राष्ट्रीय

इंदिरा गांधी यदि त्यागपत्र दे देतीं तो ?

के. विक्रम राव

स्तंभ: आज (12 जून 2022) भारतीय इतिहास ने (47 वर्ष पूर्व) दो घटनाओं का होना देखा था। दोनों युगांतकारी तथा युगांतरकारी थे। काशीवासी लोहियावादी, (जो सोशलिस्ट कहलाना पसंद करते हैं न कि समाजवादी) ने याद दिलाई इन दोनों बातों की। तब (1975) सुबह का वक्त था। अहमदाबाद में गुजरात विधानसभा के चुनाव की मतगणना हो गयी थी। तभी ग्यारह सौ किलोमीटर दूर इलाहाबाद (प्रयागराज) स्थि​त हाईकोर्ट से न्यूज फ्लैश आया। राजनारायणजी की चुनाव याचिका स्वीकार हो गयी। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का रायबरेली से (मार्च 1971) का चुनाव भ्रष्टाचार के लिए अवैध करार दिया। वे अब पदासीन नहीं रह सकतीं। उपरोक्त दोनों वाकये अनहोनी नहीं थे। गुजरात विधानसभा में इंदिरा कांग्रेस की पराजय तथा प्रधानमंत्री का संसदीय चुनाव रद्द होना निश्चित था। ऐसा ही हुआ। फिर आपातकाल लगाना, विपक्षी जननायकों की लंबी कैद सब जानी मानी है।

आज यह प्रश्न समीचीन है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर करते जवाहरलाल नेहरु के पुत्री ने त्यागपत्र क्यों नहीं दिया ? करीब आधी सदी होने को आ रही हैं।अनुसंधानकर्ता तथा इतिहासकार अभी भी उत्तर तलाश रहे हैं। अंधेरे कमरे में काली बिल्ली की खोज जारी है, जो कमरे में हैं ही नहीं। उस दौर में हम बड़ौदा डायनामाइट के अभियुक्त तिहाड़ जेल में मंथन करते थे कि यदि इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री पद छोड़ देतीं, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय मान कर रायबरेली से अपने रद्द किये गये लोकसभा के चुनाव पर सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार की अपील दायर करतीं, फैसले की प्रतीक्षा करतीं। तब तक किसी माकूल कांग्रेसी को खड़ाऊं प्रधानमंत्री बना देतीं जो वक्त आने पर उनके खातिर हट जाता। अपनी जनपक्षधर छवि को तब वे गहरा बना देतीं। इससे उनके दोस्त दंग और दुश्मन तंग हो जाते। फलस्वरूप नेहरू-गांधी परिवार का सत्तावाला सिलसिला अटूट बना रहता और फिर अगले वर्षों तक सत्ता से परिवार अलग नहीं रहता। इस कीर्तिमान को विश्व का कोई भी राजवंश तोड़ न पाता। हालांकि अब यह प्रश्न महज अकादमिक रह गया है। फिर भी इतिहास वेत्ताओं को पड़ताल करनी चाहिये। इस अगर-मगर के सवाल का उत्तर खोजना चाहिए, ताकि भविष्य में सावधानी बरती जा सके।

लेकिन इन प्रश्नों पर मेरी सुनिश्चित राय वैसी ही है जैसी 26 जून 1975 के दिन थी। इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री पद कभी भी नहीं छोड़तीं। उनके पैतृक संस्कार, उनकी निजी सोंच, राजनीतिक प्रशिक्षण और कौटुम्बिक कार्यशैली, इन्दिरा गांधी को इस लोकतांत्रिक चिन्तन तथा व्यवहार को अंगीकार करने के लिए कतई कायल न बनातीं। भारतीय संविधान बनाने वाले महारथियों ने ही वे प्रावधान रचे थे जिनके तहत राष्ट्रपति बस एक हस्ताक्षर से सारी राजसत्ता को समेट कर महात्वाकांक्षी और अधिनायकवादी प्रधानमंत्री को उपहार में दे सकता था। यही हुआ भी।

एक और मुद्दा तिहाड़ जेल में हम लोगों की चर्चा में उभरता था। यदि 1975 वाली स्थिति जवाहरलाल नेहरू के समक्ष आ जाती तो वे कैसे निबटते ? कुछ बन्दीजन, जो अटल बिहारी बाजपेयी के प्रभाव में रहते थे, की राय थी कि नेहरू उदार थे अतः पद छोड़ देते। मेरा पूर्ण विश्वास था कि नेहरू 1975 वाली परिस्थिति में इन्दिरा गांधी से बेहतर करते। वे अपना एकाधिकार ही नहीं, सम्राटनुमा शासन देश पर लाद देते। आजादी के पूर्व ‘‘माडर्न रिव्यू’’ में नेहरू ने छद्म नाम से लेख लिखा था, कि ”सत्ता पाकर क्या नेहरू तानाशाह बन जायेंगे ? “यह एक शगूफा तब नेहरू ने छोड़ा था कि कांग्रेसी उनके बारे में कैसी आशंकायें रखते हैं? संविधान बनने के बाद लखनऊ के काफी हाउस में एक ने राममनोहर लोहिया से पूछा था कि ‘‘कौन अधिक शक्तिशाली है? राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री?’’ लोहिया का उत्तर था; ‘‘निर्भर करता है कि जवाहरलाल नेहरू किस पद पर आसीन रहते हैं।’’ इतिहास गवाह है कि अधिकार और सत्ता पाने के लिए नेहरू ने क्या-क्या प्रहसन नहीं रचे।

