अद्धयात्मदस्तक-विशेष

पार्थवेश्वर महादेव

श्री राम अपनी पूरी सेना के साथ जब रामेश्वरम के तट पर पहुँचे तब सामने क्षितिज तक फैले हुए समुद्र को देख विचार में पड़ गए। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि अपनी पूरी सेना के साथ इस महासागर को कैसे पार किया जाए? और यदि पार कर भी लिया तब विश्व के सर्वाधिक सक्षम सामथ्र्यवान रावण और उसकी सुप्रशिक्षित सेना से कैसे पार पाया जाए? श्रीराम के पास सीमित शक्ति थी किंतु उनका मुकाबला एक असीमित शक्तिसम्पन्न राजा और राष्ट्र से था।

आशुतोष राणा

श्रीराम को विचारमग्न देख उनके साथ आए ऋषियों ने उनसे कहा- श्रीराम इस संसार में असाध्य को साधने की एकमात्र विधि है कि आप सवा करोड़ पार्थिव शिवलिंग निर्माण कीजिए, महादेव शिव के पार्थिव स्वरूप का निर्माण पूजन-अर्चन सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है, और इस पार्थिव स्वरूप का महारुद्राभिषेक महादेव के सच्चे उपासक से सम्पन्न करवाइए। महादेव के प्रसन्न होते ही आपकी सभी बाधाएँ स्वमेव समाप्त हो जाएंगी। इस समय संसार में महादेव का रावण से बड़ा कोई भक्त नहीं है, यदि किसी तरह से रावण आपके इस महान यज्ञ के आचार्य हो जाएं तो यह निश्चित है की महादेव को प्रकट होना पड़ेगा, महादेव सब कुछ टाल सकते हैं किंतु रावण का आह्वान नहीं।
श्रीराम ने ऋषियों से कहा कि मेरा लक्ष्य रावण का नाश है तो क्या रावण स्वयं के विनाश हेतु किए जाने वाले महायज्ञ का आचार्य होना स्वीकार करेगा जो कि उसके परम शत्रु राम के द्वारा सम्पन्न किया जा रहा है? ऋषियों ने कहा की रावण महादेव के पूजन के लिए अवश्य आएगा किंतु समस्या यह है कि आमंत्रक के आमंत्रण से रावण को संतुष्ट होना चाहिए, इसलिए किसी ऐसे व्यक्ति को उसके पास आमंत्रित करने भेजिए जो रावण को एक ही बार में पूर्ण संतुष्ट कर सके। ऋषियों के कथन को सुन लक्ष्मण लाल जी ने बेहद गर्व से कहा कि भैया आप चिंता ना करें, मैं रावण को पूर्ण संतुष्ट करके उसे अपने साथ लेकर आऊँगा। आप पार्थिव शिवलिंग निर्माण आरम्भ कीजिए। श्रीराम को अपने छोटे भाई के स्वर में अहंकार सुनाई दिया, लक्ष्मण उनके भाई ही नहीं भक्त भी थे, परमात्मा अपने सेवक के अहंकार को पुष्ट करते हैं किंतु अपने भक्त के अहंकार को वे नष्ट करते हैं, श्रीराम मुस्कुरा दिए और बोले- भाई लक्ष्मण तुम पक्का रावण को लिवा लाओगे ना?
