टॉप न्यूज़दिल्लीब्रेकिंगराज्य

बड़ा फैसला: पहले सवाल था, आखिर दिल्ली है किसकी..और अब जवाब है दोनों की..

दिल्ली सरकार और राज्यपाल के बीच चल रही ‘दिल्ली किसकी’ लड़ाई में आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता निकाला है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली सरकार का कोई भी बड़ा फैसला राज्यपाल के दिशा निर्देश के बाद ही लागू हो सकता है। और दोनों को मिलकर ही काम करना होग। अब सवाल ये उठता है कि आखिर दिल्ली है किसकी..और अब जवाब है दोनों की..

दिल्ली आज वहीं खड़ा है जहां महाभारत काल में था। तब दिल्ली का नाम इंद्रप्रस्थ था और लड़ाई कौरव और पांडवों के बीच थी। आज भी दिल्ली में अधिकार को लेकर महायुद्ध चल रहा है और सवाल एक बार फिर वही है दिल्ली किसकी। उपराज्यपाल (एलजी) की या फिर दिल्ली सरकार की।
  
दिल्ली आखिर क्यों पूर्ण राज्य नहीं

राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर 1956 में दिल्ली को राज्यों की श्रेणी से हटा दिया गया था जिसके बाद दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश बन गई और इसकी विधानसभा समाप्त हो गई। दिल्ली किसकी इस बात को लेकर लंबे समय से दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच झगड़ा चल रहा था जिसका फैसला आज पांच जजो की बेंच ने सुनाया और कहा कि उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं।  बता दें कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार बनने के बाद से ही उपराज्यपाल और केजरीवाल के बीच पावर को लेकर जंग चल रही है। 

 यह जंग मुख्य रूप से दो बिन्दुओं पर है। पहली दिल्ली में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों के चयन, ट्रांसफर और पदोन्नति से संबधित अधिकार मुख्यमंत्री के पास हैं या उपराज्यपाल के, और दूसरा, दिल्ली सरकार का एंटी करप्शन ब्यूरो, दिल्ली पुलिस (जो कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय के आधीन है) के अधिकारियों पर कार्रवाई कर सकता है या नहीं। 

 इस जंग की जड़ें तलाशने के लिए इतिहास में झांकना जरूरी है। वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने इस समस्या को 281 पन्नों में बताया है। दिल्ली का इतिहास लगभग आठ सौ साल पुराना है। लेकिन उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच छिड़ी जंग को समझने के लिए करीब 28 साल पीछे जाना होगा। वैसे आजादी के बाद से दिल्ली के शासन-प्रशासन और उसके तौर-तरीकों में जो बदलाव समय-समय पर हुए हैं, उन्हीं में हालिया विवाद की जड़ें भी छिपी हुई हैं।

आजादी के बाद दिल्ली को सी श्रेणी में रखा गया

आजादी के बाद जो देश की पहली सरकार बनी, उसने देश भर के राज्यों को चार श्रेणियों में बांटा था। दिल्ली को तब ‘सी’ श्रेणी में रखा गया था।  इस श्रेणी के राज्यों का मुखिया एक चीफ कमिश्नर होता था।  इसके नियमों के अनुसार दिल्ली में 1952 में विधानसभा का भी गठन किया गया था।  इस विधानसभा को कानून बनाने और शासन चलाने में चीफ कमिश्नर को सलाह देने का भी अधिकार था।  लेकिन यह व्यवस्था ज्यादा समय तक नहीं चली। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर 1956 में दिल्ली को राज्यों की श्रेणी से हटा दिया गया। इससे दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश बन गई, इसकी विधानसभा समाप्त हो गई और इसके स्थान पर म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन (डीएमसी) का गठन कर दिया गया। 

कुछ साल बाद इस व्यवस्था में भी बदलाव किये गए। 1966 में ‘दिल्ली प्रशासन कानून – 1966’ लागू कर दिया गया।  इसके अंतर्गत दिल्ली में मेट्रोपोलिटन काउंसिल की व्यवस्था की गई और चीफ कमिश्नर के पद को भी समाप्त कर दिया गया। चीफ कमिश्नर के पद को समाप्त कर यह जगह उपराज्यपाल को दी गई।
 सात नवम्बर 1966 को दिल्ली का पहला उपराज्यपाल नियुक्त किया गया।  नई व्यवस्था में मेट्रोपोलिटन काउंसिल उपराज्यपाल को सिर्फ सलाह दे सकती थी। इसके पास विधायिका वाले अधिकार नहीं इस वजह से दिल्ली में पूर्ण अधिकार प्राप्त विधानसभा की मांग उठने लगी। 

 इसके बाद दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच कई मामलों में मतभेद होने के  20 साल बाद 1987 में भारत सरकार ने इस मांग पर फैसला करने के लिए सरकारिया समिति का गठन किया गया।

 इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 1991 में 69वां संविधान संशोधन किया गया। इसके द्वारा एक बार फिर से काउंसिल की जगह दिल्ली विधानसभा को स्थापित कर दिया गया।  आज जो जंग दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच छिड़ी है, वह इसी संविधान संशोधन के बाद से ही शुरू हुई है। 

दिल्ली मामले में नया मोड़ 1991 में आया जब 69 वें संशोधन से दिल्ली को ‘केंद्र प्रशासित प्रदेश’ के स्थान पर ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया।  इसके साथ ही गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी (एनसीटी) ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 के जरिए दिल्ली में विधानसभा गठन को भी मंजूरी दे दी गई।  इस दौरान केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी थी।  भाजपा के कई नेताओं ने इस संशोधन का यह कहते हुए विरोध किया था कि इससे दिल्ली को सरकार और मुख्यमंत्री तो मिल जाएंगे लेकिन वे सिर्फ नाम मात्र के ही होंगे।  भाजपा चाहती थी कि दिल्ली में भी सरकार और मुख्यमंत्री की व्यवस्था बिलकुल वैसी ही हो जैसी कि अन्य राज्यों में होती है।

अनुच्छेद 239 एए की उपधारा 3(ए) के अनुसार दिल्ली विधानसभा राज्य सूची या समवर्ती सूची में मौजूद किसी भी विषय पर कानून बना सकती है लेकिन उसे कानून-व्यवस्था, पुलिस और जमीन से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है। यह मामले पर भाजपा ने काफी विरोध किया था लेकिन सरकारें चलती रहीं।  
 उसके बाद एनसीटी कानून 1993 में लागू हुआ और तभी पहली बार दिल्ली में विधानसभा चुनाव करवाए गए।  इन चुनावों में भाजपा को बहुमत मिला और मदन लाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए।

वहीं दिल्ली में विधान सभा का गठन तो हो गया लेकिन उसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिल सका। 

 भारतीय संविधान के अनुछेद 239 में केंद्र शासित प्रदेशों में ‘प्रशासक’ की व्यवस्था की बात कही गई है। इसमें अंडमान-निकोबार, पुडुचेरी और दिल्ली शामिल हैं जहां का प्रशासक उपराज्यपाल होता है। 

बढ़ते गतिरोध के बाद 1991 में फिर कुछ  संशोधन किए गए और  संविधान में अनुछेद 239 एए और 239 एबी बी जोड़ दिए गए। अनुच्छेद 239 एए की उपधारा 3 (ए) के अनुसार दिल्ली विधानसभा राज्य सूची या समवर्ती सूची में मौजूद किसी भी विषय पर कानून बना सकती है लेकिन उसे कानून-व्यवस्था, पुलिस और जमीन से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार फिर भी नहीं दिया गया। 

इस उपधारा में यह भी लिखा है कि दिल्ली विधानसभा उस हद तक ही किसी विषय पर कानून बना सकती है जिस हद तक वह विषय किसी केंद्र प्रशासित राज्य पर लागू होता हो। बता दें कि इसी कानून की वजह से लोक सेवा आयोग नहीं बनाया जा सकता है। 

यहां तैनात अधिकारियों का चयन भी केंद्रीय लोक सेवा आयोग द्वारा ही किया जाता है।  इस कारण दिल्ली में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों से जुड़े कानून बनाना, उनकी पदोन्नति और तबादले करने का अधिकार मुख्यमंत्री से ज्यादा उपराज्यपाल और केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास ही हैं।

संविधान के अनुछेद 239 एए की उपधारा 4 दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को यह अधिकार देती है कि वे अपनी नीतियां एवं कार्यक्रम लागू करवाने के लिए उपराज्यपाल को सलाह दें और सहायता प्रदान करें।
वैसे उपराज्यपाल दो तरह से मुख्यमंत्री को पछाड़ते रहे हैं। पहला मुख्यमंत्री सिर्फ उन्हीं मामलों में सलाह दे सकते हैं जिन मामलों में दिल्ली विधान सभा को कानून बनाने का भी अधिकार हो। 

 दूसरा, यदि मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच सहमति नहीं बनती तो इस परिस्थिति में राष्ट्रपति का फैसला ही मान्य होगा।  लेकिन जब तक राष्ट्रपति इस पर फैसला लेते हैं तब तक उपराज्यपाल को यह अधिकार है कि वह, यदि जरूरी समझे तो, अपने विवेक से फैसला ले सकता है। 

1991 में पारित हुआ एनसीटी एक्ट दिल्ली के उपराज्यपाल की शक्तियों को और भी ज्यादा बढ़ा देता है।  इससे उपराज्यपाल को कई विषयों पर अपने विवेक से कार्य करने का अधिकार भी मिल जाता है। यही 1991 एक्ट दिलली के उपराज्यपाल की शक्तियों को बढ़ाता है। 

Related Articles

Back to top button