दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

भारत के लिए चुनौतियां कैसे लाएगा ‘लाल’ नेपाल

– डॉ हिदायत अहमद खान

नेपाल की मुख्य कम्युनिस्ट पार्टी और पूर्व माओवादी विद्रोहियों का गठबंधन संसदीय सीटों पर भारी जीत के साथ पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने की स्थिति में आ चुका है। ऐसे में संभावना व्यक्त की जा रही है कि के.पी. ओली नेपाल के अगले प्रधानमंत्री बन सकते हैं। जहां तक चुनावी जीत का सवाल है तो यह एक ऐसी जीत है जो कि नेपाल को स्थिर सरकार दे सकती है, लेकिन इसी के साथ कुछ शंकाएं और आशंकाएं भी जेहन में जगह बनाती चली जा रही हैं। दरअसल इसके पीछे वो सवाल हैं जिसमें पूछा जा रहा है कि इस नए सत्ता समीकरण से भारत को क्या लाभ और क्या हानि होने वाली है? इसे समझने और समझाने का दौर भी शुरु हो गया है। इसलिए यहां यह भी बताते चलें कि पूर्व प्रधानमंत्री के. पी. ओली के नेतृत्व वाले सीपीएन-यूएमएल और पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड के नेतृत्व वाले सीपीएन-माओवादी ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया था, जिसे नेपाल में दो दशक के संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता के बाद एक महत्वपूर्ण मोड़ कहा गया था। इससे पहले नेपाल ने वर्ष 2006 में गृह युद्ध समाप्त होने के बाद से दस प्रधानमंत्री देखे हैं। इन्हीं में से एक शेर बहादुर देबा के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस को भारत समर्थक माना जाता रहा है, लेकिन पिछली बार जब 9 महीने के लिए ओली प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए जिससे नेपाल और भारत के रिश्तों में तनाव उत्पन्न हो गया। इसके साथ ही नेपाल का रुझान और उसका झुकाव चीन की ओर कुछ ज्यादा हुआ, इससे भी नेपालवासियों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

यही वजह है कि चुनाव परिणाम से जैसे ही नेपाल ‘लाल’ हुआ तो सभी ने यह कहना शुरु कर दिया कि अब भारत के लिए वह चुनौती बन जाएगा और उसकी पूछ-परख चीन में ज्यादा हो जाएगी। बहरहाल यहां यह बताना जरुरी हो जाता है कि नेपाल विदेशनीति के कारण ही भारत का पड़ोसी अभिन्न मित्र देश नहीं है बल्कि हमारी संस्कृति और काम-काज भी हमें एक दूसरे से जोड़ने का काम करते हैं। इस प्रकार कहना गलत नहीं होगा कि नेपाल और भारत के संबंध विदेश नीति के साथ ही साथ घरेलु नीति से भी जुड़ाव पैदा करने वाले रहे हैं। इसके साथ ही जब हम अन्य कारकों पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि ऐसे अनेक कारक हैं जो नेपाल के साथ भारत के संबंधों को अत्यंत महत्वपूर्ण बनाने में महती भूमिका अदा करते हैं। इन कारकों में सबसे महत्वपूर्ण कारक के तौर पर हम देख सकते हैं कि दोनों देशों के बीच परस्पर नागरिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों की व्यापकता है। इसके तहत हम कह सकते हैं कि नेपाल में पूर्ण भारतीय मुद्रा की परिवर्तनीयता हमारे बीच के अनेक भेदों को समाप्त करने में सहायक रही है। इससे आगे विचार करें तो दोनों देशों के बीच परिणामी सुरक्षा समस्याएं और उस पर भारतीय सेना में गोरखा सैनिकों की उपिस्थिति बताती है कि दो देशों के बीच किस कदर विश्वसनीयता है, जिसके चलते दोनों ही साथ मिलकर सफलता के साथ काम करते नजर आते हैं। वहीं भारत में काम कर रहे नेपाल के लाखों लोग सम्मान के साथ जीवन बिताते चले आ रहे हैं, जिससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि भारत को नेपाल से या उसके नागरिकों से किसी भी प्रकार की कोई परेशानी उपस्थित नहीं हुई है।

जहां तक प्राकृतिक साझेदारी का सवाल है तो नेपाल से भारत में प्रमुख नदियों का प्रवाह एक ऐसा महत्वपूर्ण पहलू है जो दोनों देशों में मिठास घोलने का काम करता है। बावजूद इसके अब जबकि नेपाल राजनीतिक तौर पर ‘लाल’ हो चुका है तो कूटनीतिक चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ेगा। इसका आभास तब भी हुआ था जबकि संविधान सभा के लिए हुए चुनाव के बाद राजनीतिक अनिश्चितता उत्पन्न हो गई थी। एक तरफ राजशाही जो कि नेपाल की संप्रभुता की परंपरागत प्रतीक रही है अब वो नहीं है। उसकी जगह नेपाल एक गणतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष राज्य बन गया है। इसके चलते अब नेपाल की अर्थव्यवस्था के साथ ही साथ सियासी और सेना में भी अभिजात वर्ग का प्रभुत्व भी कम हो चुका है। यही वजह है कि पारंपरिक रुप से सबसे प्रभावशाली मानी गई राजनैतिक ताकत नेपाली कांग्रेस को माओवादियों के हाथों हार का सामना करना पड़ा है। इसी के साथ नेपाल में सियासी बदलाव की बयार चली है तो चीन भी सक्रिय हो रहा है। ऐसे में चीन कोशिश करेगा कि नेपाल को हर उस मोर्चे पर भारत से दूर कर दे जिनसे दोनों के एक होने की पहचान मिलती है। चीन के इन्हीं प्रयासों के नतीजे में अनेक बार भारत पर आरोप भी लगे हैं कि वह नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है, लेकिन अब जबकि वाम गठबंधन की सरकार नेपाल की कमान संभालेगी तो भारत की जगह चीन का प्रभाव बढ़ सकता है।

इसके पीछे जो सोच काम कर रही है उसका मानना है कि पूर्व माओवादी विद्रोहियों और मुख्य कम्युनिस्ट पार्टी के गठबंधन में चीन का हस्तक्षेप रहा है। अब यदि ओली की सत्ता में वापसी होती है तो भारत की नीति को भी झटका लगेगा। अंतत: जो लोग नेपाल से भारत को मिलने वाली भविष्य की चुनौतियों से लबरेज नजर आते हैं उन्हें समझना होगा कि यह इतना आसान नहीं होने वाला है। दरअसल दोनों ही देशों के संबंध उस बटवृक्ष के समान हैं जिसकी जड़ें जितनी ऊपर दिखाई देती हैं उससे कहीं ज्यादा गहरी जमीन के अंदर भी होती हैं। ऐसे में इन जड़ों को खत्म कर पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन जैसी बात हो जाती है। इसलिए चुनौतियां नेपाल में बनने वाली नई सरकार के लिए सामंजस्य स्थापित करने को लेकर हो सकती हैं, लेकिन यदि भारत के लिए चुनौतियां खड़ी करने की कोशिश की गईं तो यह माना जाएगा कि नेपाल अपनी ही जड़ों पर मठा डालने का काम कर रहा है, जो कि खुद नेपाल के लिए उचित नहीं होगा।

 

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