दस्तक-विशेषराजनीति

बाप से बढ़कर बेटा : गाथा तख्तापलट की

ज्ञानेन्द्र शर्मा
पिछले साल की 15 अगस्त को जब बाहुबली मुख्तार अंसारी से जुड़े कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय की फिर चर्चा छिड़ी और अखिलेश ने उसका कड़ा विरोध किया तो उस समय किसी को दूर-दूर तक अंदाज नहीं था कि अगले चार महीने में कहानी बाप-बेटे के बीच द्वन्द्व में ऐसी उलझेगी कि पार्टी का विभाजन हो जाएगा। जो उपसंहार लिखा गया, वह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने लिए एक अनुपम न्यू इयर गिफ्ट लेकर आया तो पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के लिए उनके लम्बे राजनीतिक जीवन का सबसे दुखद क्षण।
तेरह सितम्बर की तारीख आते ही विवादास्पद मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटा दिया गया, शिवपाल यादव ने इस्तीफे की धमकी दे दी और मुख्यमंत्री ने उनके सारे महत्वपूर्ण विभाग छीनकर उन्हें एक निष्प्रभावी मंत्री बना दिया। और फिर प्रारम्भ हुआ साल का सबसे चर्चित महा-यादव संग्राम। साल खत्म होते-होते पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव निस्तेज कर दिए गए और एक रक्तहीन पख्तापलट में उनके बेटे ने उनकी गद्दी संभाल ली। मुलायम सिंह का वही हाल किया गया जो 2014 में भाजपा के सत्ता में आने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी का किया था। शिवपाल हटा दिए गए और अमर सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। मुलायम सिंह चुप नहीं बैठे। उन्होंने इस सबको चुनौती दी और प्रो0 रामगोपाल यादव को तीन दिन में दूसरी बार पार्टी से निकाल दिया। जल्दी ही पार्टी और चुनाव चिन्ह पर कब्जे की दौड़ शुरू हो गई और मामला चुनाव आयोग के पास पहुंच गया। लगता है कि चुनाव आयोग जो भी फैसला देगा उसे अदालत में चुनौती दी जाएगी और हो सकता है कि दोनों दल अलग-अलग चुनाव चिन्ह पर विधानसभा चुनाव लड़ें और पूरा झगडा़ चुनाव के बाद तक खिंच जाय।
अमर सिंह: दो बातों में पूरे घटनाक्रम की भविष्यवाणी के दर्शन होते थे। 24 अक्टूबर को हुए पार्टी सम्मेलन के मौके पर शिवपाल यादव ने रहस्योद्घाटन किया था कि उन्हें अखिलेश ने बताया था कि वे नई पार्टी बनाएंगे तो दूसरी तरफ अमर सिंह को यह कहते हुए बताया गया कि अखिलेश जल्दी ही मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटा दिए जाएंगे। बहुत से लोग कहते हैं कि यदि कौमी एकता दल का सपा में विलय न किया गया होता और अमर सिंह को पार्टी अध्यक्ष तवज्जो देना बंद कर देते तो संकट टल जाता और पार्टी टूटती नहीं। बहुत से लोग मानते हैं कि पूरी कथा के खलनायक अमर सिंह ही हैं। जब अखिलेश अमर सिंह को ‘बाहरी’ बताते हुए उनका खुला विरोध कर रहे थे तो मुलायम सिंह उनकी तारीफ के पुल बांधते थे और यह तक कहते थे कि अमर सिंह उनके साथ न होते तो वे आज जेल में होते। कैसे जेल में होते इसकी व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की लेकिन माना यह जाता है कि वे आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट में उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे के सिलसिले में यह कह रहे थे। उनके खिलाफ यह मुकदमा कोर्ट ने खारिज कर दिया था और इस मामले में मुलायम सिंह यादव बरी हो गए थे। मुलायम सिंह पर अमर सिंह का जादू चढ़कर बोलता था। वे न केवल पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बना दिए गए बल्कि कुछ समय बाद ही संसदीय बोर्ड में भी उन्हें जगह दे दी गई।