लक्ष्मण लाल जी ने कहा प्रभु आपको अपने भाई की क्षमता पर तनिक भी संदेह करने की आवश्यकता नहीं है, आप निश्चिन्त रहें। और लक्ष्मण जी श्रीराम का आशीर्वाद लेकर लंका की ओर चल दिए। लक्ष्मण लाल जी जब रावण के दरबार में पहुँचे तो रावण ने बेहद आत्मीयता से उनका स्वागत किया। लक्ष्मण जी को अपने समीप के आसन पर स्थान देते हुए, कुशलक्षेम पूछने के बाद उसने उनसे पूछा- लखनलाल बताइए किस हेतु आपका इस लंका नगरी में आगमन हुआ? मैं आपका क्या हित साध सकता हूँ? लक्ष्मण जी को अपनी शक्ति पर तो पूर्ण विश्वास था किंतु रावण से इस सद्व्यवहार की उन्हें बिलकुल भी आशा नहीं थी। वे पल भर के लिए विस्मयाभिभूत हो गए।
रावण उनकी दशा देख मुस्कुरा दिया और बोला- लखनलाल आप अयोध्या के राजकुमार है, मेरे पुत्रवत। यदि यह दशानन अपने पुत्र जैसे लक्ष्मण का कोई हित साध सकता है तो लक्ष्मण को नि:संकोच अपनी इच्छा प्रकट करनी चाहिए। रावण की सहृदयता ने लक्ष्मण की शक्ति के मान को क्षण भर में ध्वस्त कर दिया, लक्ष्मण को लगा की रावण के लिए उनका शक्तिशाली होना जैसे कोई मायने ही नहीं रखता, रावण उन्हें देखकर ना तो विचलित है और ना ही चिंतित। अपने शत्रु के प्रति सतर्कता के भाव का उसके हृदय में लेश मात्र भी स्थान नहीं है।
लक्ष्मण रावण के बड़प्पन के आगे स्वयं को बहुत छोटा महसूस कर रहे थे, उन्होंने अपने कंठ को साफ करते हुए कहा- हे लंकाधिपती, मेरे महान पराक्रमी भाई अयोध्या नरेश श्रीराम ने सवा करोड़ पार्थिव शिवलिंग निर्माण महारुद्र यज्ञ का आयोजन किया है, जिसका हेतु लंका विजय है। अत: आपसे निवेदन है कि आप स्वयं चलकर महादेव शिव का महारुद्राभिषेक कर पौरोहित्य कर्म को सम्पन्न करें। संसार में आपसे बड़ा महादेव का कोई भक्त नहीं है, साथ ही आप सभी वर्णों में श्रेष्ठ ब्राह्मण वर्ण के हैं, इस नाते आपका दायित्व बनता है कि आप आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित होकर अपने यजमान के पुण्य मनोरथ को पूर्ण करने में सहभागी बनें।
रावण ने बेहद गहरी दृष्टि से लखनलाल को देखा और बोला- पुत्र लक्ष्मण, मुझे महादेव का महारुद्राभिषेक करने में अतीव सुख प्राप्त होगा किंतु पुत्र- मैं सिर्फ उस यजमान का आचार्य पद ग्रहण करता हूँ जो सपत्निक हो, और इस समय रघुकुलभूषण राम विवाहित होते हुए भी पत्नी विहीन हैं। अब तुम बताओ मुझे क्या करना चाहिए? राम की इच्छापूर्ति के लिए मुझे अपना व्रत भंग करना होगा और रावण सब कुछ कर सकता है किंतु अपना व्रत भंग नहीं कर सकता पुत्र। तुम जाओ और जाकर राम से पूछकर आओ कि, क्या राम चाहते हैं की रावण उनकी पत्नी सीता को अपने साथ लेकर आए? जिससे राम का उद्देश्य भी पूरा हो सके और मेरे व्रत की रक्षा भी हो जाए?
लक्ष्मण सोच में पड़ गए कि यदि वे रावण से सीता जी को साथ ले चलने के लिए कहते हैं, तो यह श्रीराम के पुरुषार्थ और पराक्रम का अपमान होगा, सम्पूर्ण जगत् श्रीराम की लंका विजय को रावण का दिया गया दान समझेगा, पापी और दुरात्मा होने के बाद भी रावण अपनी सहृदयता के कारण महादानी की श्रेणी में खड़ा कर दिया जाएगा जिसने अपने प्राण ही अपने बैरी को दान कर दिए। संसार श्रीराम की विजय का कारण श्रीराम के पराक्रमी पुरुषार्थ को नहीं, अपितु रावण के पौरोहित्य को मानेगा और यदि वे कहते हैं कि नहीं आप माँ सीता को लेकर मत चलिए तो संसार कहेगा कि लक्ष्मण ने अपने स्वार्थ के लिए रावण की सहृदयता का दुरुपयोग करते हुए उसे संकल्पच्युत होने के लिए विवश किया। रावण हठधर्म का उपासक है, यह किसी भी कीमत पर अपने व्रत का उल्लंघन नहीं करेगा, अपने व्रत के कारण रावण आचार्य के पद को ग्रहण नहीं करेगा, परिणाम स्वरूप प्रभु श्रीराम की इच्छा पूर्ण नहीं होगी। लक्ष्मण समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए? अपने भाई की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति ही लक्ष्मण का धर्म था, और लक्ष्मण वचन देने के बाद भी आज पहली बार असमर्थता और असफलता के भाव से भरे हुए थे। उन्होंने दुखी होकर रावण को प्रणाम करते हुए कहा- जो आज्ञा आचार्य, मैं प्रभु से पूछ कर आता हूँ। लक्ष्मण को अपने सैन्य शिविर में अकेला देख श्रीराम ने उत्सुकता से पूछा प्रिय भाई क्या रावण ने हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया? क्या कहा उसने मुझे बताओ?
