भारतीय समाज को भारतीय नजरिये से समझने की एक कोशिश
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भाग-4
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1500–1900 के कालखंड उपनिवेशवाद, नरसंहार, स्थानिक आबादी का उत्पीड़न, प्रवासी यूरोपीय जन का आधिपत्य आदि का ही मानो वर्णन है। यूरोप की समृद्धि उसी के बल पर बढ़ी। पर मानसिकता मे कबीलाईपन, हथियारवाद पर भरोसा, अपनी जनसंख्या वृद्धि, परस्पर छीना-झपटी ही गहरे रूप में यूरोपीय मानस में बैठी थी। इसलिये उपनिवेशवाद धीरे-धीरे साम्राज्यवाद और एकाधिपत्य के संघर्षों के रूप में तब्दील हुआ।
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के कारण, स्वरूप और परिणाम को उसी आलोक मे देखना चाहिये। स्वाभाविक ही था कि इस प्रतिस्पर्धा मे उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का स्वरूप प्रत्यक्ष से कुछ बदलकर परोक्ष उपनिवेशवाद का रूप लेता। हथियार प्रत्यक्ष भर आयात-निर्यात का व्यापार आदि हथियार बनते। धरता और ढके, मुंदे आर्थिक साम्राज्यवाद का स्वरूप प्राप्त होता।
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय देशों का उपनिवेशों की जमीन पर पैर टिकाना अब पहले की तरह संभव नही था। फलतः सैनिक साम्राज्यवाद के पूरक शस्त्र के रूप में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों ने भी आकार लिया।
अमेरिका, मानस की दृष्टि से इंग्लैंड के एंग्लो सेम्सन प्रोटेस्टेंटिज्म का ही विस्तार था।
मध्य और लैटिन अमरीका अन्य यूरोपीय देश विशेषतया स्पेन, पुर्तगाल का विस्तार कहा जा सकता है।
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अफ्रिका मे उपनिवेशों पर कब्जा बनाये रखने की कोशिश में 50 के दशक से रूस और अमेरिका शामिल हो गये। पूर्व एशिया का भी लगभग यही हाल रहा।
इस बीच दुनिया मे दो और देश उभरते यह तो स्वाभाविक था। भारत और चीन वे देश थे। भारत को यूरोपीय परिधि मे रखने की कोशिश इंग्लैंड और अमेरिका द्वारा हुई ही। चीन ने अपने को बंद कर लिया। अपने विस्तारवादी स्वभाव के अनुरूप पैर पसारता गया।
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कॉमनवेल्थ की सदस्यता भारत के सत्ताधीशों ने स्वीकार की थी। यूरोपीय परिधि मे भारत को रखने की यूरोपीय मंशा इस मायने मे कारगर रही। चीन ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता नही ली। यह गौर करने लायक बात है। संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके अंगो का निर्धारण, संरचना, संचालन आदि की कमान यूरोप, अमेरिका के हाथ ही रही।
भारत के पास मौक़ा था कि वह अपनी सभ्यतामूलक जड़ों की ओर लौटता। उससे रस, ताकत ग्रहण करता और भारत को भारत बनाये रखते हुए जगत मे स्थान बनाता। यह असंभव तो बिलकुल नहीं था। केवल स्वत्वबोध, स्वाभिमान के आधार पर आत्मविश्वास पूर्वक बढ़ने की जरुरत थी। पर हम सब चूक गये। देश के नेतृत्व ने पश्चिम और रूस के अनुकरण की राह पकड़ ली।
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देश का नेतृत्व लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के लिये अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस का मुखापेक्षी रहा। साथ ही वे लोग रूस के भीमकाय आकार की आर्थिक प्रगति की संरचना से बुरी तरह प्रभावित होने के कारण आर्थिक विकेंद्रीकरण को ताकत न मानकर कमजोरी मान बैठे।
भीमकायपन का अनुकरण भारत के नीति निर्धारक लोगों को भा गया क्योंकि उनकी जीवनयात्रा पश्चिम की दुनिया की चमक-धमक से प्रभावित थी। देशज ताकत, मेधा, प्रतिभा, ज्ञान परंपरा की घोर उपेक्षा की गई।