अभी भी अखिलेश खेमा यह मानता है कि अमर सिंह ने बाप बेटे में झगड़ा कराया और वे लगातार यह प्रयास करते रहे कि अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी से किसी तरह हटाया जाय। अखिलेश से अमर सिंह की नाराजगी काफी समय से चल रही थी क्योंकि सरकार के कामकाज में वे दखलंदाजी देकर अपने काम नहीं करा पाते थे। उन्होंने दीपक सिंघल को शिवपाल यादव के मार्फत मुख्य सचिव की कुर्सी पर तो बिठा दिया लेकिन सरकारी दरबार में पाइपलाइन फिर भी नहीं डाल पाए। यह बात जगजाहिर थी कि अमर सिंह की सिफारिश पर ही दीपक सिंघल को कई सीनियर अफसरों को सुपरसीड कराकर प्रशासन की सबसे ऊंची कुर्सी पर बिठाया गया था। पार्टी के रजत जयंती समारोह में मुख्यमंत्री ने इस बात का खुलासा इन शब्दों में किया था: ‘दीपक सिंघल से मैंने कहा था कि अध्यक्ष जी से पैरवी कर लो’।
इमेज का सवाल: पार्टी की इस अंतर्कलह की दूसरी प्रमुख वजह मुख्यमंत्री अखिलेश की अपनी इमेज को संजोकर रखने की तड़प थी। जब उन्होंने कुर्सी संभाली थी तो पश्चिम के बाहुबली डी0 पी0 यादव की पार्टी में इन्ट्री का विरोध कर यह जताया था कि वे पार्टी में बाहुबलियों और दागदार लोगों को नहीं आने देंगे। उनकी इस इमेज को बार बार धक्का लगा और जब मुलायम सिंह की सहमति से शिवपाल यादव ने 325 उम्मीदवारों की सूची जारी की तो उसमें कई बाहुबलियों को जगह दे दी गई। पार्टी की लोकतांत्रिक इमेज को उस समय भारी चोट पहुंची जब पार्टी के संसदीय बोर्ड या उसके प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश को पहले प्रत्याशी सूची का मुंह तक नहीं दिखाया। तब अखिलेश ने जवाबी कार्यवाही की और अपनी समानान्तर सूची जारी कर दी। पिछले साल 23 अक्टूबर को मुलायम ंिसंह ने अखिलेश की ओर इशारा करते हुए कहा था: ‘तुम्हारी हैसियत क्या है’। लेकिन जल्दी ही अखिलेश ने अपनी हैसियत दिखा दी। उन्होंने जब विधायक दल की बैठक 30 दिसम्बर को बुलाई तो 229 में से करीब 200 विधानसभा सदस्य उसमें पहुंच गए। विधान परिषद के सदस्य भी भारी संख्या में पहुंचे और जब एक जनवरी को राष्ट्रीय प्रतिनिधि सम्मेलन बुलाया गया तो उसमें किरनमय नन्दा, रेवतीरमण सिंह, नरेश अग्रवाल, बलराम यादव, अहमद हसन जैसे मुलायम सिंह के कई नजदीकी नेता पहुंच गए। इस सम्मेलन की पूरी स्क्रिप्ट प्रो0 रामगोपाल यादव ने लिखी थी जो दिल्ली में पार्टी के थिंक टैंक माने जाते रहे हैं। मुलायम सिंह यादव तमाम कानूनी, संसदीय और चुनावी मामलों में रामगोपाल यादव पर पूरी तरह निर्भर रहते थे।
अखिलेश ने विकास कार्यों को गति देकर और युवा जोश दिखाकर आम लोगों और पार्टी कार्यकर्ताओं में अपनी गहरी पैठ बनाई। फिर उन्होंने किसी मोड़ पर भी अपने पिता की आलोचना नहीं की और बार-बार कहते रहे कि उनके प्रति उनकी आस्था कभी कम नहीं होगी। उन्होंने खुद को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए जाने पर नाराजगी तो प्रकट की थी लेकिन किसी बड़े नेता की आलोचना नहीं की। वे यह जरूर कहते रहे कि उन्हें टिकटों के वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका दी जानी चाहिए। यह बात उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कही थी। यही कारण था कि जब पार्टी में विभाजन की रेखाएं उभरकर आने लगीं तो अखिलेश को पार्टी समर्थकों का भारी समर्थन मिला और उन्हें पार्टी से निकाले जाने की बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई। उनके समर्थक इतने उग्र हो गए थे कि मुलायम सिंह को वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाकर अपने आवास के इर्दगिर्द सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त करानी पड़ी थी।
