दस्तक-विशेष

दिल्ली : इस जीत को क्या नाम देंगे!

नगर निगम उपचुनावों में कांग्रेस दूसरी बड़ी पार्टी बनी
ramshiromani shukla
राम शिरोमणि शुक्ल

वैसे तो किसी भी उपचुनाव के परिणाम को राजनीतिक गलियारों में बहुत तवज्जो नहीं दी जाती, अगर वह नगर निगम का हो तो और भी ध्यान नहीं दिया जाता। इसके बावजूद दिल्ली नगर निगम की 13 सीटों के लिए हुए उपचुनावों के परिणामों को शायद ही किसी ने हलके में ले पाया हो। ऐसा इसलिए कि इन परिणामों ने दिल्ली की राजनीतिक नब्ज के बारे में यह अहसास करा गए कि यहां के मतदाताओं में क्या चल रहा है। उपचुनावों के बारे में एक सामान्य धारणा यह भी पाई जाती है कि सत्ताधारी पार्टी के प्रत्याशी ही अक्सर विजय प्राप्त कर लेते हैं। बहुत विरले ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब मुख्य विपक्षी पार्टी अथवा कोई निर्दलीय आदि इसमें जीते। इस तरह की तमाम वजहों के मद्देनजर दिल्ली नगर निगम उपचुनाव के परिणाम कई तरह के भिन्न अर्थ प्रदान करने वाले साबित हुए हैं। इसीलिए इनका विशेष महत्व भी कहा जाता है। ज्यादा नहीं तो कम से कम दिल्ली के संदर्भ में इसे समझा ही जा सकता है।
इस पर कोई भी बात करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि दिल्ली के तीन नगर निगमों में भाजपा का कब्जा है। इसके विपरीत दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार है जिसे विधानसभा में प्रचंड बहुमत मिला था। विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा है जिसे मात्र तीन सीटें मिली थीं। इससे पहले दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी। जिन 13 सीटों पर उपचुनाव हुए हैं उसमें भी किसी पर कांग्रेस नहीं थी। यह सभी सीटें इसलिए रिक्त हुई थीं क्योंकि यहां के निर्वाचित प्रतिनिधि विधानसभा के लिए चुन लिए गए थे। विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को एक भी सीट न मिलने के बाद से यह माना जाने लगा था कि दिल्ली में उसकी हालत बहुत कमजोर है। इसके अलावा, की राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी शिकस्त मिल चुकी है। लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद से यह कहा जाने लगा था कि कांग्रेस मुक्त भारत की शुरुआत हो चुकी है। अभी हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस की नाक सिर्फ पांडिचेरी ने बचाई वरना वह उस असम में भी बुरी तरह पराजित हो गई जहां पिछले तीन कार्यकाल से उसकी सरकार थी। इस सबके बीच ही आए दिल्ली नगर निगम उपचुनाव के परिणाम कांग्रेस के लिए तो संजीवन की तरह साबित ही हुए होंगे, राजनीतिक क्षेत्रों में विश्लेषकों को नए तरीके से सोचने के लिए अवश्य ही मजबूर किया होगा।
इसे इन रूपों में भी देखा जा सकता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिले अपार जनसमर्थन के बाद यह माना जा रहा था कि इन उपचुनावों में भी वह अपना अतीत दोहरा सकती है। इसतरह के दावे भी आप की ओर से किए जा रहे थे। लेकिन जब परिणाम आए तो पता चला कि शायद लोगों में अब वह बात नहीं रही है जो विधानसभा चुनाव के समय रही होगी। अगर ऐसा होता तो लोगों ने विधानसभा की तरह इन उपचुनावों में आप को सिर माथे बैठाया होता। इसको लेकर इस तरह की बातें भी की जाने लगी हैं कि इन करीब एक सालों में दिल्ली सरकार और आप की ओर से जिस तरह की राजनीति और काम किए गए हैं, उसके आधार पर ही लोगों ने अपना मत व्यक्त किया होगा। यहां यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि इस दौरान ही दिल्ली में सफाई कर्मचारियों की लम्बी हड़ताल हुई थी जिसकी वजह से लोगों को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा था।
