दस्तक-विशेष

विलय की पहल करने वाले मुलायम ने क्यों बदला पैंतरा?

राजनीतिक अखाड़े के चतुर पहलवान मुलायम नया दांव लगाने और पलटी मारने में बिल्कुल वक्त नहीं लगाते। प्रतिद्वंद्वी की ताकत और अपनी कमजोरी पहचानते ही वे पैंतरा बदल देते हैं। इस मामले में भी यही हुआ। बिहार उनके लिए बड़ा मुद्दा नहीं है। उनका जनाधार ही वहां क्या है?

Captureनवीन जोशी
माजवादी पार्टी की तरफ से यही कहा गया कि बिहार में सपा को सिर्फ तीन सीटें (बाद में लालू ने अपनी दो सीटें मिला कर इसे पांच कर दिया था) देना और जनता परिवार के ‘एकीकृत दल’ (जिसका कोई नाम तक तय नहीं हो पाया था) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह से सीट बंटवारे पर कोई सलाह नहीं करना अपमानजनक था। इसलिए नेता जी ने महागठबंधन से अलग होने की घोषणा की। लेकिन असल में बात कुछ और है। राजनीतिक अखाड़े के चतुर पहलवान मुलायम नया दांव लगाने और पलटी मारने में बिल्कुल वक्त नहीं लगाते। प्रतिद्वंद्वी की ताकत और अपनी कमजोरी पहचानते ही वे पैंतरा बदल देते हैं। इस मामले में भी यही हुआ। बिहार उनके लिए बड़ा मुद्दा नहीं है। उनका जनाधार ही वहां क्या है? उनकी असली चुनौती उत्तर प्रदेश है जहां 2017 में उन्हें नरेंद्र मोदी-अमित शाह के आक्रामक नेतृत्व वाली भाजपा से सबसे कठिन युद्ध लड़ना है। उनका बदला पैंतरा हमें यू पी के संदर्भ में ही देखना होगा। लेकिन पहले महागठबंधन के बारे में चंद बातें ताकि ‘उससे अलग होने’ का सच भी सामने आ सके।
2014 के लोक सभा चुनाव में भाजपा के हाथों करारी हार के बाद नीतीश ने खुद आगे बढ़ कर अपने पुराने राजनीतिक शत्रु लालू से हाथ मिलाया था। कारण? लोक सभा चुनाव नतीज़ों का विश्लेषण करते हुए नीतीश ने देखा कि बिहार की 40 में 31 सीटें जीतने वाली भाजपा को करीब 30 फीसदी वोट मिले जबकि राजद और जद (यू) का वोट प्रतिशत मिलाकर होता है 36.5%। उनका निष्कर्ष था कि अगर दोनों मिल कर लड़े होते तो इस कदर बुरी हार का मुंह नहीं देखना पड़ता। राजनीतिक बियाबान में खड़े लालू को बात जम गई। वह नीतीश के बड़े भाई बन कर आगे आ गए। तय हुआ कि विधान सभा उप चुनाव मिल कर लड़े जाएं। नामकरण में माहिर लालू ने ही ‘महागठबंधन’ नाम रखा। लालू का कांग्रेस प्रेम जगजाहिर है। सो, वे कांग्रेस को भी साथ ले आए. सचमुच, लोक सभा चुनाव के बाद हुए विधान सभा चुनावों में इस महागठबंधन ने भाजपा की बढ़त रोक दी। अधिकतर सीटें महागठबंधन जीत गया।
पुराने जनता परिवार के घटक रहे दलों के विलय का प्रयास मुलायम ने बहुत बाद में किया। कोई नवम्बर-दिसम्बर 2014 में और अप्रैल 2015 में इसकी औपचारिक घोषणा हुई जिसमें मुलायम सिंह को नए बनने वाले एकीकृत दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित किया गया। इसी हैसियत से वे जनता परिवार के नेताओं की बैठक की अध्यक्षता करते रहे लेकिन मुलायम के भ्राता राम गोपाल यादव ने ही इस विलय में अड़ंगा लगा दिया। विलय की बात आई-गई हो गई।
यह सच है कि महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार ही को पेश करने के लिए लालू को मनाने में मुलायम सिंह का भी हाथ रहा लेकिन सच यही है कि समाजवादी पार्टी महागठबंधन में औपचारिक रूप से शामिल ही नहीं हुई थी। लालू-नीतीश आखिर किस आधार पर मुलायम से सलाह करते या उनके लिए सीटें छोड़ते? सो, लालू और नीतीश ने 100-100 सीटें आपस में बांट लीं, 40 सीटें कांग्रेस को दीं और बाकी तीन एनसीपी के लिए छोड़ दीं। एनसीपी मात्र तीन सीटें दिए जाने से नाराज़ होकर गठबंधन से बाहर चली गई तब यही तीन सीटें सपा की नाराज़गी सामने आने के बाद उसे दी गईं। इस बीच मुलायम ने जनता परिवार के गठबंधन से अलग होने की घोषणा कर दी। असल वज़हें कुछ और थी लेकिन कहा यही जा रहा था कि मात्र तीन सीटें देना मुलायम सिंह का अपमान है। तब लालू ने समधियाना निभाया और अपने कोटे से दो और देकर सपा के हिस्से में पांच सीटें कर दीं। मुलायम को नहीं मानना था, सो नहीं ही माने।
