कोराना महामारी के दौरान ‘घर’ में ही रहने की अपेक्षा
हृदयनारायण दीक्षित
स्तम्भ : घर आनंद है। घर में होना अपनत्व में रहना है। बच्चे बाहर खेलने जाते हैं, खेलने के बाद घर लौट आते हैं। हम सब पूरे दिन बाहर काम करते हैं, काम के बाद घर लौट जाते हैं। हमारे प्राणों में घर का अदम्य आकर्षण है। घर का आर्षण जन्म से भी पुराना है। हम सब जन्म के पहले मां के गर्भ में होते हैं। मां का गर्भ हमारा पहला घर है। इस घर का ताप मां का ताप होता है। मां द्वारा लिया गया भोजन रस बनकर हम सबका पोषण करता है। इस घर में रोजी रोजगार की चिंता नहीं होती। मां का गर्भ श्रेष्ठतम स्वयंपूर्ण घर है। जन्म के बाद माता पिता या संरक्षक का घर हमारा घर हो जाता है फिर हमारी अभिलाषा में अपने घर की तड़प जन्म लेती है। हम घर बनाते हैं या किराए के घर में रहते हैं। हम कहीं भी रहें, घर पहुंचने की तीव्र इच्छा बनी रहती है। घर उत्तम आश्रय है।
कोराना महामारी में घर में ही रहने की अपेक्षा है। लेकिन कुछ लोग अपने ही घर में रहने का अल्पकालिक अनुशासन भी तोड़ रहे हैं। आखिरकार हम अपने ही घर परिवार में क्यों नहीं रह सकते? घर से बाहर अकारण घूमने का रस क्या है? घर में ऊबने या अवसादग्रस्त होने का कारण क्या है? हम वर्षा, गर्मी या शीत से बचने के लिए घर की ओर ही भागते हैं लेकिन वैश्विक आपदा में मृत्यु से बचने की गारंटी देने वाले घर में ही रहने में हमारा मन विचलित होने लगता है। संस्कृति और सभ्यता के इतिहास में सुंदर घरों के विवरण मिलते हैं। दुनिया की बहुमत जनसंख्या में देवों के प्रति आस्तिकता है। देव होते हैं कि नहीं होते यह बहस बेमतलब है। हम मनुष्यों ने देवों के भी घर बनाए हैं। अथर्ववेद ऋग्वेद में वरूण आदि देवों के भी घरों की चर्चा है।
घर रात्रि विश्राम के ही स्थल नहीं हैं। यहा आंतरिक ऊर्जा प्राप्त करने के पावर हाउस है। घर के प्रत्येक भाग का महत्व है। घर का भरापूरा व्यक्तित्व है। जैसे हम सब व्यक्तिगत रूप में हर्ष विषाद या शोक उल्लास में होते हैं, वैसे ही घर भी उदास होते हैं। परिवार के एक सदस्य के दुख में पूरा घर शोकग्रस्त होता है। घर के छोटे बच्चे के परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर पूरा घर आनंद में होता है। घर ईंट सीमेन्ट निर्मित काया और परिवार के सभी सदस्यों का बेमेल गठजोड़ नहीं होते। यहां एक का दुख सब पर बंट कर न्यून हो जाता है। इसी तरह एक का सुख आनंद सबका आनंद बनता है। आनंद बंटने पर बढ़ता है। दुख बंटने पर घटता है। घर में दोनो क्रियाएं प्रतिदिन प्रतिपल घटित होती रहती हैं। घर के बाहर श्रम है, कत्र्तव्यपालन का तनाव है। ऊर्जा का क्षय है। शारीरिक मानसिक थकान हैं। घर विश्रामपूर्ण आश्रय है, जीवन ऊर्जा का पुनर्नवा संचय है घर। आश्चर्य है कि हम घर में होने की आवश्यकता के बावजूद जीवन को दांव पर लगाकर घर से बाहर घूमने का आत्मघात अपना रहे हैं।
ऋग्वेद अथर्ववेद में राष्ट्र एक बड़ा घर है। उचित भी है राष्ट्र एक परिवार है। संपूर्ण राष्ट्र की एक जीवनशैली है। इस वृहद परिवार के करोड़ों सदस्यों के साझा समवेत स्वप्न हैं। दुख और सुख भी साझे हैं। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं में राष्ट्र के सभी नागरिकों की महत्वाकांक्षाएं भी अन्तर्सम्बन्धित हैं। जैसे सामान्य परिवार के लिए घर जरूरी है वैसे ही राष्ट्र परिवार के लिए भी घर जरूरी है। राष्ट्र की भौगोलिक सीमा इस वृहद परिवार वाले घर की सीमा है। राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सुख, आरोग्य पूर्ण जीवन सबकी अभिलाषा है। कोरोना महामारी का सम्बंध एक व्यक्ति से नहीं है। यह एक से अनेक हो जाने की शक्ति से लैस है। इसकी गति आश्चर्यजनक है। यह राष्ट्र राज्य की सीमा नहीं मानती। सारी दुनिया में इसका प्रकोप है। मृत्यु का ताण्डव है, शवो के ढेर हैं।
