बाबा रामदेव के दोहरे चरित्र पर चुनाव आयोग का डंडा
चुनाव आयोग ने योगगुरु बाबा रामदेव के आयोजनों का खर्च भाजपा के खर्च में जोड़ने का आदेश दिया है। बाबा रामदेव ने छत्तीसगढ़ राज्य में योग शिविर के आयोजन किये थे। छत्तीसगढ़ सरकार ने बाबा रामदेव को राजकीय अतिथि का दर्जा दिया। योग शिविरों में बाबा रामदेव ने खुलकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तथा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी की सराहना की। वहीं सोनिया गांधी तथा कांग्रेस पर जमकर प्रहार किये। उन्होंने कांग्रेस को विदेशियों द्वारा गठित करने तथा अंग्रेजों के लिए संरक्षित पार्टी बताया। सोनिया पर खुलकर हमला करते हुए उसे विदेशी महिला और कांग्रेस को विदेशियों की की पार्टी बताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस तरह बाबा के योग शिविर राजनीति के शिविर में तब्दील हो गए।चुनावी आचार संहिता लगने के बाद बाबा के इस कार्यक्रम का विरोध तो होना ही था। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच ने चुनाव आयोग को शिकायत की। शिकायत के साथ बाबा के विभिन्न कार्यक्रमों के वीडियो भी चुनाव आयोग को सौंपे गये। परिणामस्वरूप चुनाव आयोग ने बाबा रामदेव के आयोजनों पर हुए खर्च को भाजपा का खर्च मान लिया है। भाजपा चुनाव आयोग के इस आदेश को मानेगी अथवा विरोध करेगी यह बाद की बात है। चुनाव के दौरान प्रत्येक राजनैतिक दल अपनी मनमर्जी से खर्च करता है। चुनाव के बाद जब मामला ठंडा पड़ जाता है। उस समय तर्क-कुतर्क के माध्यम से मामले को शांत कर दिया जाता है। चुनाव के दौरान चुनाव आयोग अभी तक ऐसा तंत्र विकसित नहीं कर पाया है जिससे इस तरह की अनियमितताओं पर चुनाव के दौरान ही रोक लग सके। जिसके कारण राजनैतिक दलों और प्रत्याशियों को चुनाव आयोग का कोई डर और भय नहीं रहता है। भारत में विवादों को कानूनी प्रक्रिया में लंबा खींचना सरल है। चुनाव पिटीशन का फैसला लंबे समय तक नहीं हो पाता है । वहीं कार्यकाल भी पूरा हो जाता है। उसके बाद यदि चुनाव आयोग तथा न्यायालयें 6 वर्ष चुनाव लड़ने से रोक भी दे तो इससे प्रत्याशी और राजनैतिक दलों को कोई अन्तर ही नहीं पड़ता है। जिसके कारण राजनैतिक दल चुनाव आयोग की कार्यवाही को ‘हाथी के दिखाने वाले दांत’ की तरह लेते हैं। फौरी तौर पर विरोधियों को रोकने तथा चुनाव के बाद शिकायतों को पिटीशन के लिए दस्तावेज के रूप में उपयोग करने के लिए झूठी-सच्ची शिकायतों का अंबार चुनाव आयोग के पास लगाते हैं। चुनाव के दौरान सभी अपना-अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेना चाहते हैं।चुनाव आयोग ने सही समय पर सही फैसला लेकर दोहरे चरित्र तथा कृत्रिम आवरण को हटाने का अहम प्रयास किया है। बाबा रामदेव का स्वरूप ठीक ‘‘ सीता हरण’ के समय जिस तरह रावण ने अपना साधु वेश रखा था, वही स्थिति आज बाबा रामदेव की है। बाबा रामदेव ने योग क्रियाओं का अभ्यास कराकर लोगों को रोगों से निजात दिलाने में जरूर अपनी उपयोगिता सिद्ध की है। वह एक योग क्रिया के वैद्य तो हो सकते हैं बाबा या संन्यासी नहीं हो सकते हैं। संन्यासी होने के लिए त्याग, तपस्या, बेहतर सोच तथा बेहतर आचरण होना बहुत जरूरी होता है। संत की पहचान उसकी मृदुलता और शांत स्वभाव से होती है। संत बनने के लिए सब कुछ छोड़ना पड़ता है। बाबा रामदेव को देखें तो उनके वस्त्रों को छोड़कर बाबाओं जैसा उनमें कुछ दिखता ही नहीं है। बाबा के वेश में वह एक व्यापारी की तरह आचरण कर सारे देश-दुनिया में अपने आपको प्रोडक्ट की तरह बेचने का काम कर रहे हैं। उनके शिविरों में भाग लेने वालों को मोटी फीस जमा करना पड़ती है। शिविरों में जो दवायें बताई जाती है वह बाबा रामदेव की दुकान के अतिरिक्त कहीं नहीं मिलती हैं। बाबा एकाधिकार का व्यापार कर भरोसे के बल पर अरबों की संपत्ति के मालिक बन गए हैं। भारतीय समाज ने उन्हें कभी संत नहीं माना। हाँ वह भाजपा के लिए जरूर संत हैं, क्योंकि वह भाजपा के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए कोई ताकतवर हाथ चाहिए था वह भाजपा के रूप में उनके साथ है।बाबा रामदेव ने अन्ना आंदोलन के समय खुद की राजनैतिक पार्टी बनाने का भूत सवार हुआ था। उस समय उनकी भाजपा से दूरियां बढ़ गई थीं। इसी बीच उनके 1100 करोड़ के एम्पायर, दवाओं की बिक्री और गुणवत्ता को लेकर जांच शुरू हुई तो उन्होंने घबराकर एक बार फिर भाजपा से अपने रिश्ते मजबूत कर अपने गढ़ को सुरक्षित करने का प्रयास किया है।बाबा रामदेव यदि ‘बाबा’ होते तो उन्हें सरकार की किसी नाराजी की परवाह नहीं होती है। उन्हें राजनीति से भी कोई लेना-देना नहीं होता। बाबा बनकर वह देश भर में जन-जागरण करके नैतिक समाज की स्थापना करने अनैतिकता और अधर्म को समाप्त करने का कार्य करते तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। बाबा रामदेव अपने व्यापार तथा अपनी सम्पत्ति को बचाने के यत्न में समय-समय पर अपना चोला बदलकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं। बाबा रामदेव २ नावों में सवारी कर रहे हैं जिससे उनका डूबना तय है। एक तरफ वह कारपोरेट जगत की तरह खूब धन कमाना चाहते हैं, धन उनके पास आ भी गया है। अतः उसे सुरक्षित रखने अब वह राजनीति में अपना अहम प्रभाव बनाना चाहते हैं। जिसकी परिणति में ‘‘दो पाटों के बीच साबुत बचा ना कोय’’ की तर्ज पर अस्तित्व समाप्ति के अलावा बाबा के पास कोई विकल्प नहीं है। बापू आसाराम और बाबा रामदेव की सोच, कार्यप्रणाली तथा संपत्ति एकत्रित करने में समानता होने से रामदेव भी बापू की राह पर चल पड़े हैं। राजनेता अपने अनुकूलता देखकर जुड़ते हैं। जरूरत खत्म होने पर आंख फेरते देर भी नहीं लगती। बापू का हश्र आज सबके सामने है।
(लेखक- सनत जैन)