पर्यावरण संकट के दौर में गांधी
गांधी और पर्यावरण पर बात करते समय यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि गांधी के चिंतन या लेखन में ‘पर्यावरण’ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। सच तो यह है कि प्राचीन काल से चले आ रहे हमारे संस्कृति-बोध या भारतीय साहित्य-लेखन में भी यह शब्द नहीं मिलता। यह शब्द तो अंग्रेजी के ‘एनवायरेंटमेन्ट’ शब्द के हिंदी अनुवाद के रूप में पिछले चार-पांच दशकों से हमारे यहां प्रचलन में आया है। स्पष्टत: पर्यावरण शब्द का चलन नया है, पर इससे जुड़ी चिंता या चेतना नई नहीं है, वह भारतीय संस्कृति के मूल में रही है। पर्यावरण का अभिप्राय हवा, पानी, पर्वत, नदी, जंगल, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के समन्वित रूप से है, तो मानना पड़ेगा कि यह सब सदियों से प्रकृति-प्रेम या प्रकृति-मैत्री के रूप में हमारे चिंतन-संस्कार में मौजूद रहे हैं। उषा की प्रार्थना, सूर्य-नमस्कार, नदियों की स्तुति और आरती, भूधर के रूप में पर्वतों की वंदना, वनस्पतियों में ब्रह्म के रोएं की परिकल्पना, मनुष्येतर जीवों के प्रति करुणा का भाव आदि बातें भारतीय जीवन शैली के अभिन्न अंग रही हैं। भारतीय चिंतन की यही प्रवृत्ति हमें गांधी के चिंतन में दिखाई पड़ती है। गांधी पर्यावरण शब्द का प्रयोग नहीं करते, क्योंकि उनके समय में यह शब्द प्रचलित नहीं था, लेकिन प्रकृति प्रदत्त नियामतों से उनका गहरा लगाव जरूर दिखाई पड़ता है। मसलन, वे 20 अक्तूबर 1927 के ‘यंग इंडिया’ के अंक में छपे एक लेख में हिंदू धर्म की विशेषता बताते हुए यह बात कहते हैं- ‘हिंदू धर्म न केवल मनुष्य मात्र की बल्कि प्राणिमात्र की एकता में विश्वास करता है। मेरी राय में गाय की पूजा करके उसने दया धर्म के विकास में अद्भुत सहायता की है। यह प्राणिमात्र की एकता में और इसलिए पवित्रता में विश्वास रखने का व्यावहारिक प्रयोग है।’’ जाहिर है जो प्राणिमात्र की एकता में विश्वास करेगा वह चर-अचर, पशु-पक्षी, नदी-पर्वत-वन सबके सहअस्तित्व में विश्वास करेगा और उस सब के संरक्षण में तत्पर रहेगा। आज पर्यावरण बचाने के नाम पर बाघ, शेर, हाथी आदि जानवरों, नदियों, पक्षियों, वनों आदि को बचाने का जो विश्वव्यापी स्वर उठ रहा है, वही तो सभी प्राणियों की एकता में विश्वास करने वाली बात में अंतर्निहित है। आज पर्यावरण-रक्षा के नाम पर वृक्षारोपण का जो अभियान चलाया जा रहा है, उसके महत्त्व से गांधी भी अवगत थे और अपने धर्म का दायरा विस्तृत करते हुए उसमें वृक्ष-पूजा को भी उन्होंने शामिल कर लिया था। इस संबंध में ‘यंग इडिया’ के 26 सितंबर 1929 के अंक में उनके छपे लेख का यह अंश दृष्टव्य है- ‘‘जब हम किसी पुस्तक को पवित्र समझ कर उसका आदर करते हैं, तो हम मूर्ति-पूजा ही करते हैं। पवित्रता या पूजा के भाव से मंदिरों या मस्जिदों में जाने का भी वही अर्थ है। इन सब बातों में मुझे कोई हानि नहीं दिखाई पड़ती। ऐसी हालत में वृक्षपूजा में कोई मौलिक बुराई या हानि दिखाई देने के बजाय मुझे तो इसमें एक गहरी भावना और काव्यमय सौंदर्य ही दिखाई देता है। वह समस्त वनस्पति-जगत के लिए सच्चे पूजा-भाव का प्रतीक है। वनस्पति जगत तो सुंदर रूपों और आकृतियों का भंडार है, उनके द्वारा वह मानो असंख्य जिह्वाओं से ईश्वर की महानता और गौरव की घोषणा करता है। वनस्पति के बिना इस पृथ्वी पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। इसलिए ऐसे देश में जहां खासतौर पर पेड़ों की कमी है, वृक्ष-पूजा का एक गहरा आर्थिक महत्त्व हो जाता है।’’ गांधीजी के उपरोक्त मंतव्यों को ध्यान में रखने पर यह बात दिन के उजाले की तरह साफ हो जाती है कि पर्यावरण तथा पर्यावरण-संरक्षण का मतलब सभी जीवों, जिनमें चर-अचर सब शामिल हैं, की एकता में विश्वास करते हुए उनके संरक्षण के प्रति जागरूक और सक्रिय रहने में है क्योंकि मनुष्येतर जीवों का आबाद रहना मानव अस्तित्व के बने रहने के लिए आवश्यक है। इसलिए गांधीजी जहां एक तरफ आसपास के वातावरण को स्वच्छ रखने पर बल देते और इस कार्य को खुद भी करते थे, तो दूसरी तरफ वे अहिंसा के अंतर्गत समस्त प्राणियों की रक्षा पर बल देते हुए ऐसी उत्पादन-पद्धति को वांछनीय समझते थे जो प्रकृति के दोहन-शोषण से मुक्त रह कर मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इसी सोच की भूमि पर खड़े होकर वे आजीवन अंध मशीनीकरण- जो मनुष्य को उसके शारीरिक श्रम से वंचित करने का कारण बने- का विरोध करते रहे। दरअसल, जो लोग गांधी की अहिंसा का दायरा सिर्फ मनुष्य द्वारा मनुष्य के खिलाफ हिंसा का निषेध या शाकाहार तक समझते हैं, वे उनकी अहिंसा