लक्ष्मण अपराधबोध से भरे हुए श्रीराम से बोले- भैया मैंने उसे लगभग तैयार ही कर लिया था, किंतु उसका व्रत है कि वह पत्नी रहित यजमान का आचार्य नहीं बनता। चूँकि मातेश्वरी सीता इस समय अशोक वाटिका में उसके अधिकार में हैं, तो उसने मुझसे कहा कि मैं श्रीराम से पूछकर आऊँ की क्या रावण इस महारुद्राभिषेक के लिए जनकनंदनी को अपने साथ लेकर आए, प्रभु प्रश्न आपके लिए था, रावण आपकी मंशा जानना चाहता था, इसलिए मैंने अपनी तरफ से उसे कोई भी जवाब देना उचित नहीं समझा। आप मुझे अपनी मंशा बतायें मैं शीघ्र ही रावण को यहाँ उपस्थित कर दूँगा।
श्रीराम ने अन्वेषक दृष्टि से लक्ष्मण को देखा बिलकुल वैसे ही जैसे माँ अपने छोटे से बच्चे को स्नान कराते समय उसके सम्पूर्ण शरीर का निरीक्षण करती है। श्रीराम ने पाया कि लक्ष्मण असफलता से आहत अपने मन को, अपने ध्वस्त अहंकार को छिपाना चाहते थे, सो श्रीराम ने लक्ष्मण की इस चेष्टा में सहयोग करते हुए स्नेहसिक्त गम्भीरता से कहा-प्रिय भाई जाओ और जाकर रावण से कहना कि वह सीता को साथ लेकर आए। राम अपने संकल्प की पूर्ति के लिए किसी अन्य को अपना संकल्प तोड़ने के लिए बाध्य नहीं करता।
लक्ष्मण भावाभिभूत होकर श्रीराम के चरणों में गिर पड़े, श्रीराम ने उन्हें उठाते हुए कहा-लक्ष्मण तुम्हारे भाई ने मर्यादा के पालन का व्रत लिया है, इसलिए चाहे प्रेमी हो या बैरी, मित्र हो या शत्रु मैं सभी की मर्यादा का पालन करूँगा, मेरे लिए राम की रक्षा से अधिक महत्वपूर्ण मर्यादा की रक्षा करना है। इसलिए स्वस्थ मन से जाओ और रावण से मेरे आग्रह को निवेदित करो। लक्ष्मण एक बार फिर रावण को लिवाने के लिए लंका की ओर बढ़ गए…
इस बार लक्ष्मण दोगुने उत्साह से लंका पहुँचे, क्योंकि प्रभु श्रीराम का स्पष्ट आदेश उन्हें मिल चुका था कि रावण से कहना माता सीता को साथ लेकर चलें। लक्ष्मण जैसे ही रावण के सभाभवन के द्वार पर पहुँचे तो देखा रावण अपने भव्यतम रथ पर आरूढ़ होकर कहीं जाने की तैयारी में था, उसके स्वर्ण निर्मित रथ-जिसके स्वर्ण दंड पर सफेद पताका फहरा रही थी उस पताका पर वीणा का चिन्ह अंकित था। उसके रथ में संसार की श्रेष्ठतम नस्ल के दस श्वेत घोड़े जुते हुए थे, वह स्वयं राजसी वस्त्रों में नहीं अपितु एक सुंदर से जगमगाते हुए श्वेत अंगवस्त्र को धारण किए हुए था जिसमें उसके अलौकिक व्यक्तित्व की छटा अवर्णनीय थी। वह ज्ञान के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित एक दिव्यपुरुष सा भासित हो रहा था। लक्ष्मण के लिए रावण का यह रूप अकल्पनीय था। वे रावण की ओर बढ़ने की अपेक्षा ठिठक कर रह गए और तभी, रावण की दृष्टि लक्ष्मण पर पड़ी, वह पैदल ही लक्ष्मण की दिशा में बढ़ा। उसके साथ अन्य सामंत उसके अंगरक्षक भी बढ़ने लगे जिन्हें रावण ने अपनी दृष्टि से रोक दिया और अकेला ही लक्ष्मण के पास पहुँचा। अपने सामने महादेव के इस महान भक्त रावण को देख जिसने उन्हें प्रसन्न करने के लिए अपने शीश को काट कर उनके चरणों में समर्पित कर दिया था, लक्ष्मण के हाथ स्वत: ही प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए।
