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जयंती विशेष : सरदार वल्लभभाई पटेल ना होते तो अलग होती भारत की तस्वीर

जयंती विशेष : सरदार वल्लभभाई पटेल ना होते तो अलग होती भारत की तस्वीर

सरदार वल्लभभाई पटेल (जन्म- 31 अक्टूबर, 1875, गुजरात; मृत्यु- 15 दिसंबर, 1950, महाराष्ट्र) प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री थे। वे ‘सरदार पटेल’ के उपनाम से प्रसिद्ध हैं।

सरदार पटेल भारतीय बैरिस्टर और प्रसिद्ध राजनेता थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के नेताओं में से वे एक थे। 1947 में भारत की आज़ादी के बाद पहले तीन वर्ष वे उप प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद क़रीब पाँच सौ से भी ज़्यादा देसी रियासतों का एकीकरण एक सबसे बड़ी समस्या थी। कुशल कूटनीति और ज़रूरत पड़ने पर सैन्य हस्तक्षेप के जरिए सरदार पटेल ने उन अधिकांश रियासतों को तिरंगे के तले लाने में सफलता प्राप्त की।

इसी उपलब्धि के चलते उन्हें लौह पुरुष या भारत का बिस्मार्क की उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्हें मरणोपरांत वर्ष 1991 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ दिया गया। वर्ष 2014 में सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती (31 अक्टूबर) ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाई जाती है।

सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 ई. में नाडियाड, गुजरात में हुआ था। उनका जन्म लेवा पट्टीदार जाति के एक समृद्ध ज़मींदार परिवार में हुआ था। वे अपने पिता झवेरभाई पटेल एवं माता लाड़बाई की चौथी संतान थे। सोमभाई, नरसीभाई और विट्ठलदास झवेरभाई पटेल उनके अग्रज थे।

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पारम्परिक हिन्दू माहौल में पले-बढ़े सरदार पटेल ने करमसद में प्राथमिक विद्यालय और पेटलाद स्थित उच्च विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन उन्होंने अधिकांश ज्ञान स्वाध्याय से ही अर्जित किया। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया।

22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और ज़िला अधिवक्ता की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, जिससे उन्हें वक़ालत करने की अनुमति मिली। सन 1900 में उन्होंने गोधरा में स्वतंत्र ज़िला अधिवक्ता कार्यालय की स्थापना की और दो साल बाद खेड़ा ज़िले के बोरसद नामक स्थान पर चले गए।

सरदार पटेल क्रान्तिकारी नहीं थे। 1928 से 1931 के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्यों पर हो रही महत्त्वपूर्ण बहस में पटेल का विचार था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्य स्वाधीनता नहीं, बल्कि ब्रिटिश राष्ट्रकुल के भीतर अधिराज्य का दर्जा प्राप्त करने का होना चाहिए।

जवाहरलाल नेहरू के विपरीत, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में हिंसा की अनदेखी करने के पक्ष में थे, पटेल नैतिक नहीं, व्यावहारिक आधार पर सशस्त्र आन्दोलन को नकारते थे। पटेल का मानना था कि यह विफल रहेगा और इसका ज़बरदस्त दमन होगा।

महात्मा गाँधी की भाँति पटेल भी भविष्य में ब्रिटिश राष्ट्रकुल में स्वतंत्र भारत की भागीदारी में लाभ देखते थे। बशर्ते भारत को एक बराबरी के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए। वह भारत में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास क़ायम करने पर ज़ोर देते थे, लेकिन गाँधीजी के विपरीत, वह हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वतंत्रता की पूर्व शर्त नहीं मानते थे।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी हमले की आशंका हुई, तो सरदार पटेल ने गाँधीजी की अहिंसा की नीति को अव्यावहारिक बताकर ख़ारिज कर दिया। सत्ता के हस्तान्तरण के मुद्दे पर भी उनका गाँधीजी से इस बात पर मतभेद था कि उपमहाद्वीप का हिन्दू भारत तथा मुस्लिम पाकिस्तान के रूप में विभाजन अपरिहार्य है।

पटेल ने ज़ोर दिया कि पाकिस्तान दे देना भारत के हित में है। 1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल प्रमुख उम्मीदवार थे। लेकिन महात्मा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप करके जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश वाइसरॉय ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार, यदि घटनाक्रम सामान्य रहता, तो सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते।

देशी रियासतों के विलय में भूमिका

स्वतंत्र भारत के पहले तीन वर्ष सरदार पटेल उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीक़े से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है।

5 जुलाई, 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि- “रियासतों को तीन विषयों ‘सुरक्षा’, ‘विदेश’ तथा ‘संचार व्यवस्था’ के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा।” धीरे-धीरे बहुत-सी देसी रियासतों के शासक भोपाल के नवाब से अलग हो गये और इस तरह नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली।

भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया, जो स्वयं में संप्रभुता प्राप्त थीं। उनका अलग झंडा और अलग शासक था। सरदार पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पी.वी. मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था।

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पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन रियासतें- हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोडकर शेष सभी राजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें ‘भारत संघ’ में सम्मिलित हो चुकी थीं, जो भारतीय इतिहास की एक बड़ी उपलब्धि थी।

जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और इस प्रकार जूनागढ भी भारत में मिला लिया गया। जब हैदराबाद के निज़ाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निज़ाम का आत्मसमर्पण करा लिया।

भारत के लौह पुरुष

सरदार पटेल को भारत का लौह पुरुष कहा जाता है। गृहमंत्री बनने के बाद भारतीय रियासतों के विलय की ज़िम्मेदारी उनको ही सौंपी गई थी। उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए छह सौ छोटी बड़ी रियासतों का भारत में विलय कराया।

देशी रियासतों का विलय स्वतंत्र भारत की पहली उपलब्धि थी और निर्विवाद रूप से पटेल का इसमें विशेष योगदान था। नीतिगत दृढ़ता के लिए ‘राष्ट्रपिता’ ने उन्हें ‘सरदार’ और ‘लौह पुरुष’ की उपाधि दी थी।

बिस्मार्क ने जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उसी तरह वल्लभ भाई पटेल ने भी आज़ाद भारत को एक विशाल राष्ट्र बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। बिस्मार्क को जहाँ “जर्मनी का आयरन चांसलर” कहा जाता है, वहीं पटेल “भारत के लौह पुरुष” कहलाते हैं।

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