कीचड़ से कीचड़ धोने की प्रतियोगिता
ज्ञानेन्द्र शर्मा
‘‘वही नाम, वही काम, कुछ भी नहीं बदला। चर्म रोगों का दुश्मन जालिम लोशन’’।
यह विज्ञापन रोज सुबह विविध भारती पर सुनाई देता है। मैं सोचता हूं कितना मुफीद बैठता है यह संसद की कार्यवाही को बाधित करने के निरंतर चलने वाले सिलसिले को। एक पक्ष तो दूसरा विपक्ष। आज विपक्ष वही करता है जो आज के सत्ता पक्ष वाले विपक्ष में बैठकर कभी किया करते थे। संसद की कार्रवाई को न चलने देने का मुसलसल प्रयास- चाहे कोई भी दल सत्तारूढ़ हो और चाहे कोई भी विपक्ष में हो। कुछ भी नहीं बदला। सुचारु रूप से कार्यवाही का दुश्मन एक ही है- भ्रष्टाचरण। मजे की बात यह भी है कि पक्ष और विपक्ष के बीच आज जो हो रहा है, वह तब भी वैसे ही होता था जब भाजपा विपक्ष में थी और कांग्रेस सत्ता पक्ष में। आज जबकि भाजपा पक्ष में है और कांग्रेस विपक्ष में हूबहू वही हो रहा है, जो उस समय होता था।
जरा याद करिए जब भारतीय जनता पार्टी ने मुख्य विपक्षी दल के रूप में टू जी प्रकरण पर संसद का पूरा का पूरा सत्र नहीं चलने दिया था। उस समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रारम्भ में इस प्रकरण की जांच कराने से इनकार कर दिया था। लेकिन बाद में संयुक्त संसदीय समिति का गठन हुआ था और तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा को त्यागपत्र देना पड़ा था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने एकदम सही कहा है मोदी सरकार वही पैमाने अब क्यों लागू नहीं कर रही है जिसकी मांग वह विपक्ष में बैठकर कांग्रेस की यूपीए सरकार से करती थी। उसका कहना है कि विपक्ष आज वही मांग कर रहा है जो भाजपा उस समय विपक्ष में रहकर किया करती थी। उसने पूछा है कि क्यों नहीं मोदी सरकार जांच बिठाती है और जांच पूरी होने तक क्यों नहीं उन सबको हटाती है जिन पर आरोप हैं- यानी सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान। राहुल गांधी ने कह दिया कि सुषमा स्वराज का कृत्य आपराधिक है तो शोर मच गया और भाजपा ने राहुल को मुकदमे की धमकी दे डाली। लेकिन ऐसा करते समय भाजपा भूल गई कि यू0 पी0 ए0 सरकार के दोनों कार्यकाल में यानी दस साल की समयावधि में खुद उसने ही उन मंत्रियों पर एफ0आई0आर0 दर्ज करने की मांग उठाई थी जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे।
वास्तविकता यह है कि कुनैन की वही गोली आज भाजपा के गले में अटकी है, जिसे वह विपक्ष में रहकर यूपीए की सरकार के लिए मुकर्रर करती थी। इतिहास बहुत पुराना नहीं है, सबको याद है। इसीलिए आज जब इतिहास अपने को दोहरा रहा है तो सबको सब कुछ याद है और लोग पूछ रहे हैं, अब भाजपा अपने बांट, माप, पैमाने क्यों बदल रही है? क्यों नहीं वह संयुक्त संसदीय समिति की जांच बिठाती है और जांच पूरी होने तक आरोपियों को क्यों नहीं हटाती है? भूमिकाएं बदल क्यों नहीं रही हैं? सिर्फ सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के नाम भर क्यों बदल रहे हैं? अगर तब भाजपा को संसद की कार्यवाही बाधित करके कांग्रेस को घेरने में मजा आ रहा था तो अब