रावण ने सस्वर उन्हें आशीर्वाद दिया यशस्वी भव पुत्र, और बोला- बहुत शुभ बेला में तुम्हारा आगमन हुआ। महादेव की संध्या पूजन का समय है, आओ उनकी अर्चना के बाद हम चर्चा करेंगे। लक्ष्मण रावण के साथ रथ में बैठे हुए महादेव के मंदिर की ओर बढ़ रहे थे, रावण की सात्विक ऊर्जा के प्रभाव में लक्ष्मण सोच में पड़ गए कि कैसे यह व्यक्ति इतना घृणित कर्म कर सकता है? स्वयं महादेव जिसके गुरु हों उसे पुण्य के आकाश पर आलोकित होना चाहिए किंतु यह कैसी विसंगति है कि यह रावण पाप के रसातल में गिर पड़ा?
रावण बिना उनकी ओर देखे गम्भीर स्वर में बोला- ‘अपने प्यारे राम को रीझ भजो या खीज, खेत पड़े बढ़ जात है उलटो सीधो बीज।’ रावण जैसे उनके हृदय में बैठकर उनके मन में उठ रहे विचारों को पढ़ रहा था। पुत्र कभी-कभी जिसे हम पाप समझते हैं वह पुण्य तक पहुँचने का मार्ग होता है। इसलिए मार्गी के मार्ग को देखकर उसकी मंजिल का अन्दाज़ नहीं लगाना चाहिए। कभी-कभी प्रकाशित मार्ग पर चलने वाले अंधकार के गर्भ में समा जाते हैं तो कभी अंधकार में चलने वाला प्रकाश को उपलब्ध हो जाता है। कर्म सत् या असत् नहीं होता उसमें निहित उद्देश्य ही उसे सतकर्म या दुष्कर्म की श्रेणी में रखते हैं। लक्ष्मण को पता ही नहीं चला कि वे मंदिर गर्भ गृह में पहुँच चुके हैं। रावण महादेव की अर्चना में लीन था और बेहद भक्ति भाव से स्वरचित शिवस्रोत का पाठ कर रहा था। महादेव द्वारा प्रदत्त वीणा पर रावण की उँगलियाँ ऐसे चल रही थीं जैसे रावण स्वयं ही वीणा हो गया हो, गर्भगृह में उठने वाले अलौकिक दैवीय संगीत का प्रभाव ऐसा था जिसने संगीतकार को मिटाकर संगीत में रूपांतरित कर दिया था। लक्ष्मण को लगा कि जैसे वादक, वाद्य और श्रोता सभी समाप्त हो गए और वहाँ कुछ था तो मात्र संगीत। द्वैत भाव अद्वैत में रूपांतरित हो चुका था, एक समय ऐसा आया जब संगीत का अस्तित्व भी समाप्त होकर परम शांति में रूपांतरित हो गया, वे निर्विकल्प समाधि को उपलब्ध हुए थे। अचानक उन्हें लगा की जैसे कोई उन्हें पुकार रहा हो, उन्होंने देखा कि रावण उनसे पूछ रहा है- हाँ पुत्र मुझे बताओ राम क्या चाहते हैं? क्या वे मेरे धर्मसंकट का निवारण करेंगे? लक्ष्मण को लगा की जैसे किसी ने उन्हें आसमान से उतारकर धरती पर पटक दिया हो, वे अनायास ही बोले महात्मन, श्रीराम चाहते हैं कि आप अपने संकल्प से च्युत ना हों, आप सीता को अपने साथ लेकर चलिए।
रावण ने बेहद गहरी दृष्टि से लक्ष्मण को देखा और कहा- ठीक है, अब तुम बताओ मुझे किस सीता को अपने साथ लेकर चलना है? रावण का प्रश्न सुनकर लक्ष्मण सन्न हो गए, और बोले आचार्य मैं समझा नहीं किस सीता से आपका तात्पर्य क्या है? श्रीराम ने मुझे आपसे यही निवेदित करने को कहा था कि मैं आपसे आग्रह करूँ कि आप सीता को साथ लेकर चलिए। अब आप एक नया प्रश्न कर रहे हैं जो मेरी समझ सीमा से बाहर है। संसार में मात्र एक ही सीता हैं जो श्रीराम की पत्नी हैं और इस समय वे आपके अधिकार में हैं, आप उन्हें साथ लेकर चलिए। रावण ने कहा नहीं लक्ष्मण यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है, तुम फिर से जाओ और राम से पूछो कि वे किस सीता को लाने की बात कर रहे हैं? कहीं ऐसा ना हो कि तुम्हारे अज्ञान के कारण जिसे तुम अपना ज्ञान समझ रहे हो, जिसके विश्वास पर तुम त्रिलोक विजेता दशानन रावण को लिवा ले जाने के दंभ से भरे हुए थे, वह राम और रावण दोनों को अपने संकल्प से च्युत करने का कारण बने।
