अद्धयात्म

स्‍त्री पुरुष की समानता का प्रतीक है शिव और शक्‍ति का साथ

पुरुष और प्रकृति की समानता से होता है संसार में संतुलन 
पुरुष और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित होने से ही सृष्टि सुचारु रूप से चल पाती है। शिव और शक्ति के प्रतीक शिवलिंग का यही मन्तव्य है। शिव पुरुष के प्रतीक हैं, तो पार्वती प्रकृति की। पुरुष और प्रकृति के बीच यदि संतुलन न हो, तो सृष्टि का कोई भी कार्य भलीभांति संपन्न नहीं हो सकता है। शिवलिंग के माध्यम से शिवजी अपने भक्तों को यही संदेश देते हैं। देवघर के बाबा वैद्यनाथधाम मंदिर के अलावा, दक्षिण भारत में भी शिव तथा शक्ति का विवाह कराया जाता है। विवाह से पहले दोनों को अपने मन के मालिक के रूप में दिखाया जाता है। जहां शिव अपना भिक्षु रूप, तो शक्ति अपना भैरवी रूप त्याग कर समान घरेलू रूप धारण करती हैं। इस प्रकार भैरवी ललिता, तो शिव शंकर बन जाते हैं। इस वैवाहिक संबंध में न कोई विजेता है और न कोई विजित है। दोनों का एक-दूसरे पर संपूर्ण अधिकार है, जिसे प्रेम कहते हैं।स्‍त्री पुरुष की समानता का प्रतीक है शिव और शक्‍ति का साथदोनों की है समान स्‍वतंत्रता और सत्‍ता

शिव मानते हैं कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष का अपना स्वतंत्र ब्रह्मांड अर्थात आत्मपरक सत्ता होती है। संसार की ओर देखने और व्यवहार करने का अपना-अपना अलग ढंग होता है, इसलिए उनके मनोभावों को समझना बेहद जरूरी है। एक मान्यता के अनुसार शिव-पार्वती विवाह के बाद शिव के एक अनुयायी भृंगी ने उनकी प्रदक्षिणा करने की इच्छा व्यक्त की। शिव ने कहा कि आपको शक्ति की भी प्रदक्षिणा करनी होगी, क्योंकि उनके बिना मैं अधूरा हूं। भृंगी इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। वे देव और देवी के बीच प्रवेश करने का प्रयत्न करते हैं। इस पर देवी शिव की जंघा पर बैठ जाती हैं, जिससे वे यह काम न कर सकें। भृंगी भौंरे का रूप धारण कर उन दोनों की गर्दन के बीच से गुजर कर शिव की परिक्रमा पूरी करना चाहते हैं। तब शिव ने अपना शरीर शक्ति के शरीर के साथ जोड़ लिया। अब वे अ‌र्द्धनारीश्वर बन गए। ऐसे देवता, जिनका आधा शरीर स्त्री का है। अब भृंगी दोनों के बीच से नहीं गुजर सकते थे। शक्ति को अपने शरीर का आधा भाग बनाकर शिव कहते हैं कि वास्तव में स्त्री की शक्ति को स्वीकार किए बिना पुरुष पूर्ण नहीं हो सकता। शिव की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। देवी के माध्यम से ही शिव की प्राप्ति की जा सकती है। प्रकृति के सहयोग के बिना न कल्पना का महत्व है और न इससे उदय होने वाले ज्ञान का। संसार को चलाने के लिए ज्ञान का महत्व है।

दोनों के बीच अंतर स्‍वीकार नहीं

शिव पुरुष और प्रकृति के बीच का अंतर समाप्त कर देते हैं। शिव और शक्ति के बीच समभाव से ही एक सत्ता का निर्माण हो पाता है। समभाव की सबसे बड़ी शर्त है कि आपस में भय का वातावरण न रहे। मनुष्य एक-दूसरे को मनुष्य ही समझे। यह तभी संभव है, जब हम भय से परे होंगे। हम अपने चारों ओर के वातावरण को हिरण की तरह देखते हैं, जैसे डरे हुए हों। या फिर शेर की तरह देखते हैं जैसे दूसरों को डरा रहे हों। दूसरों को देखना दर्शन कहा जाता है। पर भय के कारण उत्पन्न दृष्टि जो दूसरे को स्वीकार नहीं करती, दर्शन नहीं कही जा सकती है। दर्शन तो वह दृष्टि है, जो भय से मुक्त है। जो दूसरे को शुद्ध दृष्टि से देखती हो। ‘यह मेरा है या यह मेरा नहीं है’ दृष्टि से नहीं। दर्शन समभाव से देखने की दृष्टि है। ब्रह्मा भय दिखाकर प्रकृति को अपने नियंत्रण में करना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर शिव जीवन देते हैं। बदले में कुछ भी अपेक्षा नहीं करते। वे नहीं चाहते हैं कि उनकी आज्ञा मानी जाए। इसीलिए तो शिव महादेव कहलाते हैं। पार्वती साधना के माध्यम से शिव के हृदय में करुणा और समभाव जगाना चाहती हैं। इस भाव के बिना सभी प्राणी प्रकृति से बंधे हुए हैं। वे उन्हें बंधन मुक्त करना चाहती हैं। पार्वती की साधना अन्य तपस्वियों की तपस्या से भिन्न है। सुर-असुर और ऋषि ईश्वर की प्राप्ति और अपनी इच्छापूर्ति के लिए तपस्या करते हैं। पार्वती किसी भी इच्छा या वरदान को परे रखकर ध्यान लगाती हैं। एक ऐसी तपस्या, जिससे दूसरों का लाभ हो। वे अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं, बल्कि संसार के लाभ के लिए तपस्या करती हैं।

ज्ञान की दृष्‍टि से देखें स्‍त्री का सौंदर्य

शिव पुराण के अनुसार, जब पार्वती शिव को पाने के लिए साधना करती हैं, तो शिव उन्हें ध्यान से देखते हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सती ही पार्वती हैं। वे सोचते हैं कि यदि वे अपनी आंखे बंद कर लेंगे, तो वह काली में बदल जाएंगी और उनका रूप भयंकर हो जाएगा। अगर वे आंखें खोले रहेंगे, तो वह सुंदर और सुरूप गौरी बनी रहेंगी। इसके आधार पर वे यह बताना चाहते हैं कि अगर प्रकृति को ज्ञान की दृष्टि से न देखा जाए, तो वह डरावनी हो जाती है। यदि ज्ञान के साथ देखा जाए तो वह सजग और सुंदर प्रतीत होती है। पार्वती शिव को अपना दर्पण दिखाती हैं, जिसमें वे अपना शंकर (शांत) रूप देख पाते हैं।

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