कर्तव्य निर्वाह में कोताही
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अभिभावकों और बच्चों के बीच प्यार का अटूट और शाश्वत संबंध मानव सभ्यता के विकास की धुरी बना रहा है। प्रत्येक मां-बाप की सबसे सहज और संतोष देने वाली अभिलाषा यही होती है कि उनके बच्चे उनसे और अधिक अच्छा, शांतिमय एवं सुखद जीवन बिताएं। वे इसके लिए हरसंभव प्रयास करते हैं। 21वीं शताब्दी में अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का प्रयास अब लगभग सर्वव्यापी है। माता-पिता अपने पास उपलब्ध संसाधनों से भी अधिक व्यय करने को तैयार रहते हैं। इस सबके पीछे एक नैसर्गिक प्रेम-भाव ही प्रेरणा का स्रोत होता है।
राष्ट्र के स्तर पर व्यवस्था की सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही होती है कि भविष्य के नागरिकों को-जो देश की बागडोर कुछ वर्ष बाद संभालेंगे-अपने व्यक्तित्व विकास के पूर्ण अवसर उपलब्ध हों। भारत आज ऐसा नहीं कह पाएगा, क्योंकि उसके लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं, आधे से अधिक स्कूलों के पास संसाधनों की इतनी कमी है कि वे अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा दे पाने की स्थिति में कभी आ ही नहीं पाते। आधिकारिक तौर पर करीब एक करोड़ बच्चे स्कूलों में नामांकित ही नहीं हैं। दस लाख स्कूलों में शिक्षकों की कमी है। कई लाख थोड़े से मानदेय पर काम कर रहे हैं। वे सदा एक असुरक्षा के वातावरण में काम करते हैं जिसमें निराशा हावी रहती है और उनका अपना व्यक्तित्व सिमट जाता है। उनसे बच्चों के व्यक्तित्व विकास की अपेक्षा करना हास्यास्पद है।
निजी स्कूलों की बात अलग है, लेकिन यह तथ्य है कि सरकारी स्कूलों में बिना प्रयोगशालाओं के ही बच्चे प्रायोगिक परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लेते हैं। नकल कर परीक्षा पास करना समाज में हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता। अनगिनत स्थानों पर सारा गांव या समुदाय इसमें भाग लेता है। अनेक उदाहरण हैं जहां राज्य सरकार का परीक्षा बोर्ड शीर्ष स्तर पर नकल माफिया के साथ बेहिचक संलग्न पाया गया है। जो शिक्षा व्यवस्था और सरकारें यह सब होने देती हैं वे बच्चों के साथ घोर अन्याय कर रही हैं। क्या वे माता-पिता जो इस सबमें भागीदार हैं, अपने बच्चों से वास्तविकता में प्रेम करते हैं?
दुर्भाग्य यह है कि इस सब का ‘सामान्यीकरण’ हो गया है। शिक्षा परिसंवादों में ‘यह तो ऐसा ही चलेगा’ कहकर चर्चा समाप्त कर दी जाती है। बच्चों की सबसे पहली आवश्यकता है कि उन्हें माता-पिता का प्यार, समय और साथ मिले। अब यह पक्ष लगातार कमजोर होता जा रहा है। अपना गांव घर छोड़ कर आए दैनिक मजदूरी पर काम करने वालों से लेकर मल्टीनेशनल कंपनियों में कार्य करने वालों तक में से किसी के पास समय नहीं है। मजदूर का बच्चा यदि सरकारी स्कूल जाता है तो वहां उसे करने को कुछ होता ही नहीं है। पीने के पानी से लेकर इस्तेमाल होने योग्य शौचालय तक की कमी या मास्टर साहब की अन्य व्यस्तताएं। न खेल का सामान न अन्य कोई सुविधा।
