जारी है जुबानी जंग
परदे के पार
रामपुरी खां साहब एक बार फिर सूबे की सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं। अपनी आदत से बाज नहीं आने वाले खां साहब ने एक बार फिर शांत तालाब में पत्थर फेंककर हलचल पैदा कर दी है। पहले जौहर विश्वविद्यालय को लेकर तत्कालीन लाट साहब के खिलाफ जुबानी जंग उन्होंने छेड़ रखी थी और अब नगर निकायों को लेकर एक बार फिर उन्होंने सूबे के प्रथम नागरिक पर आक्षेप लगाने से गुरेज नहीं किया है। उनके व्यंग्य बाण के बाद लाट साहब भी सख्त हो गए और उन्होंने सूबे के सरकार के मुखिया से उनकी शिकायत कर दी। लेकिन खां साहब कहां बाज आने वालों में से थे। वे राजभवन पर हमले जारी रखे हुए हैं। उनके चक्कर में सरकार के मुखिया को मीडिया के सामने बार-बार सफाई देनी पड़ रही है कि सरकार और राजभवन के बीच के रिश्ते मधुर हैं। इधर यह सफाई आती है उधर खां साहब फिर कुछ ऐसा बोल जाते हैं कि सारे किए कराये पर पानी फिर जाता है। लगता है एक बार फिर खां साहब को राजभवन ले जाया जायेगा और फिर बंद कमरे में माफी के बाद गिले-शिकवे दूर करने पड़ेंगे।
सस्ती हुई शाम की दवाई
साल 2012 में जब विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार पूरे जोर-शोर से चल रहा था तब साइकिल सवार एक युवा नेता, जो बाद में सूबे की सरकार का मुखिया भी बना, ने शाम की दवाई सस्ती करने का वादा किया था। उसके बाद सूबे में सरकार बनी लेकिन शाम की दवाई सस्ती नहीं हुई उलटे कुछ महंगी ही हो गयी। अब जब कि सरकार अपने चार साल का कार्यकाल पूरा कर चुकी है और चुनाव सिर पर हैं तब जाकर सरकार ने शाम की दवाई सस्ती की है। हालांकि सरकार के इस कदम के पीछे वादा पूरा करना नहीं बल्कि सूबे में बढ़ रही अंगूर की बेटी की तस्करी कारण रही। इस बीच पड़ोसी राज्य में पूर्ण रूप से शराब बंदी लागू हो गयी है। इस पर जब सरकार के मुखिया से पूछा गया तो वे बोले ऐसा करने का यूपी में कोई विचार नहीं है। सरकार तो उसके दाम कम करने में लगी है। साफ है कि चुनावी साल में शाम की दवाई सस्ती और सर्वसुलभ हो जाने का हो सकता है चुनाव में कोई लाभ हो।
हाथी व हाथ दोनों की राहें अलग
दलित समाज के लोगों व संतों को अपना बनाने की होड़ इन दिनों राजनैतिक दलों के बीच छिड़ी हुई है। देश के सबसे बड़े सूबे में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से गोटियां बिछायी जाने लगीं हैं। कभी कोई अम्बेडकर के शरणागत हो रहा है तो कोई संत रविदास के। मकसद सिर्फ एक है दलित वोट। अब भला ऐसे में जो राजनैतिक दल इस पर अपना एकाधिकार समझता है उसका भड़कना लाजिमी है। सो हाथी वालों ने दूसरे दलों को नसीहत देना शुरू कर दिया। साथ ही यह भी याद दिलाना शुरू कर दिया कि उन्होंने सत्ता में रहते दलितों के लिए क्या-क्या किया। सबसे पुरानी पार्टी के युवराज ने भी बहनजी की जमकर आलोचना की तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। पहले तो यह माना जा रहा था कि हाथी और हाथ साथ मिलकर 2017 में ताल ठोंकेंगे लेकिन अब युवराज के हमले और उसके बाद हुए पलटवार से इसकी संभावनायें क्षीण होती दिख रही हैं।
पानी पर भी सियासत
