पर्यटन

दार्जीलिंग का एहसास सैलानियों को एक ठंडा और सुखद अनुभूति देता

चिलचिलाती गर्मी और महानगर की आपाधापी से मन ऊबा तो हिमालय की गोद में बसे दार्जिलिंग की और चलिए । पश्चिम बंगाल के उत्तरी छोर पर स्थित इस मनोरम स्थल तक पहुंचने के लिए सिलीगुड़ी पहुंचे। सिलीगुड़ी अपने आपमें कोई पर्यटन स्थल तो नहीं है, लेकिन इसे कई पर्वतीय पर्यटन स्थलों का प्रवेश द्वार कहा जाता है। यहां से दार्जिलिंग के लिए टैक्सी, जीप, बस और टॉय ट्रेनें जाती हैं। घुमावदार पहाड़ी मार्ग की यात्रा के लिए टॉय ट्रेन सबसे अच्छा विकल्प है। दार्जीलिंग के सुंदर और मनोरम प्राकृतिक वातावरण का ही जादू है, जिससे प्रभावित होकर पर्यटक यहां खुद-ब-खुद खिंचे चले आते हैं। पूर्वी भारत के पश्चिम बंगाल में स्थित यह स्थल पयटकों के लिए जन्नत नहीं, तो जन्नत से कुछ कम भी नहीं है। दार्जीलिंग पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।पहाडों की चोटी पर विराजमान दार्जीलिंग का एहसास सैलानियों को एक ठंडा और सुखद अनुभूति देने के लिए काफी है।

दार्जीलिंग नगर दार्जीलिंग जिले का मुख्यालय है। यह शिवालिक हिल्स में लोवर हिमालय में अवस्थित है। यहां की औसत ऊंचाई 2,134 मीटर (6,982 फुट) है.दार्जीलिंग’ शब्द तिब्बती भाषा के दो शब्द ‘दोर्जे’ और ‘लिंग’ से मिलकर बना है। ‘दोर्जे’ का अर्थ होता है ‘ओला’ या ‘उपल’ और ‘लिंग’ का अर्थ होता है ‘स्थान’. इस तरह दार्जीलिंग का शाब्दिक अर्थ हुआ ‘उपलवृष्टि वाली जगह’, जो इसके ठंडे वातावरण का चित्र पेश करता है। अंग्रेजी शासनकाल में इसे हिल स्टेशन के तौर पर विकसित किया गया था । दार्जीलिंग ने केवल भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के मानचित्र पर अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराई है। दार्जीलिंग पहाड़ी ढलानों पर उगाई जाने वाली चाय के लिए भी प्रसिद्ध है।

चाय बगान

समझा जाता है कि दार्जीलिंग में चाय खेती 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से शुरू हुई। जानकारों का मानना है कि डॉ. कैम्पबेल दार्जीलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे. डॉ. कैम्पबेल ने ही पहली बार लगभग 1830 या 40 के दशक में अपने बाग में इनके अलावा ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने 1880 के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। दार्जीलिंग में चाय की खेती के लिए उपयुक्त वातावरण मौजूद है। स्थानीय उपजाऊ मिट्टी और हिमालयी हवा के कारण यहां चाय की उन्नत किस्में पाई जाती हैं। वर्तमान में दार्जीलिंग में तथा इसके आसपास छोटे-बड़े लगभग 100 चाय उद्यान हैं। इन चाय उद्यानों में लगभग 50 हजार लोगों को राेजगार मिला हुआ है।

