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भारतीय समाज की स्थिति: एक विवेचन

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग 1

अंग्रेजों को भारत से भगाने की मुहिम के समय बहस चलती थी कि राजनैतिक आजादी पहले या समाज सुधार पहले।

एकात्म समाज जो समतायुक्त हो, संपन्न हो। सामाजिक न्याय और सामाजिक एकता के प्रयास को वरीयता मिलना चाहिये। ऐसा भी कई लोगों का मत था। समाज कमजोर रहा और अंग्रेजों को भगाकर स्वाधीनता हासिल भी हो गई तो काम नहीं चलेगा। ऐसा कई गणमान्य लोगों का मत था।

अंग्रेजों ने तो भारतीय समाज के जाति, क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय के कारक तत्वों को समझा था। भारतीय समाज मे ये कारक तत्व राष्ट्रीय सभ्यतामूलक सांस्कृतिक भाव की एकरसता से सींचे हुए थे। इसलिये कारक तत्व विविधता की सुगंध से भी भरपूर थे।अंग्रेजों ने राष्ट्रभाव को राजनैतिक स्तर पर कमजोर पाकर इन कारक तत्वों के पहलुओं में दरारें डालना, दरारें बढाना आदि की रणनीति बनाई। अंग्रेजों ने 1857 के पहले स्वातंत्र्य संग्राम मे जो मार खाई थी उसके बाद उन्होने द्विपक्षीय रणनीति बनाई।

कठोरतम दमननीति के साथ समाज तोड़क प्रयास को तेज किया। औरंगजेब की 1707 मे मौत के बाद मुस्लिम समुदाय को सत्ताश्रय नही मिल पाया। वे भी स्थानिक समाज मे समरस होते गये। शरीयत की बात कही नहीं उठी। स्थानिक रीति-रिवाज और कानून के तहत सहज ही चलने लगे। अंग्रेजों ने सबसे पहले जनगणना में, सरकारी स्तरों पर मुस्लिम समुदाय को विशेष हर तरह से तरजीह देना शुरू किया। प्रशासन ने वैसा ही रुख रखा। ईसाईयों को चर्च के लिये भरपूर सहायता मिली ही थी। भारत की जनसंख्या को मुस्लिम, गैर मुस्लिम रूप मे देखना शुरू हुआ। अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक पंथ के आधार पर अलगाव अंग्रेजों के द्वारा बढ़ाया गया।

उसी प्रकार जनगणना मे 1890 आते-आते अनुसूचित जाति, जनजाति को अलग करने की प्रक्रिया सरकारी स्तर पर तेज की गई। उत्तर पूर्व मे ईसाई मिशनरी लोगों को सहूलियतें दी गई। शेष लोगों के जाने-आने पर प्रतिबंध लगने लगे। दक्षिण मे तमिलभाषा को शुद्ध करने के बहाने संस्कृत से अलग दिखाने की कोशिश की गई। देश भर में जिन लोगों ने 1857 के संघर्ष मे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया उन सारे गाँवों को बर्बाद कर दिया गया। साथ ही जहाँ प्रतिरोध ज्यादा हुआ वहाँ लोगों, जातियों को अपराधी जातियाँ घोषित किया गया। थानों में हाजिरी अनिवार्य कर दी गई। कानूनों में, न्याय व्यवस्था मे इसी भाव के अनुकूल व्यवस्थाएं बनी।

इस दरार को चौड़ा और गहरा करने के उद्देश्य को प्रधान रखकर अंग्रेजों द्वारा शिक्षा, संस्कार, न्याय की व्यवस्था और कानूनों, विषयवस्तु, शिक्षक-प्रशिक्षण आदि को गठित किया गया। अंग्रेजी को नौकरी के लिये अनिवार्य किया गया। संस्कृत को मृतभाषा कहा जाने लगा। प्रभु वर्ग मे उच्च शिक्षा के लिये इंग्लैंड भेजना फैशन बन गया। उच्चतम न्यायालय भी तो इंग्लैंड में ही था। बहुरंगी भारतीय समाज की विविधता को हर तरह से विभक्त भारत दिखाया गया। जिसमें मानो सबको जोड़कर शासन चलाने की जिम्मेदारी विधाता के द्वारा अंग्रेजों को ही सौंपी हो। इन सारे कालखंड का इतिहास और विवरण जानने के लिये प्रचुर मात्रा मे साहित्य उपलब्ध है।

अपने धर्मपाल जी, पं सुन्दरलाल जी आदि का लेखन उपरोक्त धाराओं को पुष्ट करता है साथ ही गोहत्या आदि प्रवृत्तियों के लिये अंग्रेजों को जिम्मेदार ठहराता है।

भारतीय समाज के विज्ञ लोगों ने समय-समय पर इन प्रवृत्तियों का सशक्त प्रतिरोध किया पर कुल मिलाकर ऐसे प्रयास, परिणाम के हिसाब से, कम पड़े।

