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भारत के परमाणु प्लांट में प्रतिष्ठान में माहौल में भिन्नता, कहीं खुशी तो कहीं चिंता

Indian coast guards ride on a boat near the Russian-built Kudankulam Atomic Power Project, background, during a protest at Kudankulam, about 700 kilometers (440 miles) south of Chennai, Tamil Nadu state, India, Monday, Oct. 8, 2012. Construction of the plant has been delayed by protests in the past year by residents and anti-nuclear groups against the loading of nuclear fuel in the Russian-built reactor and about safety following the Fukushima nuclear power plant disaster in Japan last year. (AP Photo/Arun Sankar. K)

एजेंसी/नयी दिल्ली: भारत के बेहद सुरक्षित परमाणु प्रतिष्ठान में माहौल में भिन्नता है। दक्षिण भारत स्थित परमाणु प्रतिष्ठान में जहां खुशी का माहौल है, वहीं पश्चिमी भारत स्थित प्रतिष्ठान का माहौल चिंता वाला है।

भारत के अंतिम छोर यानी कन्याकुमारी के पास ही स्थित भारत के सबसे बड़े परमाणु उर्जा पार्क कुडनकुलम का संचालन शुरू हो चुका है। 1,000 मेगावाट के दो परमाणु रिएक्टरों में पहली बार परमाणु विखंडन की अभिक्रिया हो रही है। पहली इकाई ने वर्ष 2013 में बिजली की आपूर्ति शुरू कर दी थी और दूसरी इकाई इस सप्ताह सक्रिय हो गई। यह इकाई कुछ ही सप्ताह में ग्रिड को बिजली की आपूर्ति शुरू कर देगी।

वहीं, यहां से लगभग 2000 किलोमीटर की दूरी पर माहौल कुछ गमगीन है क्योंकि गुजरात में स्वदेश निर्मित काकरापार परमाणु उर्जा स्टेशन संयंत्र के एक हिस्से में रिसाव के बाद लगभग चार माह से बंद है। इसके बाद पूर्ण संचालित संयंत्र को आपात स्थिति में बंद करना पड़ा था।

 

भारतीय परमाणु इंजीनियरों का बड़ा सिरदर्द इस बात को लेकर है कि जांच के कई माह बीत जाने के बावजूद ‘रिसाव’ का कारण एक रहस्य बना हुआ है। आम तौर पर नरम लेकिन चौकस रूख रखने वाली भारत की परमाणु निगरानी संस्था परमाणु उर्जा नियामक बोर्ड (एईआरबी) ने एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया, ‘काकरापार परमाणु उर्जा स्टेशन की इकाई एक के प्रशीतन चैनल से इसके जीवनकाल की शुरुआत में ही रिसाव हो जाने से चिंताएं पैदा हुई हैं।’

श्रीलंका से ज्यादा दूरी न रखने वाले कुडनकुलम में परमाणु रिएक्टरों का संचालन शुरू होने में 14 साल का समय लग जाना रामायण में भगवान राम को मिले 14 साल के ‘वनवास’ जैसा ही है। कुडनकुलम का परमाणु ‘वनवास’ 10 जुलाई 2016 को तब जाकर पूरा हुआ, जब रूस निर्मित परमाणु रिएक्टरों की दूसरी इकाई में पहला निरंतर परमाणु विखंडन शुरू हुआ। शुरूआती दो इकाइयांे का निर्माण वर्ष 2002 में शुरू हुआ था और तब इसे पांच साल में संचालित करने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन आज उस अवधि का लगभग तीन गुना समय बीत चुका है। इन अवसंरचनात्मक परियोजनाओं का समय बीतते जाना भारी पड़ता है खासकर तब जब तमिलनाडु में बिजली की भारी कमी है।

कुडनकुलम के बड़े रिएक्टरों के संचालन में विभिन्न कारणों के चलते देरी हुई है- एक तो रूसी उत्पादकों की ओर से विभिन्न हिस्सों की आपूर्ति में देरी हुई। दूसरा कारण यह रहा कि जब आज से महज तीन साल पहले इसकी पहली इकाई संचालित हुई तो परमाणु-विरोधी आंदोलन ने लगभग तैयार खड़े परमाणु रिएक्टरों में काम बाधित कर दिया।

इस संयंत्र के संचालक भारतीय परमाणु उर्जा निगम लिमिटेड (एनपीसीआईएल) के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक एसके शर्मा ने इस बात की पुष्टि की कि आज कुडनकुलम के दो परमाणु रिएक्टरों की लागत 22 हजार करोड़ रूपए से अधिक की है। 10 साल की देरी के कारण यह लागत लगभग 9000 करोड़ रूपए बढ़ गई। यह राजकोष के लिए एक बड़ा नुकसान है।