अब इसे ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा कहें या फिर कुछ और लेकिन सच्चाई यह है कि दिनोंदिन चढ़ रहे पारे ने लोगों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। बढ़ती गर्मी के कारण पेयजल का भी संकट गहराता जा रहा है। इन तमाम समस्याओं के बीच भी क्या कोई अपना राजनैतिक नफा-नुकसान सोच सकता है। जी हां, दिल्ली के मफलर मैन इसमें से भी कुछ निकालने के चक्कर में हैं। खुद दिल्ली, हरियाणा और उप्र के बल पर किसी तरह अपने लिए पानी हासिल कर पा रहा है लेकिन जब महाराष्ट्र के लातूर में भयानक पेयजल संकट हुआ तो मफलर मैन बोले मैं भी अपनी स्टेट से पानी देने को तैयार हूं। जब उनसे पूछा गया कि पानी तो दिल्ली खुद दूसरों से लेकर अपनी जरूरतें पूरी कर रही है। ऐसे में आप कहां से पानी देंगे। इस पर मफलर मैन बोले पानी तो जिसे देना होगा वही देगा। हमें तो सिर्फ अपनी संवेदनशीलता दिखानी थी सो दिखा दी और अब ‘फुल पेज’ विज्ञापन तो दे ही सकते हैं। इसे कहते हैं हर मौके का फायदा उठाना।
संघ से मुक्ति का सपना
वर्ष 2014 में जब देश में आम चुनाव हो रहे थे तब नमो ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। उनके नारे का यह असर हुआ कि संसद में कांग्रेस सदस्यों की संख्या एक चौथाई ही रह गयी। उसके बाद यह सिलसिला महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर तक में जारी रहा। इतना सब हो जाने के बावजूद नमो ने अभी उसका पीछा छोड़ा नहीं है। इस बीच बिहार में चुनाव हुआ तो भगवा पार्टी को वहां अपेक्षित सफलता नहीं मिली। विकास बाबू ने वहां बाजी मारी और फिर से सरकार के मुखिया बन गए। बस यही से उन्हें यह मुगालता हो गया वे नमो का विकल्प बन सकते हैं। इसी सोच को लेकर उन्होंने छोटे-छोटे राजनैतिक दलों को एक मंच पर लाने का काम शुरू कर दिया और साथ ही उन्होंने नमो को उनकी ही भाषा में जवाब देते हुए देश को भगवा पार्टी और उसके मातृ संगठन यानि संघ से मुक्त कराने का नारा दे डाला। अब उन्हें कौन समझाये कि देश और प्रदेशों में हो सकता है भगवा पार्टी की सरकार न रहे लेकिन संघ मुक्त भारत का सपना देखना मुंगेरी लाल के सपने जैसा ही है।
भगवा पार्टी के केशव
महाभारत का जब युद्ध हुआ तो कृष्ण यानि केशव ने पांडवों का साथ दिया और अंत में पांडवों की ही जीत हुई। अब जबकि देश के सबसे बड़े सूबे में चुनावी महाभारत होने को है तो भगवा पार्टी की जिम्मेदारी भी केशव के कंधों पर डाली गयी है। पार्टी पहले से ही सूबे की सत्ता में पूर्ण बहुमत से काबिज होने का सपना संजोये हुए है। नये अध्यक्ष इस सपने को कैसे साकार करेंगे यह तो देखने वाली बात होगी लेकिन उन्हें महिमा मण्डित करने के लिए पार्टी के उत्साही कार्यकर्तागण तरह-तरह की होर्डिंग और पोस्टर बनाकर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ चिन्टू साबित करने में जुट गए हैं। लेकिन उनका यह दांव उलटा पड़ गया है। दरअसल इन होर्डिंग्स को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना भगवा पार्टी के नवनियुक्त मुखिया की ही हुई। बाद में उन्होंने कार्यकर्ताओं को अनुशासन का पाठ पढ़ाया और भविष्य में ऐसा कुछ न करने की सख्त हिदायत दी। लेकिन चूंकि अभी पार्टी के नए मुखिया को अपनी टीम बनानी है इसलिए उनकी परिक्रमा करने वालों की तादाद दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। हालांकि इसी गणेश परिक्रमा के चलते सूबे में भगवा पार्टी को यह दिन देखना पड़ रहा है।