असल वज़ह यह कि मुलायम अभी उस गठबंधन में नहीं रहना चाहते जिसमें कांग्रेस शामिल हो। वे कांग्रेस से नज़दीकी नहीं दिखाना चाहते, जो कि संसद के मानसून सत्र में साफ दिखाई दे रही थी। सोनिया के नेतृत्व में जब सभी विपक्षी दल भाजपा के भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश के खिलाफ संसद से सड़क तक आंदोलन कर रहे थे तब मुलायम भी साथ में थे। उसके बाद ललित मोदी प्रकरण में सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर संगीन आरोप लगे और व्यापमं घोटाले में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कटघरे में खड़े किए गए। इन तीनों के इस्तीफे की मांग पर भी कांग्रेस और सपा समेत कुछ विपक्षी दलों ने संसद नहीं चलने दी। इस मामले में भी मुलायम कांग्रेस के साथ खड़े थे।
भाजपा के खिलाफ लड़ते हुए भी मुलायम कांग्रेस के साथ नहीं दिखना चाहते। इसकी दो वजहें हैं- पहली यह कि लोहिया को आदर्श मानने वाले मुलायम समाजवादी पार्टी की नींव गैर-कांग्रेसवाद में मानते रहे हैं। यह अलग बात है कि इस सिद्धांत के बावजूद वे समय-समय पर कांग्रेस का साथ देते रहे हैं (जैसे, अमेरिका से परमाणु करार में यूपीए सरकार का जोरदार समर्थन) और इसके लिए वे तर्क भी जुटा लेते रहे हैं। दूसरी वजह, मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ ढीली पड़ने की आशंका। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से कांग्रेस से खफा चल रहे मुसलमानों में मुलायम कांग्रेस और भाजपा से बराबर दूरी बनाए रखने के कारण ही लोकप्रिय रहे हैं। वे किसी भी रूप में यह संदेश जाने देना नहीं चाहते कि इधर उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ होने लगा है। बिहार में महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ना कांग्रेस के साथ खड़ा होना होता। पटना रैली में वे इसीलिए नहीं गए क्योंकि वहां मंच पर सोनिया के साथ बैठना पड़ता. छोटे भाई शिवपाल को उस रैली में भेजा ज़रूर हालांकि रिश्ता तोड़ने का फैसला वे तब तक ले चुके थे।
जनता परिवार के एकता बिहार चुनाव से पहले हो जाती तो मुलायम को बिहार में फायदा होता और उनकी राष्ट्रीय छवि में इज़ाफा भी होता। इधर, यूपी में फायदे की जगह नुकसान ही होता क्योंकि साथी दलों के लिए कुछ तो छोड़ना पड़ता। ऐसे में मुलायम के लिए जनता परिवार की एकता या महागठबंधन के कोई मानी नहीं रह गए थे। हाल के दिनों में कांग्रेस समर्थक छवि से छुटकारा पाने की मुलायम के पास और भी वजहें हैं। अपने यादव परिवार की आय से अधिक सम्पत्ति के दबे हुए मामलों की याद केंद्र में सत्तारूढ़ सरकारें उन्हें प्रकारांतर से दिलाया ही करती रही हैं। नोएडा के पूर्व मुख्य अभियंता यादव सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार के संगीन मामलों की जांच सीबीआई करे, यह मुलायम को मंजूर नहीं। तभी तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सपा सरकार सुप्रीम कोर्ट तक गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी पूछ ही लिया कि यादव सिंह के खिलाफ जांच रुकवाने में सरकार क्यों इतनी रुचि ले रही है? इस अतिरिक्त रुचि का खुलासा पिछले दिनों ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ की खोजी रिपोर्ट ने कर दिया। उसने राज खोला कि मुलायम सिंह के चचेरे भाई और राज्य सभा में सपा के नेता राम गोपाल यादव के बेटे, सांसद अक्षय यादव को यादव सिंह के करीबी की एक कम्पनी बहुत सस्ते में दे दी गई थी. राम गोपाल इसका खण्डन करते हैं यादव सिंह के खिलाफ सीबीआई जांच कायदे से हो तो शायद कई बड़े राज खुलें।
बहरहाल, इन कई वजहों से मुलायम सिंह ने पैंतरे बदले। पहले उन्होंने अचानक कांग्रेस का साथ छोड़कर संसद के मानसून सत्र के गतिरोध को समाप्त करने की पहल की, जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी खुलकर तारीफ की। फिर प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से सपा के बड़े नेताओं की मुलाकातें हुई। तत्पश्चात आया बिहार में महागठबंधन से रिश्ता तोड़कर अलग से चुनाव लड़ने का चौंकाने वाला फैसला। कुछ सप्ताह पहले तक जनता परिवार के दलों को एक करके भाजपा को हराने की रणनीति बनाने वाले मुलायम अब बिहार में महागठबंधन को हराने के लिए मैदान में हैं और पूछ रहे हैं कि सात साल तक भाजपा के साथ बिहार में सरकार चलाने वाले नीतीश कुमार सेकुलर कैसे हो गए! अब भाजपा मुलायम की शुक्रगुज़ार न हो तो कैसे!

