उत्तर प्रदेशराजनीति

यूपी में मुलायम को तय करना होगा दुश्मन नंबर वन!

mulayam-singh-yadav-5651ef212f8aa_exlstबिहार में महागठबंधन की तर्ज पर यूपी में भी भारी सियासी गठजोड़ की बड़ी चर्चा अब लगभग शांत हो चुकी है। यूपी के सिंहासन पर दावेदारी रखने वाली सपा, बसपा और भाजपा ने इस मसले को फिलहाल तूल नहीं देने की रणनीति अपनाई है।

इसकी एक प्रमुख वजह यह भी है कि अभी इन दलों के पास चुनावी तैयारियों के लिए वक्त है। अपने ही दल के नेताओं की ओर से महागठबंधन की हवा बनाने के बाद सपा नेतृत्व की ओर से जरूर स्पष्ट किया गया कि वह अपने पांच साल के काम के बूते अकेले ही चुनाव में जाने का मन बना रही है।

लेकिन सवाल यह भी उठ रहे हैं कि क्या समाजवादी पार्टी सचमुच ऐसी मजबूत स्थिति में है कि वह अकेले अपने दम पर दोबारा सत्ता में वापसी का ख्वाब देख सकती है?

या यह उसकी अदूरदर्शिता और बड़ी सियासी भूल के रूप में दर्ज की जाने वाली गलती साबित होगी? सपा की सोच और सियासी जमीन पर उसकी ताकत को जानने-समझने के लिए कुछ बिंदुओं पर चर्चा जरूरी है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि चुनावी रणनीति और जनसमर्थन को अपने हक में मोड़ने के सार्थक प्रयास से बेहतर नतीजे हासिल हो सकते हैं। लेकिन इसमें भी शक नहीं कि गलती दोनों ही स्तर पर हो सकती है।

चुनावी रणनीति की कामयाबी इस बात पर निर्भर है कि वह कितनी वास्तविक और व्यावहारिक है। दूसरी बात, जनसमर्थन को अपने हक में करने की कोशिश कितनी सटीक और प्रामाणिक है।

कई बार ऐसा लगता है कि अपने प्रचार तंत्र की कामयाबी और चुनावी प्रबंधन को लेकर सपा उसी तरह की गलतफहमी की शिकार हो रही है जैसी गलतफहमी बिहार चुनाव के दौरान भाजपा नेतृत्व को हो गई थी।

बिहार चुनाव में ऊपरी तौर पर न उसका प्रचार तंत्र कमजोर नजर आ रहा था न ही चुनावी प्रबंधन ढीला दिखा, लेकिन नतीजा सामने है। बिहार चुनाव में उसके सारे दांव बुरी तरह फेल साबित हुए।

महागठबंधन ने बेहतर चुनावी प्रबंधन और सियासी सूझबूझ से जनता को अपने पक्ष में कर लिया और भाजपा को करारी शिकस्त दी। मैदान में रेस का मसला हो या चुनावी रणक्षेत्र, किसी की भी जीत या हार केवल उसकी अपनी ताकत नहीं बल्कि विरोधियों की क्षमता, रणनीति के आधार पर ही तय होती है।

मुमकिन है आपकी रणनीति बेहद कुशल लोगों ने तैयार की हो, आपकी ताकत का अनुमान भी बेहद अनुभवी लोगों ने लगाया हो, लेकिन क्या आपको अपने विरोधियों की ताकत का सटीक अनुमान है। यह भी तो हो सकता है कि उसकी रणनीति आपसे कहीं अधिक व्यावहारिक और कुशल लोगों ने तैयार की हो। या फिर वह बिल्कुल जमीनी हो।

सपा की सबसे बड़ी चुनौती है अपने सियासी दुश्मन की पहचान करना। उसके रणनीतिकारों के सामने साफ होना चाहिए उसका दुश्मन नंबर वन कौन है? 2012 के चुनाव में सपा का दुश्मन नंबर वन थी- बसपा। तत्कालीन बसपा सरकार पर सटीक हमले ने सपा समर्थकों की एक नई लाइन खड़ी की।

लोगों को लगा कि सपा ही बसपा के भ्रष्टाचार से प्रदेश को मुक्ति दिला सकती है। 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले केवल पांच फीसदी वोटों के उछाल ने सपा को यूपी में तब तक की सबसे बड़ी जीत दिला दी।

2017 के चुनाव में जाने से पहले सपा को अपने दुश्मन नंबर वन की न केवल शिनाख्त कर लेनी होनी, बल्कि उसके खिलाफ हल्ला बोल का एलान भी कर देना होगा। सत्ता में आने के बाद से सपा विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल बसपा के बजाय भाजपा को ही दुश्मन नंबर वन की अहमियत देती दिखी।

ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि 2014 के चुनाव में उसका मुकाबला भाजपा से होना था। लेकिन बिहार चुनाव से ऐन पहले पार्टी भाजपा को लेकर नरम दिखने लगी है।

यह उसकी सियासी रणनीति का हिस्सा है या कोई बड़ी मजबूरी, इस पर चर्चा फिर कभी, पर यह तो साफ है कि सपा को अब यह तय कर लेना होगा कि 2017 में उसका सबसे करीबी दुश्मन कौन रहेगा, बसपा या भाजपा? दुश्मन की पहचान के बाद ही सपा की रणनीति भी सटीक होगी और प्रचार तंत्र की दिशा भी।

 

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