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राज सिंह डूंगरपुर और सलीम दुर्रानी के दोस्त व यूपी क्रिकेट के हितैषी गुलाम मोहिउद्दीन नहीं रहे

कानपुर (संजीव मिश्र): क्रिकेट को ही अपना जीवन मान लेने वाले कानपुर के वयोवृद्ध खिलाड़ी गुलाम मोइनुद्दीन नहीं रहे। पत्थर रो सकते तो 88 वर्ष के अपने इस स्थायी दर्शक और शुभचिंतक को खोकर ग्रीनपार्क स्टेडियम भी आज जरूर रोया होता। अपनी अंतिम सांस तक क्रिकेट को जीने और उसके भले के लिए सोचने वाले उनके जैसा दूसरा क्रिकेटर नहीं देखा। कुछ दिनों पहले ही उनका फोन आया तब उनकी आवाज ने ही बता दिया था कि सेहत काफी ठीक नहीं है लेकिन उन्हें अपनी फिक्र थी भी कहां, वे तो यूपी क्रिकेट की खराब सेहत के लिए परेशान रहते थे। जब उनसे कहा कि आपकी तबीयत काफी खराब लग रही है हम लोग बाद में बात कर सकते हैं तब जोर लगाकर बोले नहीं मैं ठीक हूं। अल्लाह मियां से अभी बुलावा नहीं आया है लेकिन बात सुनिए आपको इसलिए फोन कर रहा हूं कि यूपी क्रिकेट के लिए कुछ लिखिए। यह कहां था और कहां पहुंच गया! पता नहीं था कि यह उनसे आखिरी बार बात हो रही है।

घुटनों की तकलीफ ने घर से निकलना बंद हो गया था

यानि अंत तक खराब सेहत के बावजूद उनकी फिक्र यूपी क्रिकेट की गिरती सेहत को लेकर ही थी। वे यूपी क्रिकेट की दशा से काफी निराश थे, बोले भाई अब तो मैं घुटनों की तकलीफ बढ़ने की वजह से घर से निकल भी नहीं पा रहा हूं। अब आप लोग ही क्रिकेट को पटरी पर लाने के लिए कुछ करिए। कहां मिलेगा किसी खेल का इतना बड़ा प्रशंसक और एक सच्चा क्रिकेट हमदर्द। क्रिकेट की बेहतरी के लिए बार-बार आवाज उठाने वाले खिलाड़ियों के मार्गदर्शक की कमी क्रिकेट और उसके चाहने वालों को हमेशा शिद्दत से खलेगी। गुलाम मोहिउद्दीन यूं तो युनिवर्सिटी लेवल तक ही खेले थे लेकिन उनका क्रिकेटीय ज्ञान और अनुभव का लोहा यूपी क्रिकेट से जुड़ा हर व्यक्ति मानता था।

छोटे-छोटे मैचों के दौरान भी ग्रीनपार्क में मौजूद रहते

उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के लाइफ मेम्बर और कानपुर क्रिकेट एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य मोहीउद्दीन क्रिकेटरों की हौसलाफ्जाई के लिए छोटे-छोटे लोकल मैचों के दौरान भी स्टेडियम में बैठे दिख जाते थे। एक साल से घुटनों में तकलीफ की वजह से उनका घर से निकलना लगभग बंद हो गया था। यही वजह थी कि यूपीसीए की एजीएम में पहली बार वे नहीं दिखे। यूपीसीए में जब-जब उन्हें कुछ गलत दिखा उन्होंने उसके खिलाफ जोरदार तरीके से आवाज उठाई। वह क्रिकेट हित में खरी बात करने के लिए मशहूर थे इसीलिए यूपीसीए के पूर्व सचिव राजीव शुक्ला भी उनका सम्मान करते थे और उनको किसी न किसी कमेटी में जरूर सक्रिय रखते थे।

क्रिकेट ने ही दिलाई नाम और शोहरत

मोहीउद्दीन चमड़े के व्यवसाय से भले ही जुड़े रहे लेकिन उनको नाम और शोहरत क्रिकेट ने दिलवाई। उनके काफी नजदीक पूर्व तेज गेंदबाज शलीश बेग ने बताया कि जब उन्हें कोई भूमिका सौंपी गई, हर बार वे पूरी तरह खरे उतरे। गुलाम मोहिउद्दीन के बारे में रणजी मैचों के दौरान बाहर से आने वाले खेल पत्रकार शर्त लगाया करते थे कि देखना कि वे जरूर स्टेडियम में होंगे। और होता भी यही था। पहली बॉल डाले जाने से पहले ही कानपुर क्रिकेट का सबसे बुजुर्ग खिलाड़ी मैदान में डटा मिलता था। यह सिलसिला 86 की उम्र तक बदस्तूर जारी रहा। जब 87 के हुए तो आना थोड़ा कम हो गया क्योंकि तब वे शरीर और खासकर घुटनों कमजोर हो जाने की वजह से अकेले निकलने हिचकने लगे थे।