कांग्रेस भी तो वही स्वाद, वही मजा लेना चाह रही है- आपने हमें बहुत तंग किया तो अब हमारी बारी है। आखिरकार सोचने की बात यह है कि यदि ललितगेट और व्यापमं घोटाला तब हुआ होता जब कांग्रेस सरकार में होती तो भाजपा क्या करती? क्या वह चुप बैठ जाती? क्या वह संसद चलने देती? क्या वह धरना प्रदर्शन नहीं करती, बबाल नहीं करती? सुषमा स्वराज की जगह कोई कांग्रेसी विदेश मंत्री होता और यह जानते हुए कि ललित मोदी भगोड़ा है, उसकी मदद करता तो भाजपा क्या करती? राजस्थान में कांग्रेस का कोई मुख्यमंत्री होता और वह ललित मोदी को बचाने के लिए बाकायदा चिट्ठी लिखता तो भाजपा क्या करती? मध्य प्रदेश में किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री के रहते सरकार नौकरियों और प्रवेश परीक्षाओं में व्यापमं जैसा बड़ा घोटाला होता तो भाजपा क्या करती? इन सारे सवालों के जवाब भाजपा खुद अपने राजनीतिक कोष से तलाश ले तो सारी समस्या का समाधान निकल आएगा। उसे समझ में आ जाएगा कि एक जिम्मेदार सत्ता पक्ष के नाते उसे क्या करना चाहिए। वह सत्ता में है। उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह गतिरोध समाप्त करने का रास्ता खोजे। सत्ता पक्ष में होते हुए भी धरने पर बैठना भाजपा को शोभा नहीं देता। यह भी कदापि उचित नहीं है कि जब आरोपों में घिरे तिगड्डे की बात उठती है तो भाजपा राबर्ट वाड्रा पर आरोप मढ़ने लगती है। राबर्ट वाड्रा के खिलाफ तो बाकायदा जॉच बिठाई गई है और जांच का काम हरियाणा से लेकर राजस्थान तक में चल भी रहा है। तिगड्डे के किसी भी सदस्य की तो कोई जांच बैठी नहीं है।
दिक्कत यह है कि उच्च पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण पर कोई सार्थक बहस कभी छिड़ती ही नहीं। हर सत्तारूढ़ पार्टी अपनों के बचाव में जीजान लगा देती है चाहे आरोप कोई भी और किसी भी तरह के क्यों न लगें। दूसरी तरफ विपक्ष अपने कारनामे भूलकर सत्ता पक्ष के लोगों को घेरती है और उनके इस्तीफों की मांग करती है। सत्ता पक्ष न केवल इस्तीफों की मांग अस्वीकार कर देता है बल्कि जांच बिठाने को भी तैयार नहीं होता। आम तौर पर इस तरह की कुछ बहस छिड़ती है:-
विपक्ष: मंत्री भ्रष्ट हैं, इस्तीफा दें।
सत्ता पक्ष: आरोप क्षुद्र राजनीति से प्रेरित हैं। इस्तीफे का सवाल नहीं।
विपक्ष: आप भ्रष्ट हैं, कुर्सी छोड़ें।
सत्ता पक्ष: आप जब सत्तारूढ़ थे तो आपने भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे।
विपक्ष: आप भ्रष्ट हैं —
सत्ता पक्ष: आप तो भ्रष्टाचार के शिरोमणि हैं। अपने गिरेबान में भी तो झांकिए।
एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना एक नियम है और इन आरोपों पर किसी निष्कर्ष तक मामले को न पहुंचाना सबका शाश्वत लक्ष्य है। तुम भ्रष्ट हो और तुम तो हमसे ज्यादा भ्रष्ट हो, के सामूहिक निनाद से हमारा राजनीतिक रंगमंच सजता-धजता है। जब एक पक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो अपनी सफाई से पहले वह सामने वाले के भ्रष्टाचार के मामले गिनाने लगता है। कीचड़ से कीचड़ धोने की यह प्रतियोगिता हमारी रग रग