एसपी उदय कुमार जैसे परमाणु-विरोधी स्थानीय कार्यकर्ता इन रिएक्टरों को ‘असुरक्षित’ बताते हैं और इन्हें रिएक्टरों के आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगी के लिए एक बड़ा खतरा मानते हैं। कार्यकर्ताओं के दावों का विरोध करते हुए परमाणु उर्जा आयोग के अध्यक्ष श्रीकुमार बनर्जी ने कुडनकुलम रिएक्टरों को ‘दुनिया के सबसे सुरक्षित रिएक्टरों में से एक’ बताया था।

दोनों रिएक्टरों का संचालन शुरू होने के दिन एनपीसीआईएल ने एक बयान जारी कर रूस निर्मित इन रिएक्टरों को ‘‘जनरेशन थ्री प्लस’’ के परमाणु उर्जा संयंत्र कहकर पुकारा। एनपीसीआईएल ने इन्हें ‘ऐसे परिष्कृत रिएक्टर कहा, जिनमें सुरक्षा का उच्चतम स्तर सुनिश्चित करने के लिए ऐसे परिष्कृत सुरक्षा मानक लगे हैं, जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हैं। इनमें सुरक्षा के ऐसे सक्रिय और निष्क्रिय तंत्रों की कई परतें हैं, जो संयंत्र, जनता और पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करती हैं।’ कुडनकुलम के आसपास परमाणु-विरोधी आंदोलन को हवा मिलने के पीछे की वजह कई कारणों का मेल जान पड़ता है। संयंत्र के अधिकारी मानते हैं कि वे इदिन्थाकरै के गांव तक पहुंच बनाने में और वहां के लोगों को संयंत्र की सुरक्षा व्यवस्थाओं के बारे में मनाने में सफल नहीं हो सके।

इसके अलावा, कुडनकुलम संयंत्र की पहली इकाई जब वर्ष 2011 में तैयार हो रही थी, तभी जापान के फुकुशिमा में हुए परमाणु हादसे ने दुनिया को हिलाकर रख दिया था। कुडनकुलम के आसपास रहने वाले मछुआरों के समुदाय में डर का स्तर बहुत बढ़ गया था। इस असंतोष को तब और हवा मिल गई, जब इसी दौरान एनपीसीआईएल ने बड़े रिएक्टर के दबाव निकालने वाले वॉल्व का एक अहम परीक्षण आधी रात में कराया। यह एक बेहद बड़े प्रेशर कुकर जैसा माना जा सकता है। इसमें 1000 मेगावाट के रिएक्टर से भाप निकलती है और इसके कारण जो आवाज पैदा हुई, वह रिएक्टरों से 20 किलोमीटर की दूरी पर भी सुनी गई।

जरा सोचिए, कि रसोई में एक छोटा सा प्रेशर कुकर इतनी आवाज करता है कि आसपास के सभी लोगों को यह पता चल जाता है कि साथ वाले घर में कुछ पक रहा है। वहीं यह इससे लाखों गुना बड़ा था और इसकी आवाज ने यहां रहने वाले लोगों को हिलाकर रख दिया।

अब चूंकि पहले से कोई चेतावनी जारी ही नहीं की गई थी, इसलिए इस घटना से स्थानीय लोगों में यह डर बैठ गया कि फुकुशिमा के परमाणु रिएक्टरों की तरह कुडनकुलम में भी विस्फोट हो गए हैं। ऐसा कुछ हुआ नहीं था और यह महज एक नियंत्रित परीक्षण था लेकिन इसका संदेश गलत चला गया। इस आंदोलन के कारण शक्तिशाली परमाणु उर्जा विभाग को घुटने टेकने पड़ गए थे।

बड़ी-बड़ी दीवारों के पीछे छिपे और सशस्त्र बलों की सुरक्षा के बीच संचालित परमाणु उर्जा संयंत्रों से उपजे अज्ञात भय ने परमाणु-रोधी आंदोलन को हवा दे दी। कोई अनोखा ही कारण है कि परमाणु इंजीनियर रात के समय अपनी पूर्ण क्षमता के साथ काम करते हैं। आधी रात को किए गए प्रेशर वाल्व के परीक्षण से स्थानीय लोगों के मन में भय पैदा हो जाने के बाद, पहली और दूसरी इकाई दोनों के लिए परमाणु विखंडन की शुरूआत का काम अंधकार में ही डूब गया।

दूसरी इकाई के लिए गत रविवार रात आठ बजकर 56 मिनट का समय एक उपलब्धि वाला क्षण रहा। ऐसा लगता है कि अब स्थानीय लोगों ने थोड़ा विश्वास बना लिया है क्योंकि इस बार कोई विरोध प्रदर्शन देखने को नहीं मिले। स्थानीय लोगों ने शायद एक दीर्घकालिक सबक सीख लिया है लेकिन भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान अब भी सबकुछ जानकर भी अंजान बने रहने वाला तरीका अपना रहा है। वह एक साधारण सी बात नहीं समझ पा रहा कि महत्वपूर्ण काम दिन के समय ही किए जाने चाहिए।