ग्रीन पार्क के हक की लड़ाई में सबसे आगे रहे

मोहिउद्दीन, एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने ग्रीन पार्क के लिए लड़ाइयां भी लड़ीं। उन्होंने यूपीसीए पदाधिकारियों की खुशामद कर कोई बड़ा पद लेकर बैठने की बजाय क्रिकेट के लिए आवाज बुलंद करने को ही प्राथमिकता दी। वह 2012-13 बड़ौदा और 2014 में यूपी की रणजी टीम के साथ प्रशासनिक प्रबंधक के रूप में इंदौर गए, जहां यूपी को मध्य प्रदेश के खिलाफ चमत्कारिक वापसी करते हुए जीत मिली थी। वह उस ऐतिहासिक कानपुर स्पोर्ट्स क्लब के सचिव भी रहे, जो क्लब 1889 में ग्रीन पार्क स्टेडियम में अंग्रेजों द्वारा शुरू किया गया था।

इंग्लैंड गए तो सबसे पहले लॉर्ड्स देखने पहुंचे

खेल के प्रति उनका जुनून ऐसा था कि एक बार लंदन में उन्होंने अपने दोस्त से सबसे पहले ‘क्रिकेट का मक्का’ कहे जाने वाले लॉर्ड्स के ग्राउंड देखने की गुजारिश की। 1961-62 और 1964 में इंग्लैंड की टीम के खिलाफ नारी कांट्रेक्टर और नवाब मंसूर अली खान पटौदी की कप्तानी में आई भारतीय टीम के वे लोकल मैनेजर रहे। मोहिउद्दीन 1970 और 1972 में हनुमंत सिंह की कप्तानी में पहली व दूसरी बार दिलीप ट्रॉफी चैम्पियन बनी सेन्ट्रल जोन टीम के मैनेजर रहे। इसके बाद भी कई भारतीय टीमों के जिसमें बिशन सिंह बेदी की कप्तानी वाली टीम भी शामिल है, मोहिउद्दीन लोकल मैनेजर बनते

क्रिकेट ने ही सब कुछ दिया, कई प्यारे दोस्त भी दिए

शहर में चमड़े का व्यवसाय चलाने वाले लंबी कद काठी के गुलाम मोहिउद्दीन अक्सर मुलाकात के दौरान कुछ किस्सों का जिक्र करते रहते। वे कहते क्रिकेट ने मुझे सब कुछ दिया है। मुझे कई प्यारे दोस्त भी दिए, हालांकि इसका दुख है कि वह मुझे छोड़कर अल्लाह मियां के पास मुझसे पहले चले गए। दिग्गज बल्लेबाज सलीम दुर्रानी व राजसिंह डूंगरपुर उनके अच्छे दोस्तों में थे। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष स्व. राज सिंह डूंगरपुर का जिक्र तो हर बार उनकी जुबां पर ही रहता था। 1984 में, जब राज सिंह डूंगरपुर पाकिस्तान दौरे पर गई भारतीय क्रिकेट टीम के मैनेजर थे, तो मोहिउद्दीन भी उनके साथ वहां गए थे। दुर्भाग्य से इंदिरा गांधी की हत्या के कारण दौरा छोटा कर दिया गया था।

तसल्ली से बैठे होते तो पुरानी यादों में खो जाते थे मोहिउद्दीन

मैच के दौरान जब गुलाम मोहिउद्दीन तसल्ली से बैठे होते तो अपनी डूंगरपुर और सलीम दुर्रानी से गहरी दोस्ती को खूब याद करते। बताते कि हम और राज तब दोस्त बने जब मैं सेंट्रल जोन टीम की टीम को लेकर बतौर मैनेजर बेंगलुरू गया था। यह बात 1970 की है। सेंट्रल कॉलेज ग्राउंड में साउथ ज़ोन को हराकर पहली बार हमने दलीप ट्रॉफी जीती थी। राज सिंह डूंगरपुर से हमारा मेलजोल बढ़ता गया। पिछले कुछ सालों में वे बार-बार अपनी पुरानी यादों को कुरेदते रहते थे।