बड़ी फीस देकर नामी-गिरामी स्कूल में बच्चों को पढ़ाने वाले माता-पिता के बच्चे सुबह पांच बजे उठते हैं, छह बजे बस में बैठते हैं, सात बजे स्कूल प्रारंभ। लौटकर होम वर्क, ट्यूशन, प्रोजेक्ट, स्विमिंग, टेनिस, डांस और न जाने क्या क्या? थके-हारे माता-पिता जब 14-15 घंटे काम करलौटते हैं तब बच्चों के साथ समय बिताने की कोई संभावना बचती ही नहीं है। छुट्टी के दिन या तो बच्चे के प्रोजेक्ट वर्क में व्यस्त होना पड़ता है या अगले दिन ‘सतत और समग्र मूल्यांकन’ (सीसीइ) के होने वाले टेस्ट की तैयारी। इस प्रकार अधिकांश बच्चों को संवेदनात्मक स्तर पर वह माहौल ही मिल ही नहीं पाता जिसमें उन्हें परिवार का वह प्यार-दुलार मिल सके जिसके वे नैसर्गिक रूप से हकदार हैं। साधन-संपन्न माता-पिता इसकी भरपाई महंगे उपहारों तथा बड़े खर्च वाले जन्मदिन आयोजन करके करते हैं।
आइंस्टीन ने बच्चों के संबंध में अनेक सार्थक विचार व्यक्त किए थे जो शाश्वत महत्व रखते हैं। उन्होंने माता-पिता को इंगित करते हुए कहा था कि आपके बच्चों को आपके समय और साथ की जितनी आवश्कता है उतनी उपहारों की नहीं है। आइंस्टीन ने यह भी कहा था कि यदि उनका बस चले तो वे बच्चों को केवल गणित और संगीत पढ़ाएंगे। बाकी सब जानकारी, ज्ञान और कौशल इसी से निकलेगा। बच्चों को बुद्धिमान, समझदार और मेधावी बनाना चाहते हैं तो उसे परियों की कहानियां सुनाइए।
आज इसका अर्थ हम भूल गए हैं। दादी-नानी तो मिलती नहीं हैं अब और इसीलिए डोरेमान, हैरी पॉटर इत्यादि का सहारा लेना पड़ता है। अनेक देश बाल-साहित्य के लगातार निर्माण और वितरण की व्यवस्था करते हैं, क्योंकि नई पीढ़ी को देश, उसकी संस्कृति, इतिहास और गौरव से जो परिचय प्रारंभिक वर्षो में मिल जाता है वह उनकी जिज्ञासा को बढ़ाता है और अधिक जानने की इच्छा को जागृत किए रहता है। जब बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी करने की स्थिति में आते हैं तब तक उन्हें आगे के जीवन की जटिलताओं का आभास पूरी तरह हो जाता है। वे जानते हैं कि कठिन प्रतिस्पर्धा का सामना उन्हें करना है और अनेक बार ऐसी स्थितियां उनके सामने आएंगी जब न्याय नहीं मिलेगा। असली व्यक्तित्व परीक्षण का समय तो वही होगा।
आज कोटा कोचिंग के लिए देश में जाना माना नाम है। कोई सर्वेक्षण तो उपलब्ध नहीं है, पर यहां भेजे जाने वाले बच्चों में कितने स्वेच्छा से गए होंगे, यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। उन बच्चों की स्थिति की कल्पना कीजिए जो नहीं जाना चाहते थे, लेकिन परिवार के दबाव में उन्हें वहां जाना पड़ा। इस आयु-वर्ग में यदि एक भी तरुण आत्महत्या करता है तो सारे देश को उसका संज्ञान लेना चाहिए और उन स्थितियों में सुधार करना चाहिए जो जानलेवा साबित हुई हैं। कोटा में कितनी ही आत्महत्याएं हो चुकी हैं मगर वहां धरातल पर कुछ भी परिवर्तित नहीं हुआ है।
यह समाज और राष्ट्र का कैसा कर्तव्य निर्वाह है? हम चाहें तो जापान और जर्मनी से बहुत कुछ सीख सकते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में सबसे अपमानित और ध्वस्त देश थे ये दोनों। इन्होंने अपने बच्चों को वह सब कुछ दिया जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार था। उन्हें अपनी मातृभाषा में शिक्षा दी, राष्ट्रीयता और संस्कृति से ओतप्रोत पाठ्यक्रम निर्मित किए, सही पारिवारिक और संस्थागत वातावरण में बढ़ने के अवसर दिए गए और प्रतिभा विकास में विशेष प्रयत्न करने में राष्ट्र और समाज पीछे नहीं रहा। इनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है और बच्चों को उनके अधिकार दिए जा सकते हैं।