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‘साहेब बीवी और ग़ुलाम’ फिल्मों की दुनिया में गुरुदत्त की बादशाहत का उत्तम सबूत है

मनीष ओझा

नई दिल्ली: 2014 की बात है मशहूर मज़मेंकार ‘कमल प्रूथी’ जी के लक्ष्मीनगर स्थित आवास पर फ़िल्मी चर्चा चल रही थी, अच्छे अच्छे साहित्य और कला प्रेमी बैठे थे,  मैं भी था। चर्चा का मुख्य विषय था हॉलीवुड व बॉलीवुड का तुलनात्मक आकलन। हॉलीवुड के समर्थन में एक से एक ब्रम्हास्त्र नुमा तर्क प्रस्तुत हो रहे थे कुछ तीर बॉलीवुड के समर्थन में भी निकली लेकिन जबराट तर्क शस्त्रों से लैश हॉलीवुड समर्थकों को अट्टहास का  मौका देने के अलावा कोई अन्य प्रभाव डालने में नाकाम ही रहे और उधर से जो तर्क आते तो सारे बॉलीवुडिया समर्थक लगभग मूर्छित हो जाते, उसी बीच एक वरिष्ठ मित्र ने सामने वाले को चारों खाना चित्त करने की गरज से कुछ फ़िल्मों  का नाम (काग़ज़ के फूल,  मुगले आज़म,  दो बीघा ज़मीन, गाइड , साहेब बीवी और ग़ुलाम आदि) गिनाते हुए कहा कि टेक्नोलॉजी और बजट की कमी के बावज़ूद भी समस्त संसाधनों का तुलनात्मक आकलन कर लिया जाए तो इन फ़िल्मों को आप कमतर सिद्ध नहीं कर पाएंगे, ये फिल्में हमारे हिन्दी फिल्मों की तो नायाब हीरा हैं ही वहीं वैश्विक पटल पर मज़बूती से हमारे खड़े हो सकने का आधार भी हैं। इस बात से सब सहमत हुए और उपरोक्त में से जितनी फिल्में मैंने देखी थी उस आधार  पर मैं भी , लेकिन इसमें फ़िल्म “साहेब बीवी और ग़ुलाम” का नाम आया जो तब तक मैं नहीं देख सका था। बाद में जब मैंने इस फ़िल्म को देखा तो इसके निर्देशन, लेखन, अभिनय और गानों ने मुझे दीवाना बना दिया। साहेब बीवी और गुलाम के प्रशंसकों की यदि सूची बनाई जाए और दीवानगी के आधार पर स्थान दिया जाए तो मेरा स्थान अव्वल रहेगा। इस फ़िल्म के मेरे जैसे न जाने कितने दीवाने आज भी मुझे मिल जाते हैं।

मैं कृतज्ञ हूँ उस सौभाग्यशाली वर्ष  का जब गुरुदत्त साब ने प्रसिद्ध बंगला लेखक विमल मित्र का लिखा ये उपन्यास पढ़कर फ़िल्म बनाने के बारे में सोचा होगा।यह फ़िल्म ज़मीदारी प्रथा की दरकती दीवारों के बीच रुतबे रसूख में गिरावट के बावजूद अड़ियल रवैया रखते हुए अय्याशियों में लिप्त होकर दिनों दिन मिटने को आमादा एक ज़मीदार परिवार पर आधारित है। फ़िल्म के केंद्र बिंदु में पति का प्यार  पाने की अभिलाषा लिए निकृष्टतम कार्य  तक कर गुजरने वाली छोटी बहू , बीवी को तड़पता छोड़ कोठे और शराब में रात बिताने वाले निर्दयी साहेब और उसके यहां काम करने वाला  एक  भोला भाला कर्मचारी भूतनाथ है।