किसी की संकल्पपूर्ति में यदि सहायक नहीं हो सकते, तो तुम्हें किसी को संकल्पच्युत करने का अधिकार भी नहीं है, क्योंकि किसी को अपने अज्ञानजनित अहंकार से संकल्पच्युत करना घोर पाप की श्रेणी में आता है। तुम्हारी अस्पष्ट मानसिकता संकल्पों के पर्याय राम और रावण दोनों के पतन का कारण होगी। मैं तुम्हारे उत्तर से संतुष्ट नहीं हूँ, तुम्हारे आवेशित, भ्रमित चित्त के कारण मैं संकल्पमूर्ति राम को संकल्पच्युत नहीं कर सकता। रावण का जन्म राम के संकल्पों को पूरा करने के लिए हुआ है। मैं दशानन रावण राम के उद्देश्यों का साधक हूँ, बाधक नहीं। इसलिए वापस जाओ, राम ने तुम्हें भ्रम के निवारण के लिए भेजा है, भ्रम का कारण बनने के लिए नहीं।
लक्ष्मण को लगा कि जैसे उनका अस्तित्व चूर-चूर हो गया हो। रावण के कथन ने उनके अहंकार को ध्वस्त कर दिया था। लक्ष्मण अभी तक स्वयं को श्रीराम का सहायक मान रहे थे, वे श्रीराम के लिए अपने सेवाभाव को समर्पण का पर्याय मान बैठे थे। रावण ने श्रीराम को संकल्पमूर्ति कहा था, मात्र जीवन के लक्ष्यों को नहीं जन्म के ध्येय को पूरा करने वाली चेतना ही संकल्पमूर्ति कहलाती है, और लक्ष्मण स्वयं को श्रीराम के लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक होने के कारण स्वयं को श्रीराम की ध्येय पूर्ति का कारक समझ बैठे थे। उन्हें लगा कि वे मात्र साधन हैं जो श्रीराम के अशर्त प्रेम के कारण स्वयं को साध्य समझ बैठे थे, वे एक बड़ी व्यवस्था के अंग थे जो श्रीराम की करुणा को प्राप्त करने के कारण भूलवश स्वयं को ही व्यवस्था और व्यवस्थापक समझ बैठे थे। जिस रावण को वे अभी तक श्रीराम का बाधक समझ रहे थे, वह तो श्रीराम की ध्येयपूर्ति का सबसे बड़ा साधक है। त्रिलोक विजेता, सृष्टि के समस्त ज्ञान को सिद्ध करने वाले लंकाधिपती दशानन रावण को जीतकर ही तो श्रीराम अपने विस्मृत नारायणत्व को प्राप्त करेंगे। जो नर को नारायण में रूपांतरित होने का कारक हो, वह बाधक नहीं साधक ही होता है। कुछ मित्र होते हुए शत्रुवत व्यवहार करते हैं तो कुछ शत्रु होते हुए भी मित्रवत परिणामों के कारक होते हैं। कितनी समानता है श्रीराम और रावण के चिंतन मे,ं श्रीराम जहाँ रावण को संकल्पच्युत नहीं होने देना चाहते, वहीं रावण श्रीराम के संकल्प को लेकर सजग है, वह घोर शत्रुता में भी उनके संकल्प की रक्षा करना चाहता है। लक्ष्मण अश्रुपूरित नेत्रों से श्रीराम के चरणों में गिर पड़े, उनका समस्त अहंकार आँसुओं के रास्ते पिघलकर श्रीराम के चरणों में समा गया था, किंतु आश्चर्य इस बात का था कि असफल होने के बाद भी लक्ष्मण अवसाद से नहीं, आनंद से भरे हुए थे। श्रीराम ने बिना कुछ बोले लक्ष्मण को अपने हृदय से लगा लिया। दोनों भाई रो रहे थे, ये दु:ख के नहीं आनंद के अश्रु