का अधूरा पाठ समझते हैं। वस्तुत: जब तक नाना प्राकृतिक संसाधनों-वनस्पतियों, नदियों, पर्वतों के साथ-साथ पशु-पक्षियों को आवास सुलभ कराने वाले स्थानों की कीमत पर चलने वाली औद्योगिक पद्धति को बदल कर उसे मानव श्रम, प्रकृति की संगति पर आधारित नहीं करते तब तक अहिंसा अपने संपूर्ण संदर्भ में अर्थपूर्ण नहीं हो सकती। गांधीजी ने बहुत सोच-समझ कर मशीनीकरण की जगह भारत के सदियों पुरातन श्रम आधारित उद्योग-शिल्प को सामने रखा था। उन्होंने 1909 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में दो टूक शब्दों में कहा- ‘‘ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना आता नहीं था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझ कर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है।’’ वस्तुत: गांधीजी की दृष्टि में श्रम आधारित उद्योग-शिल्प ही वह चीज थी जिसकी बदौलत मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास जैसी आवश्यकताओं के जिहाज से स्वावलंबी रहता आया था और अन्य प्राणी भी सुरक्षित रहते आए थे- न कभी पर्यावरण का संकट आया, न पीने के पानी का संकट आया, न ग्लोबल वार्मिंग का खतरा पैदा हुआ, न किसी पशु-पक्षी, पेड़ की प्रजाति के समाप्त होने का खतरा। इसके विपरीत यूरोप की औद्योगिक क्रांति की कोख से पैदा होकर जो उत्पादन-शिल्प सामने आया, वह मजदूरों का शोषण करने वाला तो था ही, प्राकृतिक संपदाओं का भी निर्मम दोहन करने वाला था। कार्ल मार्क्स ने इस उत्पादन-शिल्प के जुए तले मजदूरों का शोषण तो देख लिया, लेकिन मनुष्येतर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को, मशीनीकरण की आंधी से उजड़ते यूरोप को नहीं देख सके। इसे देखा गांधी ने जिसे ‘हिंद स्वराज’ में इन शब्दों में रखा ‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महा पाप है। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली, तो हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी।’ जाहिर है गांधी ने इस औद्योगिक शिल्प के जुए तले मनुष्य और प्रकृति दोनों के धीरे-धीरे मिटते जाने का खतरा भांप लिया था। यही कारण था कि वे हस्त उद्योग और कृषि-उद्योग तक अर्थोपार्जन की गतिविधियों को सीमित रखने की हिमायत करते रहे। साथ ही आदमी देह-सुख को ही साध्य मान कर प्राकृतिक संसाधनों या पर्यावरण की कीमत पर नाना वस्तुओं के आविष्कार और उपभोग की अतिशयता में इस कदर प्रवृत्त न हो जाए कि वही उसके मिट जाने का कारण बन जाए, इसके लिए उन्होंने मनुष्य के आभ्यंतरीकरण पर बल दिया यानी मन से लोभ, तृष्णा, भोग, वासना, विलासिता आदि को दूर करते हुए आवश्यकताओं पर नियंत्रण रखने की बात की, क्योंकि उनके लेखे यह धरती करोड़ों लोगों की आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, पर एक व्यक्ति के भी लोभ को पूरा नहीं कर सकती। प्रसिद्ध लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल का यह कथन गौरतलब है- ‘गांधी ने अपनी आधी सदी से अधिक चिंतन के दौरान यह सिद्ध करने का अनवरत प्रयास किया कि लगातार धरती के पर्यावरण के विनाश की कीमत चुका कर अंधाधुंध औद्योगीकरण आर्थिक दृष्टि से भी निरापद नहीं है। गांधी हमें यह देखने की दृष्टि देते हैं कि हमारे जल-जंगल-जमीन के लगातार भयावह रूप से छीजने से हो रही भीषण हानि के सहस्रांश की भी भरपाई की क्षमता हमारे सुरसावदन बढ़ते उद्योगों में नहीं है। इसका आर्थिक मूल्य अर्थशास्त्र की बारीकियों को बिना जाने भी समझा जा सकता है। गांधी-चिंतन का यह प्रबल उत्तर आधुनिक पक्ष है।’ बरनवाल ने गांधी चिंतन के जिस उत्तर आधुनिक पक्ष की बात की है, दुर्भाग्य से उसे आजाद भारत में पुरातन, पिछड़ेपन का लक्षण मान लिया गया और अब भी माना जा रहा है। विकास के यूरोपीय मॉडल से सावधान करते हुए पांच अक्तूबर 1945 को जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र में गांधी ने कहा था ‘मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उलटी ओर ही जा रही दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है। हो सकता है कि हिंदुस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके। मेरा फर्ज है कि आखिरी दम तक उसमें से उसे और उसकी मार्फत दुनिया को बचाने की कोशिश करूं।’ लेकिन गांधी की इस चेतावनी का असर न भारत के शासकों पर हुआ, न विश्व पर। उलटी ओर जाने का सिलसिला बढ़ता ही गया, जिसके परिणामस्वरूप आज हमारे सामने पर्यावरण का भीषण संकट उपस्थित है। इस संकट का समाधान अगर कहीं है तो वह गांधी के द्वारा बताए उद्योग-शिल्प और आवश्यकताओं पर नियंत्रण की नीति को अपनाने में ही है।