भूतनाथ से याद आया इस फ़िल्म के निर्माण से जुड़े तमाम किस्से फ़िल्मी गलियारों में सुनने को मिलते हैं। विमल मित्र का उपन्यास पढ़ने के बाद एक बार गुरु दत्त साब कलकत्ता किसी काम से गये हुए थे इत्तेफ़ाक़ से उन्हें बंगला भाषा में साहेब बीवी और ग़ुलाम पर आधारित नाटक देखने का मौका मिला। गुरु दत्त साब नाटक में  भूतनाथ का अभिनय कर रहे अभिनेता विश्वजीत की अदाकारी से बहुत प्रभावित हुए। नाटक ख़त्म हुआ और गुरु दत्त साब ने विश्वजीत से मिलकर बधाइयां दीं और लगे हाथ उन्हें अपनी बहुप्रतीक्षित फ़िल्म साहेब बीवी और ग़ुलाम में भी भूतनाथ का किरदार करने का शानदार ऑफ़र दे दिया। विश्वजीत भी हिन्दी फ़िल्मों में जाने का ये रास्ता छोड़ना नहीं चाहते थे। लिहाजा दत्त साब का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया परन्तु कुछ शर्तों को लेकर न जाने क्या बात हुई कि विश्वजीत से बात न बन सकी।

अब गुरुदत्त साब के दिमाग़ में, भूतनाथ के रोल के लिए अभिनेता शशि कपूर, काफ़ी गहराई से बैठ गए। तमाम कोशिशों के बावजूद भी बदक़िस्मती से  इस फ़िल्म का हिस्सा शशि जी भी नहीं बन सके, उसके बाद और भी तमाम अभिनेताओं से संपर्क किया गया लेकिन बात नहीं बनी। कहते हैं जब इतिहास रचा जाना होता है तब क़ायनात सबसे बड़े सहायक की भूमिका निभाती है,  यहां भी यही हुआ फ़िल्म के निर्देशक अबरार अल्वी साब के आग्रह करने पर इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर गुरु दत्त ही भूतनाथ का किरदार करने को राज़ी हो गए। कहने की ज़रूरत नहीं कि मासूम से चेहरे से दत्त साहब ने भूतनाथ को जीवंत कर दिया। साहेब की भूमिका के लिए अभिनेता रहमान को चुना गया।

अब बात फंसी छोटी बहू के किरदार के लिए मुफ़ीद नायिका ढूंढने की।  इस महान कार्य के लिए  गुरु दत्त और अबरार साब ने तमाम ट्रायल के बाद  मीना कुमारी को फ़ाइनल किया , और फिर सब जानते हैं कि प्यास, तड़प, नशा, विरह हर भाव को पूर्णतयः पर्दे पर उतारकर मीना कुमारी ने छोटी बहू के किरदार को अमरत्व प्रदान कर दिया । इस फ़िल्म से मीना कुमारी जी का एक और  संबंध है , कहा जाता है मीना जी छोटी बहू के किरदार को अपना हमज़ाद कहती थीं। जिस तरह छोटी बहू अय्यास पति का  प्रेम पाने के लिए शराब में डूब जाती हैं ठीक वैसा ही मीना जी की असल ज़िन्दगी में भी हुआ, कमाल अमरोही से बिछड़ने के बाद मीना जी शराब में इस क़दर डूबीं कि मरणोपरांत ही इस दर्द से छुटकारा पा सकीं।