थे। लक्ष्मण को लगा कि जैसे श्रीराम के हृदय की धड़कने उनसे कह रही हों कि मेरे प्राण प्रिय भाई, हमारे दु:ख का कारण हमारी असफलताएँ नहीं हमारा अहंकार होता है। अहंकार से भरा हुआ चित्त सफलताओं के शिखर पर खड़े होने के बाद हमें आनंदित नहीं अवसादित ही करता है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि तुम्हारे अहंकार के विसर्जन ने तुम्हें सृजन के मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया।
श्रीराम के सभी सभासदों की आँखें दोनों भाइयों को अश्रुपूरित देख सजल हो गई थीं। वे सभी लक्ष्मण की असफलता से चिंतित हो गये थे, उन्हें लगा कि श्रीराम के सवा करोड़ पार्थिव शिवलिंगों का महारुद्राभिषेक संकल्प पूरा नहीं हो पाएगा, किंतु एक वानर कोने में, इस पूरी स्थिति से अप्रभावित निश्चिन्त खड़ा हुआ था। श्रीराम ने लक्ष्मण के कंधे पर हाथ रखते हुए प्रेमपूर्वक उसे आवाज दी, हनुमान क्या तुम इस कार्य को सम्पन्न कर सकते हो?
हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए कहा- आपकी कृपा है प्रभु। श्रीराम ने कहा, क्या तुम रावण को एक बार में ही तैयार करके यहाँ ला सकते हो?
हनुमान ने कहा आपकी कृपा प्रभु। हनुमान के उत्तर से श्रीराम ने परम संतोषी मुस्कान के साथ हनुमान को आदेश दिया- पवनपुत्र जाओ और महान शिवभक्त आचार्य रावण को शीघ्र ही यहाँ लेकर आओ, ताकि यह शुभ कार्य सम्पन्न हो सके। हनुमान जी महाराज ने श्रीराम को दण्डवत प्रणाम किया और श्री राम जय राम जय जय राम कहते हुए लंका की ओर उड़ गए।
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
अपने हृदय में श्रीराम को धारण किए हुए जैसे ही हनुमान जी महाराज ने लंका के सिंहद्वार पर कदम रखा, द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मियों में हड़कंप मच गया। वे हनुमान जी को देखते ही पहचान गए कि ये वही वानर है जो कुछ दिन पूर्व ही लंका को तहस-नहस कर भाग गया था, जिसे जलाकर राख कर देने की चाह में राक्षसों ने स्वयं अपने ही घर जलवा लिए थे। अब ये फिर से लंका के द्वार पर खड़ा होकर गुर्रा रहा है, पता नहीं इस बार कौन सा नया बखेड़ा खड़ा कर दे? वे भागते हुए राज दरबार में पहुँचे और भयभीत स्वर में रावण को सूचित करते हुए बोले- हे लंकाधिपती, अशोक वाटिका को नष्ट कर लंका में आग लगाकर भाग जाने वाला वह विशालकाय जीव, लंका का बैरी वह विकट वानर एक बार फिर लंका में दृष्टिगोचर हुआ है, आप युवराज इंद्रजीत को आदेश दीजिए प्रभु कि वे तुरंत ही उसे अपने ब्रह्मपाश में जकड़ लें अन्यथा बहुत अनर्थ हो जाएगा।
सुरक्षाकर्मी गुहार लगा ही रहे थे कि तब तक हेमशैलाभदेहं वाले हनुमान जी महाराज राजसभा के मुख्य द्वार पर पहुँच गए। सभाद्वार पर लंका में उत्पात मचाकर भाग जाने वाले कपि को देखकर (जो अपने बायें कंधे पर अतिविशाल गदा को धारण किए हुए था) सनसनाहट फैल गई, युद्ध की आशंका से मेघनाथ सहित सभी योद्धा युद्धक मुद्रा में आ गए। हनुमान जी महाराज जो ज्ञानी नामाग्रगण्यम् हैं, इस बात को बहुत अच्छे से जानते थे कि किसी राजा की राजसभा में शस्त्र के साथ प्रवेश करना उस राजा के