पार्टी की छवि: बहुत से लोग यह बात लगातार कहते रहे हैं कि यह पूरी की पूरी पटकथा मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश की इमेज बनाने और उन्हें आगे बढ़ाने को लिखी थी। लेकिन यह बात उस समय गलत साबित हो गई कि राष्ट्रीय सम्मेलन में खुद मुलायम सिंह को हटा दिया गया और अखिलेश पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठे। फिर पूरे प्रकरण ने जिस तरह से पार्टी की बदनामी की और आम लोगों में बाप-बेटे के संघर्ष पर तंज कसे जाने लगे तो भी इस पटकथा की बात गलत साबित हो गई। जनता में यह संदेश गया कि पार्टी में जब बाप बेटा एक साथ नहीं रह सकते तो वह आम लोगों की भलाई क्या करेगी। वे यह भी कहते रहे कि सपा में विभाजन से दूसरे दलों को फायदा होगा।
विपक्ष में बैठे दल सपा के घटनाक्रम पर टकटकी लगाए बैठे रहे। कभी उन्हें निराशा होती थी तो कभी उनकी आंखों में चमक जाग उठती थी। खासकर बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को बराबर यह उम्मीद रही है कि सपा की टूटन उन्हें राजनीतिक लाभ देगी। अब अगर पार्टी का औपचारिक विभाजन हो गया तो निश्चित ही विरोधी दल फायदे में रहेंगे क्योंकि सपा के यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर पार्टी की पकड़ कमजोर होगी और उसके वोटों का बिखराव होगा। दूसरी बड़ी चोट अखिलेश की उस इमेज पर होगी जो उन्होंने विकास कार्यों को आगे बढ़ाकर स्थापित की है। अखिलेश के समर्थक बराबर यह कहते रहे हैं कि हम विकास के दम पर चुनाव लडे़ंगे।
कांग्रेस से गठजोड़: अखिलेश ने बार बार यह कहा कि यदि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का चुनाव पूर्व गठबंधन हुआ तो हम 300 सीटें जीतेंगे। जाहिर है कि वे कांग्रेस से गठजोड़ के प्रबल समर्थक हैं। उनकी चली तो यह गठजोड़ होना लगभग निश्चित है और यह भी तय है कि दोनों दलों को इससे लाभ मिलेगा। सीटों का बंटवारा ही एक रोड़ा है जिसे देर सवेर दूर कर लिया जाएगा। कांग्रेस यह मांग करती रही है कि उसे हर जिले में कम से कम एक सीट दे दी जाय ताकि उसकी प्रदेशव्यापी उपस्थित दर्ज हो। लेकिन यह मांग स्वीकार किया जाना असंभव है। इसकी मुख्य वजह यह है कि 13 जिले तो ऐसे हैं जिनमें पिछले चुनाव में सपा ने सारी की सारी सीटें जीती थीं। ये जिले हैं: अम्बेडकरनगर, अमरोहा, इटावा, एटा, औरैया, कन्नौज, बलरामपुर, बाराबंकी, भदोही, मैनपुरी, संभल, श्रावस्ती और सुलतानपुर। इन जिलों में तो कांग्रेस को कोई सीट सपा देगी नहीं । कांग्रेस पिछले चुनाव में 28 सीटें जीती थी और 30 पर वह दो नम्बर पर रही थी। लेकिन 30 पर वह जिन सीटों पर दूसरी नम्बर थी, उनमें से 15 सीटें तो सपा ही जीती थी। यानी इन 15 सीटों पर सपा पहले पर और कांग्रेस दूसरे नम्बर पर थी। तो ये 15 सीटें भी सपा कांग्रेस को नहीं ही देगी। शेष बची 15 सीटें उसे मिल सकती हैं। इनमें से वह बसपा से और 6 पर भाजपा से दूसरे नम्बर पर रही थी। तो इस तरह 28 और 15 यानी 43 सीटों पर तो उसका दावा साफ-साफ नजर आता है। हालांकि उसकी ओर से कम से कम 100 सीटों की मांग की जाएगी। उदाहरण बिहार का दिया जाएगा। वहां हुए चुनाव में भाजपा-विरोधी गठबंधन ने 41 सीटें कांग्रेस को लड़ने को दे दी थीं जबकि उसके पास उस समय केवल चार विधायक थे। दूसरे छोर पर राष्ट्रीय लोकदल से भी सीटों का तालमेल किए जाने की संभावना नजर आती है। हालांकि अजित सिंह अभी अखिलेश की जगह मुलायम सिंह के साथ जाना ज्यादा पसंद करेंगे। फिर लोकदल कम से कम 35 सीटों की मांग रखेगा जिसे पूरा कर पाना सपा के लिए संभव नहीं होगा।