फ़िल्म का एक और दिलचस्प किस्सा मशहूर है कि छोटी बहू का किरदार निभाने का वहीदा रहमान जी ज़िद पाल बैठी थीं। उन दिनों वहीदा जी स्टारडम का सुख भोग रहीं थीं,  उनके पास फिल्मों की कोई कमी न थी किन्तु इस फ़िल्म से उन्हें न जाने क्या जुड़ाव था कि वो मानने को तैयार न थीं। ज़िद के आगे हार मानते हुए अबरार अल्वी साब ने एक ट्रायल रखा जिसमें वहीदा जी को छोटी बहू के फुल कॉस्ट्यूम में आने को कहा,  वहीदा जी आईं  भी लेकिन वहां मौजूद सभी सदस्यों की राय ये बनी कि वहीदा जी कद से छोटी दिखती हैं इसलिए वे इस किरदार में सटीक नहीं बैठतीं। बहुत समझाने के बाद वहीदा जी ने छोटी बहू का रोल करने का तो ज़िद त्याग दिया किन्तु फ़िल्म से मोह  न त्याग सकीं और बाद में उन्हें फ़िल्म की दूसरी अहम महिला किरदार जबा का रोल दिया गया। वहीदा जी ने इस किरदार को बखूबी निभाया और उन पर फ़िल्माया गया गाना ‘ भंवरा बड़ा  नादान है ‘ खूब पसंद किया गया।

फ़िल्म बनकर तैयार हुई और उसके हर किरदार ने इतिहास रच दिया। अबरार अल्वी साहब का निर्देशन  कमाल का रहा। मणि कौल जी का स्क्रीनप्ले धीरे धीरे मीठी चाल में चलकर स्टेशन तक पहुंचने वाली गाड़ी की तरह लाजवाब था। गीत संगीत तो आज भी लोगों की पसंदीदा लिस्ट की गरिमा बढ़ा रहे हैं। विमल दा की कहानी की तारीफ़ के लिए मेरे शब्द की कोई आवश्यकता ही नहीं। फ़िल्म ने ढेरो अवार्ड्स अपने नाम किये। यह फ़िल्म हिन्दी फिल्मों के इतिहास के महत्वपूर्ण पन्नों में से एक है। ‘साहेब बीवी और ग़ुलाम ‘ का क्लाइमेक्स  फ़िल्म की पवित्र आत्मा है।

साहेब बीवी और गुलाम अपने समय से काफी आगे की फ़िल्म थी। अबरार अल्वी और गुरु दत्त साब ने एक एक नगीना चुनकर ये जो शिल्प तैयार किया था उसने हमारे फ़िल्म उद्योग को रीढ़ की हड्डी प्रदान की है। इस फ़िल्म का एक मशहूर गाना ‘ न जाओ सइयां छुड़ा के बैयां , कसम तुम्हारी मैं रो पडूँगी , दर्द के साथ एक उत्तेजना भी क्रिएट करता है, जिसे फिल्माना 60 के दशक में कत्तई आसान नहीं था लेकिन नायाब शिल्प देने की भूख सभी बाधाओं पर भारी पड़ी और फ़िल्म ने विमल मित्र के उपन्यास का सजीव चित्रण हम सबके आंखों के सामने प्रस्तुत कर दिया।

इस फ़िल्म की एक और शानदार बात मुझे यूं याद आती है जब मैं छोटी बहू का शराब के नशे में धुत्त होकर अपने पति से करते हुए संवाद – ” किसी दूसरी औरत ने इतना बड़ा बलिदान दिया है भला ! …..हिन्दू घर की बहू होकर शराब पिया है किसी ने” सुनता हूँ तो अनायास ही मेरे मन में ये सवाल कौंध जाता है कि आज के समय में यदि मुस्लिम 

निर्देशक की फ़िल्म में हिन्दू  के लिए ऐसा संवाद बोला गया होता तो क्या निर्देशक को सर्वजन से वही प्यार मिलता जो उस वक़्त अबरार साब को मिला होगा? ‘साहेब बीवी और ग़ुलाम’ हिन्दी सिनेमा की क्लासिक फ़िल्म ही नहीं हिन्दी फ़िल्म प्रेमियों का गुरूर भी  है।  इसके दर्शक जब तक हिन्दी सिनेमा रहेगा, तब तक बने रहेंगे।

(लेखक फ़िल्म स्क्रीन राइटर, समीक्षक, फ़िल्मी किस्सा कहानी वाचक है)

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