दस्तक-विशेषराजनीति

‘हनक’ छीन ले गए राज्यों के चुनाव

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी को मिली हार का ठीकरा भले ही वहां की राज्य सरकारों के मत्थे फोड़ दिया गया हो और इन परिणामों से केन्द्र की मोदी सरकार पर आंच न आये, इसका भी भरपूर प्रयास किया गया। लेकिन सवाल यह है कि गोवा सहित पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में पूर्व में मिली सफलता के बाद मीडिया के सामने पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ सामने आने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मिली हार के बाद यहां से सम्बंधित सवालों से दूरी बना ली। सिर्फ यह कहते रहे कि हम समीक्षा कर रहे हैं और यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद वह अपना विश्लेषण मीडिया के साथ साझा करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

एक वह भी दौर था जब ‘वे’ दिन को रात कहते थे तब भी सभी उनकी हां में हां मिला दिया करते थे। यह दौर लगभग साढ़े चार साल तक चला लेकिन सत्ता में पुनर्वापसी के लिए जद्दोजहद शुरू होने से पहले ही ‘अग्निपरीक्षा’ देनी पड़ी और जब परिणाम आये तो ऊपर से नीचे तक सब कुछ झुलसा नजर आया। बस, यहीं से समयचक्र पूरी तरह पलटा खा गया। जो कल तक ‘चूं’ करने की हैसियत में नहीं थे, वे भी अब आंखें दिखाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। यदि ऐसा कुछ दिन और चला तो फिर दोबारा केन्द्रीय सत्ता में वापसी के सपने चकनाचूर होने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रह जायेगी। हाल ही में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में दो राज्य तो ऐसे थे जहां भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत कुछ ‘दांव’ पर नहीं लगा था।

अलबत्ता 2014 में एनडीए का जो स्वरूप था, उसे नुकसान हुआ लेकिन इस गठबंधन से टीडीपी यानि तेलगू देशम पार्टी इन चुनावों से पहले ही अलग हो चुकी थी और यूपीए के साथ जा चुकी थी। लेकिन ‘हिन्दी बेल्ट’ कहलाने वाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को मिली हार ने एनडीए में शामिल कई दलों को मुखर हो जाने का पूरा मौका दे दिया है। टीडीपी की ही भांति शिव सेना भी पहले ही बागी तेवर दिखा चुकी है। ऐसे में एनडीए को स्व. अटल बिहारी बाजपेयी के दौर की तरह एकजुट रख पाना आधुनिक भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के लिए खासा दुष्कर होने वाला है। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होने वाले भाजपा के सर्वेसर्वा अमित शाह विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद असहज नजर आये।  मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी को मिली हार का ठीकरा भले ही वहां की राज्य सरकारों के मत्थे फोड़ दिया गया हो और इन परिणामों से केन्द्र की मोदी सरकार पर आंच न आये, इसका भी भरपूर प्रयास किया गया।

लेकिन सवाल यह है कि गोवा सहित पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में पूर्व में मिली सफलता के बाद मीडिया के सामने पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ सामने आने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मिली हार के बाद यहां से सम्बंधित सवालों से दूरी बना ली। सिर्फ यह कहते रहे कि हम समीक्षा कर रहे हैं और यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद वह अपना विश्लेषण मीडिया के साथ साझा करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उधर, परिणाम आये नहीं कि बिहार के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव रखने वाली पार्टी एवं अब तक केन्द्र की सरकार में सत्ता में भागीदार उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली लोक समता पार्टी ने एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) से किनारा कर लिया। इतना ही नहीं उपेन्द्र कुशवाहा ने भाजपा नेतृत्व और सरकार की कार्यशैली पर सवाल भी उठाये। हालांकि उनका यह कदम कथित रूप से बदल चुकी राजनैतिक बयार का सूचक करार दिया गया। लेकिन उन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए लोक जनशक्ति पार्टी के युवा चेहरा चिराग पासवान के केवल एक ट्वीट ने भाजपा नेतृत्व को झकझोर कर रख दिया।

कांग्रेस भी अभी नफे-नुकसान का आंकलन करने में जुटी है। कांग्रेस के रणनीतिकारों की सोच है कि अल्पसंख्यकों का बड़ी संख्या में कांग्रेस की ओर रुझान बढ़ा है। वहीं वे सवर्ण मतदाता जो भाजपा का परित्याग करना चाहते हैं और सपा-बसपा गठबंधन के साथ भी नहीं जाना चाहते उनके लिए कांग्रेस ही एकमात्र और बेहतर विकल्प है।