इस हड़ताल के दौरान दिल्ली सरकार और दिल्ली नगर निगमों के बीच के झगड़े काफी बढ़े थे और एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला था। इसके बहाने इस लड़ाई में भाजपा और आमने-सामने थे। इस तरह के सवालों पर भी लोगों ने अवश्य ही गौर किया होगा जब वे मतदान के लिए गए होंगे। परिणाम आने पर वैसे तो आप सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन उसकी संख्या केवल पांच ही रह गई जो विधानसभा चुनाव के अनुपात में आधे से भी कम कही जा सकती है। इससे साफ पता चलता है कि दिल्ल्ी में शायद अब वह स्थिति आप की नहीं रह गई है जो विधानसभा चुनाव में थी। यहां आप को कुल पांच सीटें ही मिल पाईं। इससे आप के इस तरह के दावे भी खोखले साबित नजर आए जिसमें उसकी ओर से यह कहा जा रहा था कि नगर निगमों में आने वाले समय में उसी की सत्ता होगी। कहा जा सकता है कि कम से कम इन उपचुनावों के परिणामों को देखते हुए तो इसकी उम्मीद कम ही की जा सकती है। वैसे भी अभी इन चुनावों में करीब एक साल का वक्त है। तब तक जनता और कितना नाराज होती है अथवा कितना मोहभंग होता है, यह अभी देखना बाकी है।
इसके विपरीत भाजपा के लिए कई कारणों से यह उपचुनाव परिणाम निराशा के कारण बन सकते हैं। भाजपा के लिए दिल्ली बहुत मजबूत राज्य माना जाता रहा है। यह अलग बात है कि आप से पहले दिल्ली में तीन कार्यकाल तक कांग्रेस का शासन रहा है। इसके बावजूद भाजपा एक मजबूत ताकत के रूप में यहां लंबे समय तक रही है। कांग्रेस सरकार के पहले यहां भाजपा की सरकार थी। अभी तीनों नगर निगमों में उसका कब्जा है। इसके अलावा, पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को सभी सातों सीटों पर विजय हासिल हुई थी और कांग्रेस समेत किसी भी दल का खाता तक नहीं खुल सका था। विधानसभा चुनाव में भी भाजपा यह मानकर चल रही थी कि इससे पहले हुए विधानसभा चुनाव की बनिस्पत इस चुनाव में वह बहुमत हासिल कर लेगी।
delho congressहालांकि ऐसा नहीं हुआ और आप को पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में न केवल ज्यादा सीटें मिल गईं बल्कि इतनी ज्यादा मिल गईं कि राजनीतिक पंडितों तक ने दांतों तले उंगली दबा ली थी। इस विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा भी काम नहीं पाया था हालांकि उन्होंने बहुत ज्यादा चुनावी सभाएं दिल्ली में की थीं। इन उपचुनावों में भाजपा भी यह मानकर चल रही होगी और परिपाटी के लिहाज से भी यह माना जा रहा होगा कि इसमें भाजपा मजबूती से उभर सकती है। इस तरह के अनुमान इस आधार पर लगाए जाने स्वाभाविक थे कि भाजपा को अन्य राज्यों में (बिहार को छोड़कर) लगातार विजय मिल रही थी। नगर निगम में वैसे भी काफी मानी जा रही थी, इसलिए भी यह माना जा सकता था कि उसे अपेक्षित सफलता मिल सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब परिणाम आए तो पता चला कि उसे सिर्फ तीन सीटें मिल पाईं और वह तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। भाजपा जैसी पार्टी के लिए यह किसी भी तरह से खराब प्रदर्शन कहा जा सकता है और उसकी भावी उम्मीदों पर पानी फेरने वाला साबित हो सकता है। यह अलग बात है कि भाजपा के नेता मत प्रतिशत आदि के बहाने अपनी इस हार को छिपाने की कोशिश में लगे नजर आए। लेकिन यह तो साफ पता चलता है कि उसकी हालत पतली हो चुकी है। इन उपचुनावों में अगर किसी को सर्वाधिक लाभ हासिल हुआ है तो वह है कांग्रेस जिसे विधानसभा और लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिल पायी थी। यह तब रहा है जब संसद और विधानसभा दोनों में उसकी सरकार थी। उसका एक जगह भाजपा ने तो दूसरी जगह आप ने सफाया कर दिया था। नगर निगम में भी भाजपा का कब्जा था। ऐसे में एक तरफ इस तरह की चर्चाएं आम थीं कि अब दिल्ली में कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं बची है। यहां के दो बड़े विश्वविद्यालयों दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी उसके छात्र संगठन एनएसयूआई को कोई सफलता नहीं मिल पाई थी। कुछ अन्य राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव में भी उसे बड़ी का सामना करना पड़ा था। इन सब आधारों में इस तरह की धारणाएं बनने लगी थीं कि न केवल पूरे देश में बल्कि दिल्ली में भी कांग्रेस के खिलाफ लोगों में भारी गुस्सा है। इसके अलावा दिल्ली के पार्टी संगठन में गुटीय