एक हिमालय छोटा सा

हैप्पी वैली टी एस्टेट से निकलकर हिमालय पर्वतारोहण संस्थान पहुंचे। हिमालय के शिखरों को छू लेने की चाह रखने वालों को यहां पर्वतारोहण का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसकी स्थापना एवरेस्ट पर पहली बार फतह के बाद की गई थी। शेरपा तेन सिंह लंबे अरसे तक इस संस्थान के निदेशक रहे। संस्थान में एक महत्वपूर्ण संग्रहालय भी है। इसमें पर्वतारोहण के दौरान उपयोग में आने वाले कई नये-पुराने उपकरण, पोशाकें, कई पर्वतारोहियों की यादगार वस्तुएं और रोमांचक चित्र प्रदर्शित किए गए हैं। एवरेस्ट विजय से पूर्व के प्रयासों का इतिहास तथा वृहत्तर हिमालय का सुंदर मॉडल भी यहां देखने को मिलता है। इसके साथ ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस अनूठे संग्रहालय में हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले करीब 4300 प्राणियों का इतिहास क्रम दर्ज है। हिमालय क्षेत्र के पशु-पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियों के नमूनों के अलावा खास अयस्क और चट्टानों के नमूने भी यहां पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। इसके निकट ही स्थित है पद्मजा नायडू हिमालयन चिडि़याघर, जो बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी बहुत पसंद आता है। पर्वतों पर रहने वाले कई दुर्लभ प्राणी यहां देखने को मिलते हैं। इनमें खास हैं- लाल पांडा, साइबेरियन टाइगर, स्नो ल्योपार्ड, हिमालयन काला भालू। इनके साथ पहाड़ी उल्लू, याक, हिरन तथा कई तरह के पहाड़ी पक्षी भी यहां देखे जा सकते हैं।

कंचनजंघा सबसे रोमांटिक पर्वत

यहां कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक पर्वत माना जाता है। कंजनजंघा की सुंदरता के कारण ही यह पर्यटकों के मन में रच-बस गया है। इस चोटी की सुंदरता ने कवियों और फिल्मकारों का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के पास ही स्थित है, जो बर्फीले प्रदेश में रहने वाले तेंदुओं और लाल पांडा के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है।

तिस्ता नदी की खूबसूरती

दार्जीलिंग से गंगटोक जाते हुए घाटियों के बीच बहते तिस्ता नदी की खूबसूरती को निहारा जा सकता है। मौज-मस्ती और सुकून की खोज में आए सैलानी तिस्ता नदी के दृश्य को अपने कैमरे में कैद किए बिना नहीं रह पाते।

तिस्ता नदी समीपवर्ती लोगों के लिए हर प्रकार से उपयोगी है। यह नदी अपनी धार के साथ-साथ पर्यटन व्यवसाय को भी भरपूर गति देती है। तिस्ता के तट पर जनवरी में बेनी मेले के अवसर पर बहुत पर्यटक आते हैं। उस समय लेपचा और भोटिया नववर्ष मनाया जाता है। इसके बाद फरवरी में तिब्बती नववर्ष पर भी इस क्षेत्र में उत्सवी माहौल होता है। इनके अलावा बुद्ध पूर्णिमा, दुर्गा पूजा और दीवाली भी यहां धूमधाम से मनाई जाती है।

सूरज के स्वागत में

दार्जीलिंग में सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य पर्यटकों को खूब भाता है। सैलानी इसे अपलक निहारने का लोभ नहीं नहीं छोड़ पाते हैं। सुबह बहुत जल्दी उठकर मुंह अंधेरे ही दार्जिलिंग से 13 किलोमीटर दूर टाइगर हिल पहुंचना होता है। समुद्र तल से 8482 फुट की ऊंचाई पर स्थित टाइगर हिल सूर्योदय के अद्भुत नजारे के लिए प्रसिद्ध है। वहां पहुंचे पर्यटकों का हुजूम देखकर लगता जैसे पूरा देश ही सूर्य के स्वागत में टाइगर हिल पर आ खड़ा हुआ हो। कंचनजंघा और अन्य हिमशिखरों पर सूर्य की पहली किरण अपना नारंगी रंग फैलाते ही कुछ क्षण बाद ही सुनहरे रंग में परिवर्तित हो जाता। सूर्य की किरणें कुछ तेज हो तो ऐसा लगने लगता कि पर्वतों पर चांदी की वर्षा हो गई हो। जैसे-जैसे सूर्य आगे बढ़ता सभी हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियां दूध सी सफेद नजर आने लगती। सूर्योदय के साथ ही पल-प्रतिपल रंग बदलती पर्वतमाला का ऐसा अविस्मरणीय दृश्य देख पर्यटक अवाक रह जाते हैं। पहाड़ों की ऐसी ही खूबसूरती को निहारने के लिए लोग घंटो खडे रहते।

