दस्तक-विशेष

ऐ आत्मघाती चुप्पियों! कुछ तो बोलो…

नारी कालम : सुमन सिंह

nari collamकाश मैंने थोड़ा ध्यान दिया होता तो यह दिन नहीं देखना पड़ता…अरे अब मैं कैसे जिऊंगी…सब खत्म हो गया ।’ एक स्त्री सिर पीट -पीट कर रो रही है। घर में मातमी माहौल है। पूरी कॉलोनी ग़मगीन और हैरत में है। उस नन्हें लहूलुहान शव को देखकर सभी दु:खी हैं, रो रहे हैं। एक अबोध जिसने अभी ठीक से बोलना भी नहीं सीखा था। जिसने अभी सही -गलत, ऊंच-नीच में भेद करना भी नहीं सीखा था। जिसे सिर्फ़ प्रेम की भाषा ही समझ में आती थी। उसे नहीं पता था कि इस प्रेम में भी मिलावट होती है, कि एक दिन कोई प्रेम से बुलाकर, बहला -फुसलाकर ले जायेगा और उसके साथ दुष्कर्म करेगा।
उसके रोते-बिलखते माँ-बाप से लेकर कॉलोनी के सभी स्त्री-पुरुष इस दुष्कर्म शब्द से इतने परिचित थे कि उन्हें हैरान होने की कतई जरूरत नहीं थी, पर वे हैरान थे। इसलिए कि इस बार दुष्कर्म का शिकार एक लड़की नहीं वरन लड़का था। कुछ बुज़ुर्ग आश्चर्य से बुदबुदा रहे थे-‘अरे,अब लड़के भी।’ कुछ युवा दु:ख के इस समय भी सहानुभूति की जगह मंद मुस्कान लिए आपस में फुसफुसा कर मजाक कर रहे थे। महिलाएँ चकित थीं कि उन्हें अभी तक सिर्फ लड़कियों की ही चिंता क्यों थी, लड़कों की क्यों नहीं हुई। लड़कों से दुराचार? इसकी कल्पना भी उनके मन -मस्तिष्क ने क्यों नहीं की।
वह अबोध जो असमय ही चला गया उसके बिलखते माँ-बाप ने भी उसकी कभी इस तरह चिंता नहीं की थी। उन्हें आभास तक नहीं था कि एक दिन उनके नन्हें से तीन साल के मासूम बच्चे के साथ बलात्कार भी होगा। प्रश्न यह उठता है कि लड़कों के साथ भी दुष्कर्म होता है या हो रहा है कि चिंता इस घटना से स्तब्ध लोगों को क्यों नहीं थी, जबकि इन्होंने आयेदिन समाचारों, फ़िल्मों और यहाँ तक कि धारावाहिकों में समलैंगिक संबंधो को देखा -सुना था। आज जबकि समलैंगिक संबंधों पर देश-विदेश में खुलकर चर्चा हो रही है। नियम बन रहे हैं और लगातार संशोधित भी हो रहे। इन संबंधों के पुरज़ोर समर्थक, आंदोलनकारी सार्वजनिक स्थलों और मीडिया को माध्यम बनाकर अपने आज़ाद ख्यालों से पूरी दुनिया को आंदोलित किये हुए हैं। ऐसे समय और समाज में लड़कों के साथ हो रहे दुराचार पर कोई क्यों नहीं बोलता। यहाँ तक कि आये दिन दुष्कर्म की ख़बरों से पटे हुए अख़बारों में भी बस किसी महिला और बच्ची का ही ज़िक्र होता है।
आस-पड़ोस में मासूम लड़कों के साथ हो रहे दुराचार से परिचित होते हुए भी लोग चुप क्यों हैं। क्या यह सोचकर कि दुराचार के शिकार इन बच्चों के शारीरिक-मानसिक विकास पर कोई असर नहीं पड़ता। आख़िर क्यों इनके साथ हुए शोषण की घटनाएँ प्रकाश में नहीं आतीं?
हमारी धर्मप्राण जनता जो पाहन भी पूज सकती है उसे इन अबोध शोषितों से कोई सरोकार क्यों नहीं है। समाज जो नित ही अपने आधुनिक होते जाने का ढोल पीट रहा है वह इस मुद्दे पर चुप क्यों है। माँ-बाप जो अब अधिकांशत: जागरूक हो रहे हैं और अपनी नन्ही बच्चियों के यौन शोषण पर खुलकर बोल रहे हैं वे इस विषय पर विचार क्यों नहीं करते।
इन खामोशियों के कारण अपवाद स्वरूप ही लड़कों के साथ हुए दुराचार की घटनाएँ प्रकाश में आती हैं। किसकी प्रतीक्षा कर रही हैं ये चुप्पियाँ? उस दिन की, जब दुराचार के शिकार बचे रह गए बच्चे खुद दुराचारी हो जायेंगे या कि अपने साथ हुए इस अन्याय और शोषण का जवाब प्रतिहिंसा और बलात्कार से देंगे। अपने बच्चों की परवरिश में जी -जान लगा देने वाले माता -पिता इन आत्मघाती चुप्पियों को क्यों नहीं पहचानते?

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