दस्तक-विशेष

फिर जेएनयू के बहाने फरवरी दोहराने की कोशिश

राम शिरोमणि शुक्ल

यह फिर फरवरी-मार्च है। यह 2016 नहीं 2017 का फरवरी-मार्च है। अभी शायद लोग भूले भी नहीं होंगे। यह अलग बात है कि लोग बहुत जल्दी भूल भी जाते हैं। एक साल पहले इसी दौरान देशद्रोह का काफी हल्ला मचा था। तब निशाने पर देश का प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय स्तर का विश्वविद्यालय जेएनयू और छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार थे। कुछ अन्य छात्र भी थे। सभी पर देशद्रोह का आरोप चस्पा किया गया। किसी को भी नहीं छोड़ा गया। जिसने भी जेएनयू और कन्हैया आदि के पक्ष में कुछ भी बात की, एक स्वर से देशद्रोही घोषित कर दिया गया। तब अचानक लगने लगा था जैसे पूरा देश दो भागों में बंटा हुआ है। एक तरफ देशभक्त और दूसरी तरफ देशद्रोही। लेकिन कुछ समय बाद सब ठंडा पड़ गया। सम्माननीय अदालतों ने आरोपियों को जेल में रखने लायक नहीं माना और सभी देशद्रोह के आरोपी जेलों से बाहर आ गए। कन्हैया कुमार भी जिन पर अदालत परिसर में वकीलों द्वारा हमला तक किया गया था। इसके बाद सब कुछ धीरे-धीरे ठंडा पड़ता गया। अब एक साल बाद फिर नए सिरे से जेएनयू को घसीट लाने की कुछ उसी तरह की कोशिशें शुरू कर दी गई हैं, जैसे एक साल पहले की गई थीं।
इस पर बाद में कि पिछले साल क्या हुआ था। पहले इस पर अब इस फरवरी-मार्च में क्या किया जा रहा है और कैसे उसे नए सिरे से ताजा किया जा रहा है। आखिर वह कौन सी जरूरतें और मजबूरियां हैं। अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध रामजस कालेज में वामपंथी छात्र संगठनों और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। कुछ छात्र और यहां तक की अध्यापक और कुछ पत्रकार भी घायल हुए। पुलिस की ओर से न सुरक्षा के उपयुक्त उपाय किए गए और न ही झगड़े को रोकने को लेकर कोई मुस्तैदी दिखाई गई। यह विवाद एक दिन पहले किए गए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों के हंगामे के बाद का था। दरअसल, रामजस कालेज में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। कालेज की लिटरेरी सोसायटी वर्डक्राफ्ट ने ‘कल्चर आफ प्रोटेस्ट’ नाम से दो दिवसीय कार्यक्रम रखा था। इसके एक सत्र में संबोधन के लिए जेएनयू के छात्र उमर खालिद और छात्रसंघ की पूर्व उपाध्यक्ष शेहला राशिद को आमंत्रित किया गया था। इसकी जानकारी होने पर विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने यह कहते हुए हंगामा किया कि इन दोनों ‘देशद्रोहियों’ का आमंत्रण रद्द किया जाए। इन कार्यकर्ताओं ने जमकर नारेबाजी की, पत्थर फेंके, सेमिनार कक्ष को बंद कर दिया और बिजली की आपूर्ति भी काट दी। हंगामा बढ़ता देख कालेज प्रशासन ने आमंत्रण रद्द भी कर दिया। बाद में कालेज प्रशासन की ओर से दी गई सूचना पर पुलिस भी वहां पहुंची। इसके अगले दिन विवाद तब और बढ़ गया जब आमंत्रण रद्द किए जाने के खिलाफ छात्र संगठन आइसा के विरोध प्रदर्शन पर विद्यार्थी परिषद कार्यकर्ता आक्रामक हो गए। फिर दोनों संगठनों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़प हुई। इस दौरान पुलिस की भूमिका पर भी कई सवाल उठाए गए।