मायावती का ‘डी-एम’ फार्मूला
देश के सबसे बड़े सूबे उप्र में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। सूबे की सत्ता में काबिज होने के लिए अभी से दांव-पेंच और रणनीति को अंतिम रूप दिया जाने लगा है। अखिलेश यादव सरकार की कथित विफलताओं को भुनाने के लिए बहुजन समाज पार्टी सबसे अधिक प्रयासरत है। साथ ही वह सोशल इंजीनियरिंग को सिर्फ जुबान पर रखते हुए अन्दर ही अन्दर दलित-मुस्लिम समीकरण को धार देने में जुटी है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बसपा का इस बार अगड़ी जातियों से मोह भंग हो गया है। हालांकि पार्टी ने बहुत से अगड़ों को टिकट दिया है लेकिन वह भी उनकी जीत की गारंटी पर। सभी जानते हैं कि चुनावी लहजे से उत्तर प्रदेश देश का सबसे संवेदनशील प्रदेश है। यहां 80 लोकसभा और 403 विधानसभा सीटें हैं। हाल में एक निजी समाचार चैनल की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि अगर अभी चुनाव हो जाएं तो बसपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। जबकि सपा का सफाया होगा, भाजपा अच्छा प्रदर्शन करने तक सीमित रहेगी और कांग्रेस के लिए बहुत कुछ नहीं है, खुश होने को।
इस बात से बसपा सुप्रीमो मायावती भी भिज्ञ हैं कि उनकी सत्ता मूर्तियों, भ्रष्टाचार और उनके राज में भी कानून व्यवस्था के नाम पर गई थी। सपा उस वक्त चल रही सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने में कामयाब हो गई थी। लेकिन इस बार स्थिति ठीक उलट है। बसपा के रणनीतिकारों का मानना है कि सूबे की सपा सरकार के पास अब बस चंद महीने ही शासन को बचे हैं और राज्य में यह हवा बह रही है कि मायावती पुन: सत्ता में वापसी कर रही हैं। यही कारण है कि मायावती ने साफ कर दिया है कि बसपा अगला विधानसभा चुनाव अकेले अपने दम पर लड़ेगी। साथ ही बसपा मुखिया का सारा जोर अपने परम्परागत दलित वोट बैंक को पार्टी के लिए पूरी तरह से एकजुट रखने की है। सूबे में दलित मतदाता लगभग 22 प्रतिशत हैं। साथ ही उनकी निगाहें मुस्लिम वोटों की ओर भी हैं, जिनकी संख्या भी करीब 17 फीसदी है। यानि दलित व मुस्लिम यानि ‘डी-एम’ का गठजोड़ यदि बन गया तो मायावती को पांचवीं बार इस सूबे की कमान संभालने से कोई नहीं रोक सकता।
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से लेकर अब तक बसपा मुस्लिमों को यही संदेश देने में लगी है कि उनकी जान-माल की सुरक्षा की गारंटी सिर्फ बसपा ही दे सकती है। बसपा के रणनीतिकारों का भी यह मानना है कि मुस्लिमों का सपा से एक प्रकार से मोहभंग हो चुका है और सपा का ‘एमवाई’ (मुस्लिम-यादव) फार्मूला अंतिम सांसें गिन रहा है। वहीं असदुद्दीन औवेसी की पार्टी भी दलित-मुस्लिम फार्मूले को लेकर चल रही है। फैजाबाद जिले के बीकापुर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के जरिये सूबे के चुनावी राजनीति में कदम रखने वाली एआईएमआईएम के प्रत्याशी प्रदीप कोरी चौथे स्थान पर थे लेकिन उन्हें मिले 11857 मत से पार्टी उत्साहित है। इस सीट पर ओवैसी ने दलित समाज के व्यक्ति को प्रत्याशी बनाया और साथ ही मुस्लिमों पर डोरे डाले। प्रदीप कोरी के प्रदर्शन के कारण ही रालोद के मुन्ना सिंह चौहान को हार का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन इन सब तथ्यों के बावजूद बसपा के रणनीतिकार ओवैसी को अपना प्रतिद्वंदी नहीं मानते हैं। उनका साफ मत है कि मुस्लिम मतदाताओं को विकल्प की तलाश है। मुस्लिम मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव में बिखरकर अपने विरोधी को जीत दर्ज करते देखा है। ऐसे में विधानसभा चुनाव में वह कभी नहीं चाहेंगे कि उनका वोट बिखरे और इसका लाभ भाजपा को हो। चूंकि उप्र में कांग्रेस फिलहाल ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह सूबे की सत्ता में काबिज हो सके। ऐसे में सपा से अलग होकर कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने से मुस्लिमों को कुछ भी हासिल नहीं होगा। उसके पास एकमात्र विकल्प बसपा ही है। इसीलिए बसपा भी बढ़-चढ़कर उन्हें विश्वास में लेने की दिशा में काम कर रही है। ’