अपमान की श्रेणी में आता है, और यह सर्वविदित सत्य है कि अपमान की भूमि पर आग्रह और सम्मान की अट्टालिका खड़ी नहीं होती, वे श्रीराम के दूत हैं और दूत का दायित्व होता है की वह शस्त्र नहीं शास्त्र का आश्रय ले। उन्होंने तुरंत अपनी गदा को सभाद्वार पर उपस्थित रक्षक के हाथ में दे दिया, व द्वार से ही विनम्रतापूर्वक रावण को प्रणाम करते हुए कहा- लंकाधिपती दशानन रावण को रामदूत, रामदासानुदास हनुमान प्रणाम करता है, व आपसे आपकी माननीय सभा में प्रवेश करने की अनुमति चाहता है। निवेदन करने के बाद पवनपुत्र हाथ जोड़कर द्वार पर ही खड़े होकर रावण के आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।
दूत के व्यवहार ने सभा में व्याप्त हलचल को शांत कर दिया। राजनीति में दूत की भाषा ही नहीं उसकी भंगिमा का भी विशेष महत्व होता है इस बात को राजनीति का प्रकांड पंडित त्रिलोक विजेता रावण बहुत अच्छे से समझता था, वह देख रहा था कि राम का यह दूत कुशाग्र बुद्धि ही नहीं नीतिनिपुण भी है, इसने बहुत चतुराई से वातावरण की युद्धक मानसिकता को ‘अयोध्या’ में बदल दिया। अयोध्या का अर्थ होता है जहाँ युद्ध की सम्भावना भी ना हो, जहाँ सशस्त्र योद्धा स्वमेव ही नि:शस्त्र हो जाते हैं, और शास्त्र को प्रमुख बना देते हैं। हनुमान पहले व्यक्ति थे जिन्होंने रावण की उपस्थिति में बिना युद्ध लड़े रावणराज्य को रामराज्य में परिवर्तित कर दिया था। इस बात का रावण पर बहुत प्रााव पड़ा, उसने अपने आसन पर बैठे-बैठे ही जवाब दिया महाबली, महादेव के कृपापात्र दशानन रावण की सभा में तुम्हारा स्वागत है कपि। लोकाचार का पालन करते हुए हनुमान जी महाराज ने हर-हर महादेव जय श्रीराम का घोष करते हुए अपना दाहिना पैर रावण की सभा में रखा और रावण के सिंहासन की ओर बढ़ने लगे। उनकी चाल में रावण के प्रति पूर्ण सम्मान था, सिंहासन से एक मर्यादित दूरी बनाकर वे खड़े हो गए, सबसे पहले रावण को प्रणाम करने के बाद उन्होंने सभा में उपस्थित वृद्धजनों, महामंत्री व अन्य पदाधिकारियों का अभिवादन किया। हनुमान के राजनयिक शिष्टाचार से रावण को रोमांच हुआ, वह लक्ष्मण और हनुमान के व्यवहार के बीच अनायास ही तुलना करने लगा, कि लक्ष्मण जो रावण को पौरोहित्य कर्म के लिए आमंत्रित करने आया था वह अपने धनुष बाण सहित सभा में प्रविष्ट हुआ था, और दूसरी तरफ यह कपि अपने शस्त्र को रावण के रक्षकों के सुपुर्द करके सभा में प्रवेश की अनुमति लेकर आया है, लक्ष्मण की चाल में अधीरता व आवेश था, तो इसकी चाल में धीरता और आस्था है। लक्ष्मण को मात्र राजा से मतलब था, किंतु इस कपि को राजा ही नहीं मेरी राजसभा से भी मतलब है। यह कपि मात्र शस्त्रनिपुण ही नहीं शास्त्रनिपुण भी प्रतीत होता है, यह अच्छे से जानता है कि राजा के मन को तैयार करने का काम राजा के सभासद करते हैं, इसलिए सभासदों का मन जीतना भी दूत के लिए आवश्यक होता है। लक्ष्मण मेरे व्यवहार से चमत्कृत हो रहा था, किंतु यह कपि अपने व्यवहार से मुझे चमत्कृत कर रहा है। लक्ष्मण लंकाधिपती को राजी करना चाहता था किंतु यह महावीर समूची लंका को राजी करना चाहता है। लक्ष्मण के पूरे व्यवहार में राजा की भावना के प्रति मान था किंतु यह कपि राज्य की भावना, उसकी मर्यादा के प्रति सम्मान से भरा हुआ है, यह जानता है कि राजा से अधिक महत्वपूर्ण राज्य होता है।