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि उमर खालिद उन पांच छात्रों में से एक हैं जिन पर पिछले साल फरवरी-मार्च के दौरान ही राजद्रोह का केस दर्ज किया गया था। आरोप लगाया गया था कि जेएनयू में संसद हमला मामले के दोषी आतंकी अफजल गुरु के समर्थन में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिसमें देश विरोधी नारे लगाए गए थे। आरोप लगाया गया था कि नारेबाजी करने वालों में छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उमर खालिद आदि शामिल थे। फिलहाल ये छात्र जमानत पर बाहर हैं। पिछले साल इन फरवरी-मार्च के महीनों में चारों तरफ जेएनयू की ही बातें थीं और देशप्रेम-देशद्रोह। टीवी चैनलों से लेकर अखबारों और सोशल मीडिया तक, गांवों-गलियों से लेकर शहरों-मुहल्लों तक, राष्ट्रीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक चारों पर केंद्र में था जेएनयू। आगे था देशद्रोह का मुद्दा और कोशिश थी जेएनयू को बंद करा देने की। ऐसे-ऐसे तर्क पेश किए जा रहे थे जैसे सारी समस्या की जड़ जेएनयू ही है। जेएनयू के बारे में जो लोग थोड़ा भी जानते हैं, उन्हें यह पता होगा कि इस विश्वविद्यालय की अपनी कितनी महत्ता है। ऐसे समय जब देश का कोई विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना कोई स्थान रख पाता, यह जेएनयू ही है जिसकी अपनी पहचान है। इसके बाद भी आखिर इसे बंद करने की मांग क्यों की जा रही थी। घटनाएं होती हैं, कथित रूप से कुछ बहुत खराब स्थितियां भी उत्पन्न हो सकती हैं, लेकिन क्या इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इतने बड़े संस्थान को ही बंद करने की कोशिशें की जाने लगें।
यह सवाल इसलिए ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि तब यह आरोप भी लगाए जा रहे थे कि एक खास विचारधारा के संगठनों की ओर से जानबूझकर यह सब किया जा रहा था। एक रिपोर्ट के मुताबिक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ में नवंबर 2015 के अंक में एक स्टोरी प्रकाशित की गई थी। इसमें कहा गया था कि भारत की अखंडता व देशभक्ति के लिए यह विश्वविद्यालय सबसे बड़ा खतरा है। इसके पीछे कारण भी बताए गए थे जिनके अनुसार इस विवि में दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों आदि के सवालों पर बहसें की जाती हैं। विवि के पाठ्यक्रमों में भी ये विषय शामिल हैं और शोध भी कराए जाते हैं। वंचितों के अधिकार की, समानता की, आजादी की बात उठती है, तो ‘एक भारत’ को चोट लगती है। जेएनयू ‘दरार का गढ़’ है क्योंकि यहां ‘राष्ट्र को तोड़ने’ की नित नई कसमें बुनी जा रही हैं, क्योंकि यहां ‘भारत की बर्बादी’ के लाल-लाल सपने देखे जाते हैं।
यह स्टोरी केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के करीब एक साल बाद आती है। इसी एक-डेढ़ साल के भीतर जेएनयू के बारे में ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए जाते हैं जिनके बारे में वहां के वर्तमान और पुरातन छात्र, अध्यापक और वहां से पढ़कर निकले अनगिनत विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे लोगों को कभी पता ही नहीं था। यहां तक कि पिछली तमाम सरकारों और प्रशासन को भी। इसके बाद अचानक फरवरी में बता दिया गया कि यह ‘देशद्रोहियों का अड्डा’ बन गया है और इससे बचाव का एक मात्र उपाय इस विवि को बंद कर देना है। हालांकि इसमें वे असफल रहे। उनकी असफलता यह भी रही कि वे कन्हैया समेत तमाम छात्रों को अभी तक ‘देशद्रोही’ नहीं साबित कर पाए। अब नए सिरे से एक बार फिर उस कोशिश को दोहराने की असफल कोशिश की जा रही है।