सलीम दुर्रानी से सिगरेट छोड़ने की गुजारिश करते थे

वह बताते थे कि सलीम दुर्रानी चेन स्मोकर थे। मुझे उनकी बहुत फिक्र रहती थी। मैं उनसे पिछले कुछ सालों से ईद और बकरीद पर ही फोन पर बात कर पाता था। लेकिन जब भी बात होती तो उनकी सेहत की खैर खबर लेने के बाद उनसे गुजारिश करता कि हमारी दोस्ती की खातिर ही सिगरेट छोड़ दो। सलीम दुर्रानी के निधन पर गुलाम मोहिउद्दीन काफी दुखी हुए थे और कहते थे कि अब जिंदगी बोनस में जी रहा हूं, इसमें कुछ मजा नहीं रहा। राज सिंह डूंगरपुर के बाद मेरा दूसरा दोस्त सलीम दुर्रानी भी साथ छोड़कर चला गया।

जब डूंगरपुर ने अचानक लता जी से बात करवा दी

गुलाम मोहिउद्दीन जब भी मिलते तो एक और किस्सा बताना नहीं भूलते थे वह था राजसिंह डूंगरपुर से मुंबई में मुलाकात पर अचानक अपनी दोस्त लता मंगेशकर को फोन मिलाकर उन्हें पकड़ा देने का। वह बताते कि एक बार राज सिंह ने बातों-बातों में लता मंगेश्कर को फोन मिलाकर उनसे कहा लीजिए मेरे कानपुर से आए एक अजीज दोस्त गुलाम मोहिउद्दीन से बात कीजिए। मैं हड़बड़ा गया, क्योंकि इसके लिए कतई तैयार नहीं था। मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि उनसे क्या बात करूं। मैंने लता जी की प्रशंसा की और इसके बाद झट से राज सिंह के हाथों में फोन थमा दिया। इसके बाद मैंने मजाकिया लहेजे में राज सिंह को हड़काया कि यार तुमने तो बिना बैट, ग्लब्स, हेलमेट और पैड के बाउंसर का सामना करने के लिए विकेट पर खड़ा कर दिया।

ग्रीनपार्क का स्थाई टेस्ट दर्जा खत्म होने से बचाने वाले मोहिउद्दीन ही थे

वह अक्सर एक किस्सा और बताते कि 1974-75 में जब बीसीसीआई ने क्लाइव लॉयड के नेतृत्व वाली वेस्ट इंडीज टीम के दौरे के दौरान ग्रीन पार्क के स्थाई टेस्ट सेंटर के दर्जे को खत्म कर दिया तो वे विरोध करने में सबसे आगे थे। टेस्ट मैच को ग्रीनपार्क की जगह बेंगलुरू को आवंटित कर दिया गया। वह बताते थे कि जेएन त्रिवेदी, सुखमोहन सिंह और पीएन तिवारी के साथ चंडीगढ़ गए और वहां बीसीसीआई की बैठक में भूख हड़ताल पर बैठने की धमकी दे दी। आखिरकार बीसीसीआई को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा और उस समय के अध्यक्ष एमए चिदम्बरम ने मुझसे मुस्कराते हुए कहा कि आपके ग्रीन पार्क को परमानेंट टेस्ट सेंटर का दर्जा वापस दे दिया।

जब गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया मोहिउद्दीन को

ऐसी ही एक कहानी 1979-80 में पाकिस्तानी टीम के भारत दौरे के दौरान सामने आई थी। उस समय टेस्ट मैच दिए जाने के बाद राज्य सरकार ग्रीनपार्क में मैच के आयोजन की इजाजत देने के मूड में नहीं थी। उस समय भी मोहिउद्दीन ने सुमेर अग्रवाल, सुखमोहन सिंह, बाबू खान व अन्य के साथ मिलकर तत्कालीन मुख्यमंत्री बनारसी दास का घेराव किया था। इस पर सभी को गिरफ्तार कर लिया गया और 18 घंटे से अधिक समय तक सलाखों के पीछे रखा गया। लेकिन, अच्छी बात यह रही कि सरकार झुक गई और आसिफ इकबाल की अगुवाई वाली टीम ने ग्रीन पार्क में भारत के खिलाफ टेस्ट खेला।

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