सपा-कांग्रेस गठजोड़ के समर्थक मुख्य रूप से यह तर्क देते हैं कि मुसलमान वोटों का विभाजन रोके बिना भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देना बहुत मुश्किल होगा। उनका कहना है कि यदि अखिलेश की सपा और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो यह विभाजन रुकेगा क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा को हराने की ताकत रखने वाला एक बड़ा विकल्प साफ साफ सामने नजर आएगा। तब वह बहुजन समाज पार्टी को तरजीह नहीं देगा। मुस्लिम और यादव मतदाताओं का बंटवारा रोकने में यदि सपा-कांग्रेस गठजोड़ को सफलता मिलती है तो ब्राह्मण भी उसकी तरफ झुक सकते हैं। बहुत सारे वे मतदाता जो मेंढ़ पर बैठे हैं उन्हें भी सपा-कांग्रेस गठबंधन जीतता हुआ नजर आएगा और वे भी उसकी तरफ अंतत: झुक सकते हैं। ये समीकरण बसपा और भाजपा को बराबर की चोट देने की क्षमता रखते हैं। 

2016 का चर्चित सपा का घटनाक्रम
15 अगस्त: कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में लिय किए जाने का प्रस्ताव फिर जिन्दा। अखिलेश यादव ने फिर टांग अड़ाई तो शिवपाल यादव ने दी इस्तीफे की धमकी। मुलायम सिंह यादव ने रोका।
13 सितम्बर: शिवपाल के नजदीकी अफसर मुख्य सचिव दीपक सिंघल हटाए गए। शिवपाल की इस्तीफे की धमकी।
13 सितम्बर: शिवपाल बनाए गए समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष। अखिलेश ने अध्यक्ष पद पर छोड़ा पर संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष रहेंगे। मुख्यमंत्री अखिलेश ने शिवपाल सिंह यादव से सिंचाई, लोक निर्माण, सहकारिता, राजस्व जैसे कई महत्वपूर्ण विभाग छीने। घमासान तेज।
14 सितम्बर: अखिलेश यादव कहते हैं परिवार में नहीं है झगड़ा। यह तो सरकार का मामला है। बाहरी लोग हस्तक्षेप करते रहेंगे तो कैसे चलेगा सरकारी कामकाज।
15 सितम्बर: पार्टी महासचिव रामगोपाल यादव कहते हैं कोई संकट नहीं है। पार्टी नेता नरेश यादव कहते हैं कि अगले चुनाव में अखिलेश यादव होंगे मुख्यमंत्री का चेहरा।
15 सितम्बर: शिवपाल का मंत्रिमण्डल से इस्तीफा। पार्टी अध्यक्ष पद भी छोड़ा।
16 सितम्बर: अखिलेश यादव कहते हैं शिवपाल पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे।
18 सितम्बर: अध्यक्ष पद संभालने के बाद शिवपाल ने रामगोपाल यादव के नजदीकी रिश्तेदार को कई आरोपों में पार्टी से हटाया।
19 सितम्बर: शिवपाल ने तीन विधान परिषद सदस्यों सहित सात नेताओं को पार्टी से हटाया। मुलायम सिंह यादव के खिलाफ अपनानजनक बातें कहने का आरोप। ये सभी अखिलेश के नजदीकी।
20 सितम्बर: ‘बाहरी’ व्यक्ति अमर सिंह सपा के राष्ट्रीय महामंत्री नियुक्त। पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपने हस्ताक्षर से जारी किया नियुक्ति पत्र।
14 अक्टूबर: मुलायम सिंह बोले अगले मुख्यमंत्री का चुनाव पार्टी के नवनिर्वाचित विधायक चुनाव के बाद करेंगे। एक तरह से अखिलेश को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करने से मनाही।
16 अक्टूबर: रामगोपाल यादव बोले अखिलेश होंगे मुख्यमंत्री का चेहरा। शिवपाल भी बोले वे खुद ही अखिलेश का नाम प्रस्तावित करेंगे।
21 अक्टूबर: अखिलेश ने शिवपाल द्वारा बुलाई गई बैठक का बहिष्कार किया।
22 अक्टूबर: पार्टी विधायक उदयवीर सिंह ने मुलायम सिंह यादव की पत्नी पर लगाया अखिलेश के खिलाफ अभियान चलाने का आरोप। पार्टी से निष्कासित।
23 अक्टूबर: अखिलेश ने अपने आवास पर बुलाई पार्टी विधायकों की बैठक। यह बैठक मुलायम सिंह यादव द्वारा बुलाई गई ऐसी ही बैठक के एक दिन पहले हुई
23 अक्टूबर: शिवपाल यादव व उनके नजदीकी तीन मंत्री नारद राय, ओमप्रकाश यिंह व फातिमा सईद सरकार से बर्खास्त।
23 अक्टूबर: शिवपाल ने मुलायम सिंह की सलाह से रामगोपाल यादव को पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित किया। खुद अपने आपको और अपने बेटे को बचाने के लिए भाजपा से मेलमिलाप करने का आरोप। कहा वे पार्टी में गुंडों को शरण देते हैं।