आपातकाल के दौरान तथा गिरफ्तारी के पूर्व हमारे साथी इस विचार मंथन से भी गुजर चुके थे कि तानाशाह का वध कर दिया जाय। धार्मिक पुस्तकों में इसकी अनुमति है। भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण प्रधानमंत्री पुष्यमित्र शुंग ने निकम्मे, नकारा मगध सम्राट वृहद्ररथ को मारकर जनवादी काम किया था। मगर इस मुद्दे पर मेरा तर्क साथियों ने विवेकपूर्ण ढंग से स्वीकार किया। तानाशाह के तिरोभूत होने मात्र से लोकशाही नहीं लौट आती है। इन्दिरा गांधी जाती तो संजय गांधी सत्ता की बाट जोहता रहता। व्यवस्था तो वही रहती। लेकिन लातिन अमरीकी राष्ट्रों में क्या होता आया है ? सत्ता पर काविज होते ही क्रान्तिकारी शासक प्रतिक्रान्तिकारी बन जाता है और तानाशाह भी। अतः हमने तय यही किया कि जनविरोध के रूप में सांकेतिक और सूचक वारदातों को अंजाम दिया, जाये, ताकि गुप्तचर संस्थायें इन्दिरा गांधी को दहशत में डालती रहेंगी कि देश में विरोध मुखरित हो रहा है। मतदान द्वारा ही उसे कम किया जा सकता है। अतः संसदीय निर्वाचन करायें। बड़ौदा डाइनामाइट षड़यंत्र केस के हम पच्चीस अभियुक्त – प्रथम जार्ज फर्नांडिस, द्वितीय मैं (के. विक्रम राव), फिर सांसद वीरेन शाह जो बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने, गांधीवादी प्रभुदास पटवारी जो तमिलनाडु के राज्यपाल बने, आदि पर सीबीआई यह आरोप लगा ही नहीं पाई कि हमारी क्रियाओं से कोई प्राणहानि हुई हो। हम अहिंसक रहे।

हालांकि हमलोग जेल कभी भी नहीं जाना चाहते थे। हम तब भूमिगत अखबार निकालना, पोस्टर-पर्चे आदि भेजना, अन्य प्रदेशों के भूमिगत नेताओं को गुजरात में शरण देना आदि करते थे। चूंकि गुजरात में तब इन्दिरा-कांग्रेस को पराजित कर विधान सभा में जनता मोर्चा की सरकार बनी थी और मोरारजी देसाई के अनुयायी बाबूभाई पटेल मुख्यमंत्री थे, तो गुजरात में मीसा अथवा अन्य काले कानून लागू नहीं थे। मगर यह सीमित प्रजाशाही बस साल भर तक चली। फिर गुजरात भी देश की मुख्य धारा (तानाशाही वाली) में आ गया। गिरफ्तार होने के पूर्व एक खास जिम्मेदारी मैंने निभाई थी। महाराष्ट्र-गुजरात सीमा पर भूमिगत नेताओं को पिकअप करना, अपनी कार में बैठाकर अहमदाबाद लाना। एक दिन एक व्यक्ति को लाने का जिम्मा था।

तब हम सबका नियम था कि नाम नहीं पूछा जाएगा। क्योंकि पुलिस के दबाव में सूचनायें गुप्त न रह पातीं। वह व्यक्ति मुझे परिचित लगा। बुश शर्ट, पैन्ट और काले बालों से पहचानने में देर हुई। फिर याद आया कि अपने विश्वविद्यालय के दिनों में पानदरीबा चौरस्ते पर बने भवन की पहली मंजिल पर भारतीय जनसंघ के प्रादेशिक कार्यालय में मिला करता था। याद आया वे नानाजी देशमुख थे। मगर कर्पूरी ठाकुर को पहचानने में मुझे देर नहीं लगी। वही गूंजती आवाज़, वही आकर्षक आंखें। सिख वेश धारे जार्ज फर्नांडिस का तो मैं ड्राइवर ही बन गया था। एक बार सूरत शहर के पास पेट्रोल भराने गया तो चाय की तलब लगी। जार्ज भी गाड़ी से बाहर उतरे। वहीं एक और सिख मिल गया और जार्ज से पंजाबी में बतियाने लगा। इस कन्नड़भाषी ईसाई को बड़ी कठिनाई से साड्डा, तुस्सी और गल शब्द रटाये थे। सत्श्री अकाल सिखाया था। इसके पहले कि असली सिख नकली सिख को पकड़ लेता मैं जार्ज को गाड़ी पर लाद कर फुर्र हो गया।

आज सैंतालीस वर्ष पूर्व की कुछ घटनायें दिमाग में धूमकर आ जाती हैं। खासकर बड़ौदा जेल वाली। एक रिपोर्टर ने मेरी अदालती पेशी पर पूछा कि कौन सी चीज याद आती है और किस की कमी अखरती है मैंने जवाब दिया कि जेल में टेलिफोन की घंटी नहीं सुनाई पड़ती, जो बड़ी कचोटती है। अखबार भी नहीं मिलते। मगर यह की कमी धीरे-धीरे दूर हो गई, जब एक युवक बड़ौदा जेल में रोज अखबारों का बण्डल दे जाता था, और जेलर साहब मोहम्मद मलिक मेहरबान हो जाते। बाद में पता चला कि यह फुर्तीला युवक एक स्वयं सेवक था जिसका नाम है नरेन्द्र दामोदर दास मोदी, अधुना प्रधानमंत्री। एक अन्य याद है मेरे तनहा सैल की, जिसमें बड़ौदा नरेश महाराजा सयाजीराव ने 19वीं सदी में केवल फांसी की सजा पानेवाले ही रखे जाते थे। यहां मेरे पहले रहे कैदी ने दीवाल पर लिखा था कि ”यह दिन भी बीत जाएगा।“ बड़ा ढाढस बन्धता था कि आपातकाल की अंधेरी सुरंग के उस छोर में रोशनी दिखेगी, शीघ्र।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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