हाल के दिनों में कांग्रेस समर्थक छवि से छुटकारा पाने की मुलायम के पास और भी वजहें हैं। अपने यादव परिवार की आय से अधिक सम्पत्ति के दबे हुए मामलों की याद केंद्र में सत्तारूढ़ सरकारें उन्हें प्रकारांतर से दिलाया ही करती रही हैं। नोएडा के पूर्व मुख्य अभियंता यादव सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार के संगीन मामलों की जांच सीबीआई करे, यह मुलायम को मंजूर नहीं। तभी तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सपा सरकार सुप्रीम कोर्ट तक गई। इस अतिरिक्त रुचि का खुलासा पिछले दिनों ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ की खोजी रिपोर्ट ने कर दिया। उसने राज खोला कि मुलायम सिंह के चचेरे भाई और राज्य सभा में सपा के नेता राम गोपाल यादव के बेटे, सांसद अक्षय यादव को यादव सिंह के करीबी की एक कम्पनी बहुत सस्ते में दे दी गई थी।

नीतीश ने जेपी व कर्पूरी ठाकूर के सिद्धान्तों को तोड़ा है। सोनिया के यहां हाजिरी लगाने से उनकी आत्मा को दु:ख पहुंचा होगा।

अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष

मोदी ने बिहारी की बोली लगायी हम दिहाड़ी नही बिहारी हैं। हमने ऐसों को आगे बढ़ाया जिसके हाथ से कोई चाय लेना नहीं पसन्द करता था। बीजेपी वालों ने तो केवल चाय वालों को आगे बढ़ाया।
मीरा कुुमार,पूर्व लोकसभा अध्यक्ष

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