भारतीय पुराणों में वैराग्य के दो प्रमुख केन्द्र बताए गए हैं। इनमें ज्ञान पहला है। ज्ञानी संसार की आंतरिक गतिविधि का अध्ययन करते हैं। सृष्टि के प्रपंचों में कार्य कारण खोजते हैं। उन्हें संसार की व्यर्थता की अनुभूति है। माया मोह समाप्त हो जाता है। पूर्वजों ने इसे ज्ञान वैराग्य कहा है। दूसरे वैराग्य को श्मसान वैराग्य कहा गया है। हम परिजनों की मृत्यु पर श्मसान जाते हैं। परिजन की मृत काया को आग में जलता देखते हैं। श्मसान क्षेत्र में अन्य तमाम शव भी दिखाई पड़ते हैं। परिजनों को बिलखता देखते हैं। सबका जाना सुनिश्चित दिखाई पड़ता है। ऐसे सोच विचार में जीवन की क्षणभंगुरता की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। पूर्वजों मनीषियों ने इसे श्मसान वैराग्य कहा है। भारत में काल और मृत्यु पर्यायवाची भी है। कहते हैं कि इनका काल आ गया। सो परमधाम चले गए।
परम धाम भी घर हैं। भारतीय चिंतन में घर की महत्ता है। श्रेष्ठ कर्मो वाले मृत्यु के बाद परमधाम जाते है। धरती पर इसकी तुलना मंत्री, अफसरों या धन संपन्न लोगों के सुविधा संपन्न सुरक्षित आवासीय क्षेत्रों से की जा सकती है। लेकिन मृत्यु वैज्ञानिकों के लिए बड़ी चुनौती है। वैदिककाल के ऋषियांे से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक युग तक दीर्घजीवन के प्रयास हैं। 100 वर्ष या इससे ज्यादा का जीवन तमाम प्रार्थनाओं में है। 60-70 वर्ष के पहले स्वस्थ जीवन की मृत्यु अकाल मृत्यु कही जाती है। कोरोना की गिरफ्त में अकाल मृत्यु का तांडव है। इसकी दवा नहीं है। संक्रमण रोकने के लिए परस्पर दूरी बनाए रखना ही एकमात्र विकल्प है।
कोरोना आश्चर्यजनक आक्रमण है। यह बीमारी स्वयं के शरीर का विकार नहीं है। यह दूसरे के माध्यम से ही आती है। दूसरे को भी दूसरे से ही मिलती है। इसके संक्रमण में दूसरे की ही भूमिका है। दूसरे से दूर रहने की सावधानी से ही बचाव की गारंटी है। दूसरा बुहत महत्वपूर्ण है। दूसरे से दूरी की सावधानी हटी, महामारी की संभावना बढ़ी। दूसरा और दूरी इस महामारी से सुरक्षा के दो बीज शब्द हैं। उपासना की भाषा में इन्हें बीज मंत्र कह सकते हैं। दूसरे से दूर रहने की उपासना का मंदिर घर है। घर के सभी लोग दूसरों से दूर रहने का व्रत निभाएं। धर्म पंथ के व्रत पालन में भोजन न करने आदि की कठोर निष्ठा का निर्वहन करना होता है। लेकिन घर में मजे से रहकर दूसरों से दूरी बनाए रखने का व्रत अतिसरल है।
घर सुंदरतम सुरक्षा कवच है। सभी प्रकार की सुरक्षा चिंता को दूर करने के लिए घर का आविष्कार हुआ था। अथर्ववेद (3.12.5) में इसके स्पष्ट संकेत हैं। कहते हैं, “हे घर! सृष्टि के प्रारम्भ में प्राणियों को हर्ष देने के लिए देवों ने आपका सृजन किया था। आप उत्तम मनवाले हैं। हमें ऐश्वर्य दें।” अथर्ववेद के रचनाकाल में घर निर्माण की सामग्री में बांस की भूमिका मुख्य थी। अथर्ववेद में कहते हैं, “हे वंस! आप घर के बीच खड़े रहें। घर के भीतर रहने वाले कभी हिंसित न हों। हम सपरिवार 100 वर्ष से ज्यादा की आयु प्राप्त करें।” (वही 3.12.6) यहां 100 वर्ष की आयु पर जोर है। ऋषि का ध्यान रोगों पर भी है। जल पवित्र करते हैं, अग्नि संरक्षण देते हैं। ऋषि कहते हैं, “हम रोग विनाशक, रोगरहित जल को अग्नि देव के साथ घर में रखते हैं।” (वही 9) आधुनिक संदर्भ में कह सकते हैं कि हम स्वच्छता के लिए जीवाणुनाशक सैनीटाइजर व साबुन घर में रखते हैं। शरीर की रोग निरोधक क्षमता बढ़ाने वाले अन्न फल व औषधि भी घर में रखते हैं। समय संदर्भ बदला करते है। शाश्वत अपरिवर्तित रहता है। उपकरण नए हो जाते हैं।
घर असाधारण आशवस्ति है। ऋग्वेद अथर्ववेद और महाकाव्य काल में रचे गए ग्रंथो में सुंदर गृहों के वर्णन हैं। घरों के प्रति प्रगाढ़ आत्मीयता व भावुकता है। अथर्ववेद (9.3.19) में ‘घर कवियों द्वारा प्रशंसित व सुयोग्य जानकारों द्वारा निर्मित बताया गया है। इन्द्र से स्तुति है कि वे इस शाला – गृह का संरक्षण करे।” घर की महिमा होती है। इसके भीतर और बाहर घर की प्रतिष्ठा का प्रवाह होती है। एक ऋषि घर की महिमा का अनुभव सभी दिशाओं में करते हैं। वे कहते हैं, “शाला (गृह) की पूर्व दिशा की महिमा को नमस्कार है ‘प्राच्या दिशः शालाया नमो महिम्ने। दक्षिण दिशा की महिमा को नमस्कार – दक्षिणाया दिशः नमो महिम्ने। (वही 9.3.25-26) इस शब्दावली में पश्चिम और उत्तर दिशा की शाला-गृह महिमा को नमस्कार करने के बाद ऊध्र्व दिशा व प्रत्येक को भी नमस्कार करते हैं।” (वही 27, 28-31) आधुनिक चुनौती में अपने घर परिवार में ही रहना ही कत्र्तव्य है।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)