यह अनायास नहीं है कि एक साल बाद फिर फरवरी को ही चुना गया, वरना इससे पहले भी कन्हैया भी तमाम कार्यक्रमों में जाते रहे और उमर खालिद भी इसी समाज में है। अभी तक किसी तरह की कथित देशद्रोही गतिविधि इनकी ओर से इन ‘देशभक्तों’ को भी नहीं नजर आई। यही कारण है कि लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि अगर वे सेमीनार में चले ही जाते और बोल ही देते तो क्या हो जाता। दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह उठाया जा रहा है कि आखिर उन देशविरोधी नारे लगाने वालों का अभी तक क्यों नहीं चिन्हित किया जा सका या पता लगाया जा सका। यह भी कि उस मामले में आखिर पुलिस अभी तक चार्जशीट क्यों नहीं दाखिल कर सकी। खुद कन्हैया कुमार ने यह सवाल उठाया है। ताजा घटना में जहां एक बार फिर विद्यार्थी परिषद पर सेमिनार रोकने, बोलने न देने और हिंसक हमले करने का आरोप लगा है वहीं पुलिस के रवैये पर भी सवाल उठे हैं। लोगों का कहना है कि विश्वविद्यालय में बहस-मुबाहसा और विचार-विमर्श नहीं होगा तो क्या होगा। जहां तक आरोपी छात्र को बुलाने का सवाल है तो उमर खालिद पर अभी सिर्फ आरोप ही है, साबित नहीं हुआ है। ऐसे तो किसी पर कोई आरोप लगाकर उसे बोलने तक नहीं दिया जाएगा। कुछ लोगों का यहां तक कहना है कि कश्मीर में आए दिन देश विरोधी नारे लगाए जाते हैं और पाकिस्तान के झंडे लहराए जाते हैं।
वहां जाकर विद्यार्थी परिषद के लोग अथवा अन्य इस तरह के लोग जाकर क्यों नहीं उन्हें रोकते? वहां तो यही लोग ऐसे लोगों के पक्ष में बोलने वालों के साथ सरकार भी बना लेते हैं और सब कुछ होने देते हैं। एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि आखिर विद्यार्थी परिषद के लोग मध्यप्रदेश में इस तरह का विरोध शिवराज सिंह सरकार के खिलाफ क्यों नहीं करते। वहां तो आईएसआई के पकड़े गए एजेंट भाजपा से संबद्ध रहे हैं। ऐसे मामलों पर चुप्पी और सेमिनार-सभा पर हमला जानबूझ कर किया जाता है।
नजीब का गायब होना और उनकी मां का संघर्ष
रामजस कालेज में जो विद्यार्थी परिषद ने सेमिनार नहीं होने के लिए आक्रामक रुख अपना रखा है, उस पर आरोप है कि उसके कुछ सदस्यों का नजीब के साथ विवाद हुआ था। उसके बाद से नजीब गायब है। पुलिस महीनों बाद भी नजीब का पता नहीं लगा सकी है। विद्यार्थी परिषद पर आरोप गलत भी हो सकते हैं, उसी तरह जिस तरह कन्हैया और छात्रों पर गलत हो सकते हैं। एक छात्र संगठन होने के नाते अगर वह वाकई छात्रों के हितों के लिए लड़ने वाला है तो विद्यार्थी परिषद का भी यह दायित्व बनता था कि वह नजीब को खोजने के लिए आंदोलन करता। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। बताया जाता है कि अक्टूबर में जेएनयू हॉस्टल चुनाव में मेस सचिव पद के प्रत्याशी विक्रांत यादव प्रचार के लिए नजीब के कमरे में गए थे। वहां कुछ कहासुनी हुई। विक्रांत विद्यार्थी परिषद का बताया जाता है। उत्तर प्रदेश के बदायूं का रहने वाला नजीब मावी-मांडवी हॉस्टल के कमरा नंबर 106 में रहता था। बाद में पता चला कि इस कहासुनी के बाद कुछ छात्रों ने उसके कमरे में जाकर उस पर हमला किया। उसके बाद से वह गायब है। परिजनों की शिकायत पर बसंत कुंज थाना पुलिस ने अपहरण का मामला दर्ज किया लेकिन अभी तक उसका कोई सुराग नहीं मिल सका है। इस बीच नजीब की मां और भाई भी दिल्ली पहुंचे। उन्होंने पुलिस से लेकर तमाम अधिकारियों से गुहार लगाई लेकिन कुछ नहीं हुआ। नजीब को खोजने के लिए तमाम वामपंथी छात्र संगठनों ने लगातार आंदोलन किया। नजीब की मां को तो हिरासत तक में लिया गया। लेकिन नजीब का अभी तक पता नहीं चल सका है।