खिलौना गाड़ी का सफर

लगभग दस किलोमीटर का मैदानी रास्ता तय करने के बाद टॉय ट्रेन पर्वतीय मार्ग पर बढ़ती है। देवदार, ताड़ और बांस आदि के पेड़ों से भरे इस मार्ग पर यह अनोखी ट्रेन ठुमक-ठुमक कर चलती। लगभग 15 किलोमीटर प्रति घंटा की धीमी गति से चलती ट्रेन से पर्यटकों को प्रकृति के मनोरम दृश्य देखने का भरपूर आनंद मिलता है। दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की इस यात्रा में सबसे ज्यादा प्रसन्नता इस बात की होती है कि हम उस रेलगाड़ी से यात्रा करते हैं जिसे यूनेस्को से विश्व धरोहर का दर्जा हासिल है। मार्ग में तिनधरिया स्टेशन के पास टॉयट्रेन एक वृत्ताकार लूप से गुजरती है। प्रकृति की सुंदरता के दुर्लभ दृश्य यहीं से शुरू होते हैं। पहाड़ की ढलानों पर फैली हरियाली के बीच से होकर कई छोटे-बड़े गांवों को पार करती ट्रेन आगे बढ़ती रहती है। इसके साथ ही सड़क मार्ग भी चलता रहता है। कई स्थानों पर तो रेलवे लाइन और सड़क एक-दूसरे को काटती हुई चलती हैं। पूरे मार्ग पर 132 क्रॉसिंग हैं और सभी अनियंत्रित हैं। इसी कारण पर्यटकों को यहां के स्थानीय जीवन की झलक बराबर नजर आती रहती है। कुर्सियांग पहुंचकर तो सब कुछ रेलवे लाइन के एकदम निकट लगने लगता है। सैलानियों को यह देखकर आश्चर्य होता है कि रेलगाड़ी मानो दुकानों और घरों को एकदम छूकर निकल रही है। यहां के लोगों को इस सबसे कोई असुविधा नहीं होती, क्योंकि रेलगाड़ी की गति बहुत कम होती है।चलती गाड़ी में चढ़ना-उतरना इन लोगों के लिए शगल नहीं बल्कि रुटीन है। इस अनोखी खिलौना रेलगाड़ी की शुरुआत 122 वर्ष पूर्व हुई थी। पहले इस पूरे मार्ग पर भाप इंजन का ही प्रयोग होता था। लेकिन अब पुराने पड़ गए भाप इंजनों की सुरक्षा तथा इस रेलपथ की ऐतिहासिकता को बरकरार रखने के उद्देश्य से इस मार्ग पर विकल्प के रूप में डीजल इंजन का ही प्रयोग होता है। गहरी घाटियों, दूर तक फैले चाय बागान, कृत्रिम पुलों और छोटी-छोटी सुरंगों को पार करती हुई यह ट्रेन जब घूम स्टेशन पहंुचती है तो पर्यटक रोमांचित हो उठते हैं। इस रोमांच का एक कारण यह है कि 7408 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह स्टेशन संसार के नैरो गेज रेलपथ का दूसरा सबसे ऊंचा स्टेशन है। दूसरा कारण है घूम के निकट स्थित बतासिया लूप। इस लूप का चक्कर काटते समय ट्रेन की खिड़की से दिखते नैसर्गिक दृश्य तो जैसे सम्मोहित ही कर लेते हैं।