यदि सरकार की योजना के मुताबिक भारत को वर्ष 2032 तक 63 हजार मेगावाट के परमाणु संयंत्र स्थापित करने हैं, तो इन रिएक्टरों के आसपास के लोगों के दिल और दिमाग को जीतने के लिए युद्धस्तर पर काम करना होगा। ऐसा एक सुझाव है कि एईआरबी को महत्वपूर्ण परीक्षणों के बारे में स्थानीय लोगों को संवेदनशील बनाया जाना अनिवार्य कर देना चाहिए और इस तरह के परीक्षण दिन की रोशनी में ही किए जाने चाहिए। कुछ ही सप्ताह में कुडनकुलम संयंत्र पूरी 2000 मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू कर देगा, जिससे तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और पुडुचेरी को बिजली की कमी दूर करने में मदद मिलेगी। भारत में अब कुल 22 रिएक्टर हैं, जिनकी क्षमता 6780 मेगावाट है।

अब बात करते हैं, भारत के ही उस संयंत्र की, जहां का माहौल चिंता वाला है। दक्षिणी गुजरात के काकरापार में स्थित 220 मेगावाट का भारत निर्मित परमाणु रिएक्टर 11 मार्च 2016 को विफल हो गया। इसमें एक रिसाव हो जाने के कारण स्वचालित प्रणालियों ने रिएक्टर को रोक दिया। हालांकि एईआरबी ने इस बात पर जोर दिया कि ‘संचालकों या जनता को इससे कोई नुकसान नहीं है।’ स्वीकार्यता के स्तर से ज्यादा विकिरण का रिसाव नहीं हुआ था और कोई भी इसके कारण बीमार नहीं हुआ। फिर भी इस ‘घटना’ के चार माह बाद भी, अब तक इस रिसाव के सटीक कारण का पता नहीं लगाया जा सका है। एईआरबी के अनुसार, प्रारंभिक जांच में पाया गया है कि ‘विफल हुए प्रशीतन चैनल में तीन दरारें पाई गई हैं। विफलता के विस्तृत विश्लेषण के लिए और कारणों का पता लगाने के लिए रिसने वाले चैनल को रिएक्टर से हटाया जाना अभी बाकी है।’ चैनल को हटाए जाने की तैयारी चल रही है। इसके लिए सावधानीपूर्वक नियोजन और तैयारी जरूरी है ताकि इसे हटाए जाने के दौरान विफलता की वजहों से जुड़ी जानकारी नष्ट न हो जाएं।

एक प्रशीतन चैनल के विफल हो जाने से भारत क्यों चिंतित हो गया? जिस किस्म के रिएक्टर में काकरापार में रिसाव हुआ है, उस किस्म के कुल 17 रिएक्टर भारत संचालित करता है। एईआरबी के अनुसार, कुल मिलाकर ऐसे 5000 प्रशीतन चैनल हैं। एईआरबी के अनुसार, तत्काल उपाय के तहत एनपीसीआईएल ने सभी सचांलित परमाणु स्टेशनों पर लगी संवेदनशील रिसाव संसूचक प्रणाली का पुन: परीक्षण कर लिया है। फिर भी एईआरबी ने यह कहकर खतरे की झंडी दिखा दी कि ‘काकरापार इकाइयों में चल रही जांचों के दौरान प्रशीतन चैनलांे पर स्थानीय क्षरण के निशानों के संकेत मिले हैं। एईआरबी ने अन्य इकाइयों के प्रशीतन चैनलों की भी जांच करने के लिए कहा, ताकि इस तरह के क्षरण की संभावना खारिज की जा सके।’

पर्याप्त समीक्षा के बाद, एईआरबी ने कहा कि ‘क्षरण के निशान विशेष तौर पर काकरापार इकाइयों में ही थे और अब तक जांचे गए अन्य रिएक्टरों में ऐसे निशानों के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।’ निश्चित तौर पर यह चिंताजनक है और जितनी जल्दी एनपीसीआईएल इन जांचों को पूरा कर ले, उतना ही यह भारत के महत्वाकांक्षी परमाणु कार्यक्रम के लिए बेहतर होगा। एईआरबी का कहना है, ‘काकरापार परमाणु उर्जा स्टेशन की पहली इकाई की विफलता की सटीक वजहों को विफलता के विश्लेषण के बाद ही स्थापित किया जा सकता है और इसमें काफी समय लगना है।’ भारत के पहले परमाणु पार्क के पूर्ण संचालन का जश्न मनाने वाले परमाणु वैज्ञानिक तंत्रों की विश्वसनीयता की जांच के लिए कितनी ही रातों की नींद कुर्बान कर देते हैं ताकि किसी भी हादसे से बचा जा सके। परमाणु समुदाय की मेहनत के पसीने के जरिए ही भारत की सभी परमाणु इकाइयों में एकबार फिर से खुशियां लाई जा सकती हैं।

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