राष्ट्रपति के हाथों जेएनयू को पुरस्कार
यह अपने आप में कई सवालों के जवाब है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा छह मार्च को जेएनयू को देश के सर्वोत्तम विश्वविद्यालय का पुरस्कार मिलेगा। जिन लोगों ने एक साल पहले शटडाउन जेएनयू के नारे लगाए थे, उन्हें अब तो यह मान लेना चाहिए कि देश को गौरवान्वित होने का मौका उसी जेएनयू ने ही दिया है। जिन लोगों ने लगातार इस विश्वविद्यालय के खिलाफ अभियान चला रखा है, उन्हें क्या यह अच्छा नहीं लगेगा कि उनके देश का एक विश्वविद्यालय राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कृत किया गया। यहां यह ध्यान में रखे जाने की जरूरत है कि इसके पूर्व भारत सरकार के संबद्ध मंत्रालय की ओर से कराए गए एक सर्वेक्षण में भी जेएनयू सर्वश्रेष्ठ साबित हो चुका है। ऐसे में वहां के छात्रों, अध्यापकों, पाठ्यक्रमों और लोकतांत्रिक वातावारण के खिलाफ माहौल बनाना कैसे जायज ठहराया जा सकता है। वह भी तब जब लगाए गए आरोप अभी भी आरोप हैं। इससे पता चलता है कि सब कुछ जानबूझकर योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है और इसके पीछे पढ़ने-पढ़ाने व सुनने-सुनाने का वातावरण समाप्त करने का षड्यंत्र के अलावा कुछ नहीं लगता है।

रोहित वेमुला की आत्महत्या के भी एक साल
लोगों को यह याद रखना चाहिए कि पिछले साल ही हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला को भी आत्महत्या करनी पड़ी थी। आत्महत्या से पहले वेमुला ने एक नोट भी लिखा था जिसमें उसने बताया था कि किस तरह एक विशेष छात्र संगठन के सदस्यों द्वारा उसका उत्पीड़न व अपमान किया जा रहा था। इससे मजबूर होकर वह आत्महत्या कर रहा है। इस आत्महत्या मामले में भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय पर भी आरोप लगे थे। लेकिन इस मामले में भी किसी भी आरोपी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। अब एक साल बीतने पर एक नई खोज प्रस्तुत कर दी गई कि रोहित वेमुला दलित नहीं था। गुंटूर जिले के कलक्टर कांतिलाल दांडे ने कहा कि रोहित दलित नहीं ओबीसी था। रोहित और उनकी मां ने धोखे से ऐसी सर्टिफिकेट बनवाया। स्तरीय समीक्षा समिति की जांच के मुताबिक रोहित और उनकी मां का स्टेटस ओबीसी था। रोहित की मां को यह साबित करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया गया कि वह दलित है। रोहित की खुदकुशी के बाद देशव्यापी विरोध के दौरान तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने पूरे विवाद को नया मोड़ देने की कोशिश के तहत कह दिया था कि वेमुला दलित नहीं था। अब कलक्टर ने उसी पर मुहर लगा दी। तब भी यह सवाल उठे थे और अभी भी यह सवाल उतना ही प्रासंगिक है कि रोहित को आत्महत्या के लिए तो मजबूर किया गया और तब वह दलित था। तब तक सभी को यह पता था कि वह दलित है और इसीलिए उसे परेशान किया जाता रहा। अभी भी अगर वह दलित नहीं भी है तो क्या किसी को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा सकता है।

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