झगड़ों और नेताओं-कार्यकर्ताओं के आपसी झगड़ें और उदासीनता आदि तमाम कारणों से किसी को भी यह लगता था कि कांग्रेस इन उपचुनावों में शायद ही कुछ कर सकेगी। लेकिन जब परिणाम आए तो कहा जा सकता है कि बहुतायत राजनीतिक पंडित आश्चर्यचकित हुए होंगे। यहां की 13 सीटों में से चार सीटें जीतकर कांग्रेस दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आ गई। एक निर्दलीय के भी कांग्रेस के साथ आ जाने से उसकी संख्या पांच हो गई। इससे पता चला कि यहां कांग्रेस नए सिरे से मजबूत होती दिखने लगी है और यह भी माना जाने लगा है कि शायद दिल्ली के मतदाता एक बार फिर नए सिरे से कांग्रेस की ओर देखने लगे हैं। हालांकि यहां इस पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि दिल्ली कांग्रेस के बड़े नेता अजय माकन ने कांग्रेस को न केवल मजबूत बनाने बल्कि उसे मैदान में डटे रहने वाली पार्टी के रूप में स्थापित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। ऐसे समय जब भाजपा और आप नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में मशगूल रहते थे और इसी में अपनी राजनीतिक भलाई देख रहे थे तब माकन के नेतृत्व में कांग्रेस जनता के मुद्दों पर संघर्ष करने में लगी थी। स्वाभाविक रूप से इसका फायदा उसको मिलना था और वह मिला भी। इस जीत के साथ कहा जा सकता है कि दिल्ली में उसे जैसे संजीवनी प्राप्त हो गई हो। इसका अन्य जगहों पर सकारात्मक असर दिखाई दे सकता है। हालांकि कांग्रेसियों के बीच यह मानसिकता बहुत गहरे पैठी होती है कि वे अपने तरीके से चलते और काम करते हैं जिसका उन्हें अक्सर नुकसान भी उठाना पड़ता है।
इसके बावजूद कहा जा सकता है कि दिल्ली नगर निगम की 13 सीटों के उपचुनावों के परिणाम को सिर्फ स्थानीय स्तर नहीं देखा जा सकता है। इसके दूरगामी राजनीतिक निहितार्थ भी सामने आ सकते हैं। वैसे तो अभी हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसे कोई सफलता नहीं मिल पाई बल्कि उसे हार का ही सामना करना पड़ा है। अभी निकट भविष्य में उत्तर प्रदेश समेत जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें भी यही कहा जा सकता है कि उसे शायद ही कोई उल्लेखनीय सफलता मिल पाए। लेकिन अगर राजनीति में संकेतों का कोई मतलब होता है तो कहा जा सकता है कि इन उपचुनावों के परिणामों में वे कहीं न कहीं अवश्य ही छिपे हो सकते हैं। कांग्रेस के साथ पहले भी एक बार ऐसा हो चुका है जब उसके हाथ से दो राज्यों को छोड़कर सभी निकल चुके थे लेकिन उसने खुद को नए सिरे से मजबूत बनाया था। केंद्र में भी उसकी सरकार जा चुकी थी और तब भी लोग यह कहने लगे थे कि अब कांग्रेस का उबर पाना मुश्किल होगा लेकिन वह फिर से सत्ता में आ गई थी। एक बार फिर नए सिरे से उसी तरह की स्थितियां बनती बताई जा रही हैं। चूंकि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता, इसलिए ऐसा हो भी सकता है। लेकिन अगर ऐसा होता तो दिल्ली नगर निगम उपचुनाव में वह दूसरे नंबर की पार्टी कैसे बन जाती। जाहिर है मतदाताओं के भीतर कुछ न कुछ तो अवश्य ही पक रहा होगा वरना वह भाजपा और आप में ही तय करते, कांग्रेस को इतनी सीटें कैसे दे देते। शायद इसीलिए अब कांग्रेस को लेकर एक बार फिर नए सिरे से बातें की जाने लगी हैं।
यह अलग बात है कि भाजपा की ओर से कहा जाने लगा है कि वह कांग्रेस मुक्त भारत की ओर दो कदम और आगे बढ़ चुकी है लेकिन किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में उसे किसी फायदे की किसी को कोई उम्मीद नहीं थी। इसके अलावा असम में एक तरह की सत्ता विरोधी बात पहले से थी। केरल में भी सत्ता कभी एक मोर्चे और कभी दूसरे मोर्चे के पास ही रहती रही है। पांडिचेरी में कांग्रेस खुद को बचा ही ले गई जब यह माना जा रहा था कि वहां भाजपा कुछ कर सकती है। ऐसे में नगर निगम के उपचुनावों के परिणामों को कम से कम कांग्रेस के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा सकता है। =

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