चिराग की ‘लौ’ देख भाजपा नेतृत्व तत्काल सक्रिय हुआ और ‘कुनबे’ को और टूटने से बचाने की कवायद शुरू कर दी। चिराग के पिता और लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया राम विलास पासवान को भविष्य की ‘राजनीति का मौसम विज्ञानी’ की संज्ञा प्राप्त है। ऐसे में यदि वे एनडीए का साथ छोड़ते तो ‘संदेश’ गलत चला जाता। यही वजह है कि भाजपा के चाणक्य ने आनन-फानन में एक तरह से नतमस्तक होते हुए बिहार में सीटों का बंटवारा किया। सरकार चाहे किसी की रही हो राम विलास 1996 से लगातार केंद्र में मंत्री बने रहने का रिकॉर्ड बनाए हुए हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ की हार ने जहां यूपीए खासकर कांग्रेस को नयी ऊर्जा दी साथ ही एनडीए के सहयोगियों का सीना चौड़ा कर दिया। बिहार में ही कोइरियों के नेता उपेन्द्र कुशवाहा काफी समय से हां-ना करते-करते आखिर में एनडीए और सरकार से निकल कर बिहार के विरोधी महागठबंधन में शामिल हो गए। वहीं उत्तर प्रदेश में भी ओम प्रकाश राजभर और केन्द्र में मंत्री अनुप्रिया पटेल के अपना दल ने भी बगावती तेवर अपना लिए हैं।

यूं भी गोरखपुर और फूलपुर और बाद के उपचुनावों में दिखी विपक्षी एकता और उसके नतीजे ने भाजपा के खेमे की नींद उड़ा दी थी। लेकिन राजनैतिक पण्डितों का मानना है कि सपा, बसपा, रालोद, कांग्रेस, राजभर पार्टी, महान दल जैसों का साझा विपक्ष बनना भी आसान नहीं है। वहीं कुछ का यह भी मानना है कि कम से कम सपा और बसपा के बीच बातचीत पूरी हो चुकी है। सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस को गठबंधन में शामिल करना है कि नहीं, इसी पर मंथन होना शेष है। उधर, कांग्रेस भी अभी नफे-नुकसान का आंकलन करने में जुटी है। कांग्रेस के रणनीतिकारों की सोच है कि अल्पसंख्यकों का बड़ी संख्या में कांग्रेस की ओर रुझान बढ़ा है। वहीं वे सवर्ण मतदाता जो भाजपा का परित्याग करना चाहते हैं और सपा-बसपा गठबंधन के साथ भी नहीं जाना चाहते उनके लिए कांग्रेस ही एकमात्र और बेहतर विकल्प है। ऐसे में लोकसभा चुनाव में और उप्र में कांग्रेस को अकेले ही ताल ठोंकनी चाहिए और गठबंधन पर चर्चा चुनाव परिणामों के बाद के लिए रखी जाये। यह भी कटु सत्य है कि तमाम सर्वे बताते हैं कि भाजपा को यूपी में 2014 की तुलना में पचास सीटों का नुकसान हो गया तो मोदी का दोबारा सत्ता में आना असंभव हो जाएगा। इतना ही नहीं राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ तथा गुजरात में सीटें घटने का साफ लक्षण भी नजर आ रहे हैं।

उधर, बिहार में भी स्थितियां भाजपा के लिए बहुत कुछ अनुकूल नहीं हैं। यह भी सच है कि नीतीश कुमार के लालू से नाता तोड़ने के बाद और भाजपा का साथ पकड़ने के बाद भी वहां पर चालीस में से इकत्तीस सीटें जीत पाना मुश्किल ही है। धरातल पर जो परिदृश्य है उसके मुताबिक इस बार यादव, मुसलमान और दलितों के एक हिस्से का जैसा ध्रुवीकरण दिख रहा है। वहीं भाजपा और एनडीए के लिए पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली में भी 2014 को दोहराना आसान नहीं दिख रहा। रही बात दक्षिण में भी बाकी राज्यों में उसे खास जमीन नहीं मिली है पर कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के साथ आने से उसकी मुश्किलें बढ़ गई हैं। ऐसे में सारी उम्मीदें ओड़िशा और पश्चिम बंगाल पर सिमटती दिख रही है। लेकिन बात प. बंगाल की हो तो यह भी सच है कि यहां धुंआ तो बहुत है पर धार नहीं दिख रही है। हालांकि इस प्रांत में ममता बनर्जी भी भ्रमित दिख रही हैं। वहीं ओड़िशा में अब भी नवीन पटनायक का जादू चलता साफ देखा जा सकता है। ऐसे में साफ है कि यदि भाजपा, अमित शाह और नरेन्द्र मोदी को 2019 में फिर से केन्द्रीय सत्ता में काबिज होना है तो उन्हें विपक्षियों को धराशायी करने के लिए कोई नयी और अनोखी रणनीति के साथ मैदान में उतरना पड़ेगा अन्यथा 282 का आंकड़ा सीधे-सीधे एक सौ के आसपास कम होता साफ दिख रहा है।

  • अभिषेक त्रिपाठी

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