भारत मे आत्म विस्मृति सघन हुई। अंग्रेजों ने सत्तातंत्र का इसके लिये भरपूर उपयोग किया। वे समाज के संभ्रांत प्रभु वर्ग मे यह बताने मे अच्छी मात्रा मे सफल हुए कि उन्होने भारत को सभ्य बनाया है, सत्ता में रहकर अपना अनुकरण कराने का पुण्य कार्य वे कर रहे हैं।

आत्मविस्मृति(अपनी पहचान के अभिमान लुप्त प्राय होना) सघन होती गई। सद-असद् विवेक, सत्यासत्य विवेक, हित-अहित विवेक, शत्रु-मित्र विवेक सभी पर अत्यन्त प्रतिकूल असर पड़ा। Over Play और Under Play का खेल खूब चला। लाल, बाल, पाल एवं महात्मा गाँधी, सावरकर ने स्वत्व बोध करने का काम किया। स्वत्वबोध के कारण स्वाभिमान, फलतः आत्मविश्वास, फलतः अंग्रेजों को भगाने के अनेक विध प्रयास संगठित हुए।

सन् 47 के बाद इन ऊपर लिखित लोगों की निर्दिष दिशा मे बढ़ने की बजाय “हिन्द स्वराज” की भावना एवं सभ्यतामूलक दृष्टि की दिशा मे बढ़ने की बजाय काले अंग्रेज बनाने की दिशा मे (रुसी, चीनी, अमरीकी और अब ब्राजीलियन) चल पड़े। पिछले 75 साल मे हम गलत पटरी पर चले गये।

जिस समाज को लोकतंत्र का आधार माना जाता है वह एक रस, एकात्म न होकर जाति, क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय में बंटा हुआ किंकर्तव्यविमूढ़ लगता है। देशी-विदेशी चुनौतियों का सामना करने में समाज सफल हो। इसके लिये जरुरी है कि जाति, क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय को अलगाव नही एकता एवं विविधता के नाते पहचान की जाय।

भारत को भारत के नजरिये से देखा जाय और भारतीय ढंग से परिमार्जन किया जाय।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एकता का विकृत अर्थ किया गया। एकता भाव है। एकरूपीकरण को एकता समझने की भूल हो गई। दुनिया मे एकरूपीकरण ने समस्या को और विकराल बनाया, जिसका उदाहरण आज फ्रैंक लायड़ है।

समाज सत्तामुखापेक्षी बना हुआ दिखता है। इससे समाज की जितनी ताकत है, संभावना है हर क्षेत्र में पराक्रम करने की, उसमे संभ्रम की स्थिति जान पड़ती है।

भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भेषज-भजन के स्तर पर भी अमेरिका, यूरोप के अनुकरण की अंधाधुंध दौड़ हो रही है। एफ.डी.आई. और टेक्नोलॉजी का विचारहीन अनुसरण रही सही कसर पूरी कर रहा है। विदेशियों द्वारा पीठ थपथपाने में गौरव का अनुभव होने लगा है। यथार्थ को समझकर अनदेखा किया जा रहा है।

भारत में सामाजिक एकता, सामाजिक न्याय मिलने मे समाज सुधारको मे सफलता का मापदण्ड यह माना जाना चाहिये कि सामाजिक न्याय, और समाजिक एकता का संतुलन कौन बेहतर साध सका। इसमे सर्वप्रथम श्री नारायण गुरु मुझे दिखते हैं। सार्वदेशिक पहचान बनने में उनकी एक दिक्कत थी कि उनका प्रत्यक्ष कार्यक्षेत्र केरल और तमिलनाडु का दक्षिणी हिस्सा था और उनके लिये संपर्क भाषा मलयालम, संस्कृत और तमिल थी।

चुनावी राजनीति मे 1937 के चुनावों से जाति का आश्रय लिया गया। आजादी के बाद वह और गाढा होता गया है। जातिहीन, वर्गहीन समाज बनाने का दावा करने वाले खुद जातिवादी नेता बनकर रह गये।

इस संदर्भ में कुछ प्रयोगों का अनुभव बताता है कि जिन जातियों मे समाजीकरण और अर्थिकीकरण हुआ उन जातियों के सामान्य जन लाभान्वित हुए है। और जिन जातियों का राजनीतिकरण हुआ उसमे सामान्य जन नही, नेतागण हर तरह से प्रचुर रीति से लाभान्वित हुए

अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति और उस पर प्रतिक्रियात्मक राजनीति के कारण समाज में संवाद और विश्वास का वातावरण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। विदेशी ताकतें इन स्थितियों का लाभ लेंगी ही।

इन चर्चाओं के बीच यह भी ध्यान देना होगा कि समाज आगे, सत्ता पीछे तभी होगा स्वस्थ विकास और साथ में Think Globally Act Locally। वर्तमान स्थिति के ये कुछ पहलू हैं। समाधान की चर्चा तो अभी होनी ही है।

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