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के.एल. सहगल से बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए जैसे गीत गवाने वाले फिल्म निर्माता “फनी मजूमदार”

विमल अनुराग

पुण्यतिथि पर विशेष

भारतीय सिनेमाई जगत की गरिमा और महिमा को सम्मान देने वाले लोग आज फिल्म निर्माता निर्देशक फनी मजूमदार की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। भारतीय सिनेमा को नई दिशा और दशा देने वाले निर्देशकों में से एक थे फनी मजूमदार। आपको किशोर कुमार के मानसिक संगीत गुरु के. एल. सहगल (कुंदन लाल सहगल) तो याद ही होंगे।

के.एल. सहगल की मशहूर फिल्म स्ट्रीट सिंगर (वर्ष 1938) के निर्माता थे फनी मजूमदार साब। इससे भी खास बात यह है कि इसी फिल्म में वो मशहूर अमर गीत भी था, ” बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए” जिसने विदाई के समय के मर्म के अप्रतिम साज के रूप में ख्याति अर्जित की थी। फनी एकमात्र भारतीय फिल्म निर्माता थे जिन्होंने 9 भाषाओं में फिल्में निर्देशित की थीं। 

28 दिसंबर, 1911 को पूर्वी बांग्लादेश के फरीदपुर में जन्मे फनी मजूमदार ने भारतीय सिनेमा को रोचक आयाम दिए। 1930 के दशक में उन्होंने पी. सी. बरुआ के साथ कलकत्ता के न्यू थियेटर स्टूडियो में काम किया। पीसी बरुआ को भारत में डीडब्ल्यू ग्रिफिथ के कद का रचनाकार माना जाता था। 1941 में बॉम्बे आए और शास्त्रीय संगीत के फिल्मों को निर्देशित किया। 1942 में उनकी फिल्म तमन्ना में सुरैय्या ने काम किया तो 1943 में मोहब्बत में शांता आप्टे ने। 1951 में पंडित नेहरू के कांग्रेस पार्टी की गरिमा बढ़ाने और राष्ट्रवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने “आंदोलन” नामक फिल्म निर्देशित की। 1960 के दशक में फनी मजूमदार सिंगापुर से काम कर वापस लौट आए और कुछ भिन्न भिन्न भाषाओं में फिल्में निर्देशित करने लगे। इनमें पंजाबी, मगधी और मैथिली भाषाओं की फिल्में भी शामिल थीं। मगधी में उन्होंने 1961 में भईया और मैथिली में 1965 में कन्यादान फिल्म निर्देशित की।

इससे पूर्व 1961 में चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी के बैनर तले उनकी फिल्म आई थी” सावित्री”। 1962 में राजश्री प्रोडक्शन के बैनर तले आई फिल्म आरती जिसके सदाबहार नगमें आज भी मन को तरोताजा कर देते हैं। इसी फिल्म का एक लाजवाब गीत था –

कभी तो मिलेगी, कहीं तो मिलेगी
बहारों की मंज़िल राही।
लम्बी सही दर्द की राहें
दिल की लगन से काम ले,
आँखों के इस तूफ़ाँ को पी जा
आहों के बादल थाम ले
दूर तो है पर, दूर नहीं है
नज़ारों की मंज़िल राही
बहारों की मंज़िल राही।
माना कि है गहरा अन्धेरा
गुम है डगर की चाँदनी
मैली न हो, धुँधली पड़े न
देख नज़र की चाँदनी
डाले हुए है, रात की चादर
सितारों की मंज़िल राही
बहारों की मंज़िल राही

इसी फिल्म में रफी साब ने गाया था अब क्या मिसाल दूं मैं तुम्हारे शबाब की और आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया।  1965 में उन्होंने अशोक कुमार और मीना कुमारी अभिनीत फिल्म “आकाशदीप ” निर्देशित की थी। आकाशदीप का एक गीत मुझे काफी पसंद हैं और आपलोगों को भी होगा ही-

दिल का दिया जला के गया,
ये कौन मेरी तन्हाई में,
सोये नग़मे जाग उठे,
होंठों की शेहनाई में
दिल का दिया …
प्यार अरमानों का दर खटकाए
ख़्वाब जागी आँखों से मिलने को आये,
कितने साये डोल पड़े, सूनी सी अंगनाई में।
दिल का दिया …

इसी फिल्म में मन्ना डे ने एक गीत गाया था जो आज लॉकडाउन के समय मजदूरों का साज बना हुआ है – ” घर में ना चावल, बाजार में ना दाल। इस गीत को मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था और इसे चित्रगुप्त ने संगीत दिया था।

1965 में चित्रकला के बैनर तले उनकी फिल्म “ऊंचे लोग “आई। वर्ष 1966 में उन्होंने फिल्म अभिनेता अशोक कुमार को लेकर फिल्म बनाई जो थी-तूफ़ान में प्यार कहां। मुन्ना, ममता और बदलते रिश्ते जैसी फिल्में भी इन्होंने गढ़ी। रामायण जैसे सुप्रसिद्ध टीवी सीरियल में भी इन्होंने अपना योगदान दिया था। 16 मई, 1994 को इस महान रचना धर्मी का निधन हो गया था।

(लेखक संगीत, साहित्य, कला संबंधी मामलों के जानकार हैं)

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