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केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में राम मंदिर मामले में दायर की याचिका

नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय में अयोध्या विवाद पर ‘जमीन वापसी’ याचिका को बड़े राजनीतिक कदम के रूप में देखा जा रहा है। केंद्र ने कोर्ट में अर्जी देकर गैर-विवादित जमीन पर यथास्थिति हटाने की मांग है। केंद्र ने कोर्ट में कहा है कि वह गैर-विवादित 67 एकड़ जमीन इसके मालिक राम जन्मभूमि न्यास को लौटाना चाहती है। इस जमीन का अधिग्रहण 1993 में कांग्रेस की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने किया था। कोर्ट ने वहां यथास्थिति बनाए रखने और कोई धार्मिक गतिविधि न होने देने का निर्देश दिया था। सरकार ने अब अपनी याचिका में कहा है कि केवल 0.313 एकड़ जमीन पर ही विवाद है, इसलिए बाकी 67 एकड़ जमीन पर यथास्थिति की जरूरत नहीं है। गौरतलब है कि 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने अयोध्या विवाद को लेकर फैसला सुनाया था। जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एस यू खान और जस्टिस डी वी शर्मा की बेंच ने अयोध्या में विवादित जमीन को 3 हिस्सों में बांट दिया था। 1993 में केंद्र सरकार ने अयोध्या अधिग्रहण ऐक्ट के तहत विवादित स्थल और आसपास की जमीन का अधिग्रहण कर लिया था और पहले से जमीन विवाद को लेकर दाखिल तमाम याचिकाओं को खत्म कर दिया था। सरकार के इस ऐक्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने इस्माइल फारुखी जजमेंट में 1994 में तमाम दावेदारी वाले सूट (अर्जी) को बहाल कर दिया था और जमीन केंद्र सरकार के पास ही रखने को कहा था और निर्देश दिया था कि जिसके फेवर में अदालत का फैसला आता है, जमीन उसे दी जाएगी। रामलला विराजमान की ओर से ऐडवोकेट ऑन रेकॉर्ड विष्णु जैन बताया था कि दोबारा कानून लाने पर कोई रोक नहीं है लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट में फिर से चुनौती दी जा सकती है। अब सरकार ने अर्जी दाखिल कर कहा है कि जितनी जमीन पर विवाद है केवल उसे ही अपने पास रखे और बाकी गैर विवादित जमीन को राम जन्मभूमि न्यास को लौटने की मांग की है। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के जस्टिस डी. वी. शर्मा, जस्टिस एस. यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल की बेंच ने बहुमत से दिए गए फैसले में एक हिस्सा (जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है) हिंदुओं को मंदिर के लिए, दूसरा हिस्सा (जहां सीता रसोई और राम चबूतरा है) निर्मोही अखाड़ा को और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैसला सुनाया था। दो जज जस्टिस एस.यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने कहा कि जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाए। जस्टिस डी.वी. शर्मा की राय थी कि विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने की जरूरत नहीं है। वह पूरी जमीन हिंदुओं को देने के पक्ष में थे। फैसले के मुताबिक मंदिर के स्थान पर मस्जिद बनाई गई थी। तीनों जजों ने इस बात को माना कि वहां पहले मंदिर था। हालांकि जस्टिस खान ने कहा कि मस्जिद बनाने के लिए मंदिर तोडा़ नहीं गया था। वहां मंदिर खंडहर रूप में था। जस्टिस अग्रवाल और खान ने इस आधार पर विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने की बात कही, जबकि जस्टिस शर्मा का कहना था कि बाबर द्वारा बनवाई गई इमारत इस्लामी कानून और इस्लामी मूल्यों के खिलाफ थी। इस आधार पर पूरी जमीन हिंदुओं को मिलनी चाहिए। फैसले में जजों ने माना था कि मस्जिद का निर्माण बाबर अथवा उसके आदेश पर किया गया और यह जगह भगवान राम का जन्म स्थान है। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट को आधार माना था जिसमें कहा गया था कि खुदाई के दौरान विवादित स्थल पर मंदिर के प्रमाण मिले थे। इसके अलावा भगवान राम के जन्म होने की मान्यता को भी शामिल किया गया था। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा था कि साढ़े चार सौ साल से मौजूद एक इमारत के ऐतिहासिक तथ्यों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। इस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या में 2.77 एकड़ भूमि विवाद से संबंधित मामले में 14 अपीलें दायर की गई थीं। यह सभी अपील 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2:1 के बहुमत के फैसले के खिलाफ थे।

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