों से अलग कर दिया जाता था. प्रमाणपत्र को कैटेगरी में बांटने का उस समय कोई रिवाज नहीं था. राजनीतिक समीकरण और विचारधारा को प्रभावित करने वाली फिल्मों पर भी पाबंदी थी.
1927 में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी बनाई गई, जिसने भारत में फिल्मों पर इंडेपेंडेंट बॉडी बनाकर सेंसरशिप लाने की सिफारिश की. 1939 में दूसरा विश्वयुद़ध शुरू होते ही फिल्मों पर सेन्सरशिप और बढ़ा दी गई. सिर्फ पारिवारिक विषयों पर बनी फिल्में ही पास होती थीं. धीरे-धीरे देश में आजादी का आंदोलन तेज हुआ और फिल्मों के प्रति उदारता दिखाई जाने लगी.
1952 में आजाद भारत का अपना सिनेमैटोग्राफ एक्ट बना, जिसे सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर नाम दिया गया. इसे फिल्मों को चार कैटेगरी में सर्टिफाइड करने का नियम बनाया गया. 1983 में इसे रिवाइज किया गया और इसका नाम बदलकर सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन किया गया.