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महज 1500 रूपए के साथ भारत आए थें मसालों के शहंशाह

ये बात तो आप सभी जानते ही हैं कि शनिवार को दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने पद्म भूषण, पद्म विभूषण और पद्मश्री पुरस्कार प्रदान किए। बता दें कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने 54 हस्तियों को पद्म पुरस्कार सम्मानित किया। दरअसल 54 हस्तियों में शामिल हर किसी को आप जानते ही हैं लेकिन आज हम आपको एक विशेष व्यक्ति के बारे में बताने जा रहे हैं। जी हां आपको बता दें कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जिन 54 व्यक्तियों को सम्मानित किया उसमें एक व्यक्ति एमडीएच के फाउंडर और मसाला व्यापारी महाशय धर्मपाल गुलाटी का नाम शामिल है जी हां इनको भी पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

वैसे अगर बात करें महाशय धर्मपाल की तो इन्हें हर कोई जानता है और पूरे भारत भर में तांगे से अपना काम शुरू किया और आज वो मसालों के शहंशाह बन गए। ये बात तो हर कोई जानता है कि इन्होने काफी मेहनत कर सफलता हासिल की, यही नहीं लेकिन कई बातें ऐसी भी है जो आपको इनके बारे में आपको नहीं पता होगी। जी हां और आज हम आपको उसीसे रूबरू कराने जा रहे हैं। सबसे पहले तो आपको ये बता दें कि महाशय धर्मपाल का जन्म 27 मार्च, 1923 को सियालकोट जो कि विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया, इसके बाद साल 1933 में उन्होंने अपनी 5वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ दी थी।

धर्मपाल गुलाटी को व्यापार और प्रसंस्करण के क्षेत्र में बेहतर योगदान के लिए पद्म भूषण अवॉर्ड दिया गया है। धर्मपाल के नेतृत्व में एमडीएच मसालों का नाम न केवल पूरे देश में,बल्कि पूरी दुनियाभर में मशहूर है। ये कंपनी 60 से भी अधिक तरह के मसाले तैयार करती है और उसका दुनिया के कई देशों में निर्यात करती है।

इतना ही नहीं ये भी बता दें कि साल 1937 में उन्होंने अपने पिता की मदद से व्यापार शुरू किया और उसके बाद साबुन, बढ़ई, कपड़ा, हार्डवेयर, चावल का व्यापार किया। आप ये जरूर सोच रहे होंगे कि जिस व्यक्ति ने 5 वी की पढ़ाई भी पूरी नहीं की और आज वो इतना बड़ा बिजनेस खड़ा कर चुका है। इतना ही नहीं ये भी बता दें कि वो लंबे वक्त ये काम नहीं कर सके और उन्होंने अपने पिता के साथ व्यापार शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पिता की ‘महेशियां दी हट्टी’ के नाम की दुकान में काम करना शुरू कर दिया जिसके बाद उनको देगी मिर्च के नाम से जाना जाता था।

आपको बता दें कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद वे दिल्ली आ गए और 27 सितंबर 1947 को उनके पास केवल 1500 रुपये थे। इस पैसों से उन्होंने 650 रुपये में एक तांगा खरीदा और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुतुब रोड के बीच तांगा चलाया। व्यापार के साथ ही उन्होंने कई ऐसे काम भी किए हैं, जो समाज के लिए काफी मददगार साबित हुए। इसमें अस्पताल, स्कूल आदि बनवाना आदि शामिल है। उन्होंने अभी तक कई स्कूल और विद्यालय खोले हैं। वे अभी तक 20 से ज्यादा स्कूल खोल चुके हैं।

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