में बस गई है। दस साल या 5 साल पहले किन्हीं और नेताओं पर आरोप थे तो आज दूसरों पर हैं। दूसरों पर लगे आरोप गिनाकर अपने को पाक साफ साबित करने की स्व-घोषणाओं की अंतहीन प्रक्रिया कहीं तो रुकनी चाहिए क्योंकि इस पूरे सिलसिले में आम जनता मूक दर्शक बनकर ठगा सा महसूस करती है। यह घारणा और बलवती हो जाती है कि अरे इन बड़े नेताओं का कभी कुछ नहीं बिगड़ता। ये एक दूसरे पर आरोप भी लगाते हैं और एक दूसरे को अंतत: बचा भी ले जाते हैं। इससे दुखद बात क्या हो सकती है कि भ्रष्टाचार के मामले दलगत राजनीति की भेंट चढ़ जाते हैं और पूरी प्रक्रिया में उनकी गंभीरता नष्ट हो जाती है। देशवासियों में सिस्टम, व्यवस्था, कानून के प्रति आस्था इसलिए भी नहीं पनप पाती कि जिन बड़े बड़ों के हाथों में इनकी रक्षा का दायित्य है, वे कहीं ज्यादा गैर-जिम्मेदाराना आचरण करते हैं। उनके लिए सिस्टम कोई मायने नहीं रखता, व्यवस्था को नष्ट करने के सबसे बड़े दूत वे खुद ही हैं और कानून उनकी जेब में है। साधारण आदमी तो आज यही सोचने को मजबूर है कि यदि आप बड़े आदमी है- आपके पास पैसा है, साधन हैं, राजनीतिक ताकत है तो कानून आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। फंसता वह है जो निर्धन है, साधनविहीन और नि:सहाय है। यही वह बिन्दु है जिसने हमारे गणतंत्र को कुरूप बना दिया है। अब इस बात पर विचार होना चाहिए कि जब कोई स्कैम सामने आए, घोटाला उजागर हो और बड़े नेता या मंत्रियों पर आरोप हों तब क्या हो? क्या ऐसे ही आरोप-प्रत्यारोपों के दौर और संसद के कामकाज में बाधा की प्रक्रिया चलने रहने देना चाहिए? कोई ऐसा तंत्र, ऐसी मैकेनिज्म तो होनी ही चाहिए कि जिसके अंतर्गत इन विवादों, आरोपों और तर्कों-वितर्कों या कुतर्कों का भी कोई समाधान निकले और आम लोग यह महसूस कर सकें कि भ्रष्टाचार या कदाचरण किसी राजनीति का नहीं, देश की अस्मिता से जुड़े मुद्दे हैं। ये वे मुद्दे हैं, जो देश को, देशवासियों को और समाज के हर वर्ग को संदेश देते हैं, दिशा देते हैं। कहा जाता है कि भ्रष्टाचरण को नीचे से नहीं ऊपर से ही रोका जा सकता है। ऊपर बैठे बड़े लोगों पर सख्त चाबुक नहीं चलता है तो फिर आप छोटे कर्मचारियों को ईमानदार रहने की नसीहत कैसे दे सकते हैं? आप तो इसके हकदार ही नहीं रह जाते हैं।
लोकपाल पर कई सालों से, कई मौकों पर, कई माध्यमों से और संघर्ष के कई रास्तों से बहस छिड़ चुकी है लेकिन केन्द्र में लोकपाल बनना अब भी एक मांग है, हकीकत नहीं। एक सख्त और व्यापक अधिकारों वाले लोकपाल से कई समस्याओं का निदान खोजा जा सकता था लेकिन आज यह सत्ताशाहों की प्राथमिकताओं में ही नहीं। बात वही है। आज के सत्ताशाह जब विपक्ष में थे तो लोकपाल उनका प्रिय विषय था लेकिन अब उससे उन्हें वितृष्णा है। वैसे भी लोकपाल जैसे संगठनों से भूतपूर्वों को नहीं वर्तमानों को ही ज्यादा डर होता है। लोकपाल जैसी ताकत जब तक खड़ी नहीं होती और उसकी जांच के दायरे में प्रधानमंत्री तक को नहीं ले आया जाता, तब तक हम शुचिता, सदाचरण और कानून-सम्मत राजकाज को अपनी कल्पनाओं से आगे कहीं नहीं ले जा सकते।