24 अक्टूबर: मुलायम सिंह ने अखिलेश की ख्ािंचाई की। कहा, पद पाकर दिमाग खराब हो गया है। तुम्हारी हैसियत क्या है। चुनाव जीत सकते हो। भाजपा आ जाएगी तो कभी नहीं जीतोगे। शिवपाल के गले लगो। अखिलेश ने शिवपाल के मंच पर पैर छुए। अखिलेश का सरेआम अपमान। अखिलेश ने कहा कि एक बयान दिलाया गया अमर सिंह की ओर से कि मुलायम शाहजहां हैं और मैं औरंगजेब। शिवपाल ने अखिलेश से मंच पर माइक छीना और कहा कि मुख्यमंत्री झूठ बोल रहे हैं। हंगामा और नारेबाजी के बीच विधायकों, सांसदों आदि की बैठक खत्म।
25 अक्टूबर: मुलायम सिंह ने पत्रकारों से कहा वे तीन महीने के लिए मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे। अखिलेश अपने पद पर रहेंगे।
26 अक्टूबर: वन राज्य मंत्री पवन पांडे पार्टी से निष्कासित। शिवपाल ने उनसे कहा पांडे को मंत्रिपरिषद से हटाएं पर अखिलेश ने नहीं हटाया।
4 दिसम्बर: रामगोपाल यादव को पार्टी में वापस लिया गया। उन्होंने कहा कि वे केन्द्रीय पार्टी के महासचिव हैं। टिकटों के बंटवारे में अंतिम राय उन्हीं की होगी।
7 दिसम्बर: अमर सिंह पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड के सदस्य बनाए गए।
14 दिसम्बर: अतीक अहमद सहित कई विवादास्पद नेताओं को पार्टी का टिकट दिया।
25 दिसम्बर: पार्टी/परिवार अंतर्कलह का नया दौर शुरू। अखिलेश ने 403 उम्मीदवारों की सूची मुलायम सिंह को सौंपी। इससे पहले मुख्यमंत्री ने कई विधायकों से बात की। सूची में कई विवादास्पद और आपराधिक छवि वालों के नाम नहीं। शिवपाल बोले, 175 उम्मीदवार तो पहले ही तय किए जा चुके हैं। टिकटों का वितरण जीत की संभावना के आधार पर होगा।
26 दिसम्बर: अब तक अखिलेश को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताने वाले शिवपाल यादव अपनी बात से पलटे। शपथ पत्र तक देने को तैयार शिवपाल बोले- विधायक दल तय करेगा नया मुख्यमंत्री।
26 दिसम्बर: खनन में भ्रष्टाचार के आरोपी और दो बार मंत्रिमंडल से बर्खास्त होने वाले गायत्री प्रजापति को पार्टी का राष्ट्रीय सचिव नियुक्त किया गया।
26 दिसम्बर: अनुशासनहीनता के आरोप में मुख्यमंत्री और तत्कालीन प्रदेश पार्टी अध्यक्ष अखिलेश द्वारा बर्खास्त किए गए विधायक रामपाल को पार्टी में वापस लिया गया। शिवपाल का आदेश।
28 दिसम्बर: झगड़ा चरम पर। शिवपाल ने जारी की 325 उम्मीदवारों की सूची। तीन मंत्रियों- रामगोविंद चौधरी, अरविंद सिंह गोप और पवन पांडे को टिकट नहीं। 47 विधायकों के टिकट कटे पर दागदार नेता टिकट पाए।
29 दिसम्बर: अखिलेश ने जवाबी कार्यवाही करते हुए 235 प्रत्याशियों की सूची जारी की। दागियों को टिकट नहीं। मुलायम सिंह की छोटी बहू अपर्णा को टिकट नहीं।
30 दिसम्बर: मुलायम सिंह ने अपने बेटे अखिलेश और प्रो0 राम गोपाल को पार्टी से निकाला। रामगोपाल दूसरी बार निकाले गए।
31 दिसम्बर: समझौता वार्ता हुई। अखिलेश और रामगोपाल का निलम्बन वापस लिया गया।
1 जनवरी 17: सपा का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने, शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने और अमर सिंह का पार्टी से निष्कासन करने के प्रस्ताव पारित। अखिलेश ने नरेश उत्तम को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। उनके समर्थकों ने पार्टी कार्यालय पर कब्जा किया। मुलायम सिंह ने रामगोपाल को फिर से निष्कासित किया।
2 जनवरी: सपा विवाद चुनाव आयोग पहुंचा। मुलायम सिंह के नेतृत्व में सपा का प्रतिनिधिमण्डल चुनाव आयोग से मिला।

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