शांति स्तूप

भारत में कुल 6 शांति स्तूप हैं, जिनमें दार्जीलिंग स्थित निप्पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य 1972 ई. में शुरू हुआ था। यह मंदिर 1 नवंबर, 1992 ई. को आम लोगों के लिए खोला गया।विविधतापूर्ण प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात दार्जिलिंग की आबादी में भी विविधता है। दार्जिलिंग का पुराना नाम दोर्जीलिंग था। सदियों पहले यहां एक छोटा सा गांव था। यहां बर्फीले तूफान आते रहते थे। बाद में यहां कुछ बौद्ध लामा आए तो उन्होंने यहां एक बौद्ध मठ की स्थापना की और वे इस स्थान को दोर्जीलिंग कहने लगे। ‘दोर्जीलिंग’ का अर्थ होता है ‘तूफानों की धरती’। समय के साथ यह नाम बदल कर दार्जिलिंग हो गया। कभी यह क्षेत्र सिक्किम का हिस्सा था। फिर यह नेपाली राजाओं के कब्जे में आया। बाद में अंग्रेजों ने इसे पर्वतीय सैरगाह के लिए उपयुक्त जानकर इस पर अधिकार कर लिया। तब से यह पश्चिम बंगाल का हिस्सा है। चाय के शौकीन अंग्रेजों ने इस क्षेत्र की आबोहवा को चाय की खेती के योग्य पाकर यहां चाय बागान विकसित किए। तब से इस क्षेत्र का वास्तविक विकास शुरू हुआ।

कैसे पहुंचें दार्जीलिंग

हवाई मार्ग: दार्जीलिंग देश के अनके स्थानों से हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है। बागदोगरा (सिलीगुड़ी) यहां का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा है, जो कि यहां से 90 किलोमीटर दूर है। यहां से दार्जिलिंग करीब 2 घण्टे का सफर करके पहुंचा जा सकता है। यहां से कोलकाता और दिल्ली के लिए प्रतिदिन उड़ानें हैं। इसके अलावा गुवाहाटी तथा पटना से भी यहां के लिए उड़ानें संचालित की जाती हैं।

रेलमार्ग: दार्जीलिंग का सबसे नजदीकी रेल जोन है जलपाइगुड़ी है। कोलकाता से दार्जीलिंग मेल तथा कामरूप एक्सप्रेस सीधे जलपाइगुड़ी जाती है । दिल्ली से गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस यहां तक आती है। इसके अलावा ट्वाय ट्रेन से जलपाइगुड़ी से दार्जिलिंग 8-9 घंटे का सफर करके जाया जा सकता है। ट्वॉय ट्रेन का निर्माण 19वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। यह दार्जीलिंग हिमालयन रेलमार्ग और इंजीनियरिंग का एक बेजोड़ नमूना है। यह रेलमार्ग 70 किलोमीटर लंबा है। पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से 7546 फीट ऊंचाई पर स्थित है। ट्वॉय ट्रेन से चारों ओर के प्राकृतिक वातावरण का नजारा लेना मुमकिन है। हिमालयन रेलवे को यूनेस्को ने विश्व सम्पदा स्थल के रूप में दर्ज किया है।

सड़क मार्ग: दार्जीलिंग सिलीगुड़ी से सड़क मार्ग से भी बेहतर तरीके से जुड़ा हुआ है। दार्जीलिंग सड़क मार्ग से सिलीगुड़ी से 2 घण्टे की दूरी पर स्थित है। कोलकाता से सिलीगुड़ी के लिए अनेक सरकारी और निजी बसें चलती है। दार्जीलिंग घूमने का सबसे बेहतर समय है गर्मी। यहां लोगों को गर्मी से राहत तो मिलती ही है, लोग इस मौसम में चाय की पत्तियों को भी टूटते हुए देख सकते हैं।

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