रावण ने हनुमान को विचलित करने के लिहाज से हल्की सी उपेक्षा से कहा- बोल कपि तेरे स्वामी वनवासी राम ने किस हेतु तुम्हें महाराजाधिराज रावण के पास भेजा है? जब उपेक्षा अपेक्षित हो तब वह व्यक्ति को विचलित नहीं सुचलित करती है। हनुमान जान गए कि रावण उनके साथ मनोवैज्ञानिक युद्ध कर रहा है, वह उनके प्रभु को अपमानित करने के लिहाज से वनवासी कह रहा है जिससे उनके दूत का चित्त भ्रमित और शंकालु हो जाए। किंतु जिसके हृदय में राम का वास होता है वह विचल नहीं अचल हो जाता है, राम जिसके आधार हों उसके हृदय में शंका का नहीं संकल्प का उदय होता है। रावण परम ज्ञानी है, अपने इस कृत्य से वो यह जानने का प्रयास कर रहा है कि दूत के मस्तिष्क में राम का वास है या इसके हृदय में राम विराजे हैं? अपने इस व्यवहार से रावण यह जानना चाहता है कि दूत अपनी उपेक्षा से पीड़ित हो रहा है या अपने स्वामी के अपमान से प्रताड़ित हो रहा है? किंतु रावण से यहाँ चूक हो गई क्योंकि रावण यह नहीं जानता कि हनुमान या कोई अन्य श्रीराम के मान की रक्षा नहीं करते, अपितु वे श्रीराम ही हैं जो सबके मान, मर्यादा की रक्षा करते हैं।
हनुमान ने विचार किया कि प्रभु श्रीराम ने उन्हें रावण के अहंकार को नष्ट करने नहीं उसे तुष्ट और संतुष्ट करने भेजा है। नीति कहती है कि अहंकारी के अहंकार को नष्ट नहीं पुष्ट करना चाहिए, क्योंकि अहंकार के पुष्ट होते ही अहंकारी स्वयं ही नष्ट हो जाता है। हनुमान ने बेहद भक्तिभाव से कहा- हे समस्त विद्याओं के स्वामी, त्रिलोक विजेता, संसार की समस्त निधियों को अपने प्रताप से स्वयं के आधीन करने वाले, शिव के परमभक्त आचार्यों में सर्वश्रेष्ठ लंकाधिपती रावण सर्वप्रथम- मैं, वन में विचरने वाले सिंहपुरुष, मर्यादा और पराक्रम के पर्याय, जिन्होंने वनों में सुप्त पड़ी मानवीय चेतना को अपने सम्पर्क मात्र से जागृत कर दिया, जिनके स्पर्श मात्र से मृणमय चिन्मय में रूपांतरित हो जाता है ऐसे वनवासी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का दूत हनुमान आपको प्रणाम करता हूँ। रावण हनुमान की राम के प्रति अच्च्युत आस्था, विनम्रता बुद्धिमत्ता से आनंदित हो गया क्योंकि हनुमान ने रावण के मान और उसकी बात को खंडित किए बिना राम के गौरव, पराक्रम, सामथ्र्य का परिचय उसकी सभा में प्रस्तुत कर दिया। रावण ने मुस्कुराते हुए हनुमान से कहा- तुम सौ योजन समुद्र पार करके अपने स्वामी का संदेश लेकर मेरे पास आए हो, निश्चित ही तुम थक गए होगे इसलिए आसन ग्रहण करते हुए स्वयं को विश्राम दो। हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि लंकाधिपती यह आपकी सहृदयता है जो आप जन-जन के हृदय सिंहासन पर विराजे जनवादी श्रीराम के दूत हनुमान को विश्राम करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं किंतु आचार्य मेरा संकल्प है कि जब तक मेरे प्रभु की इच्छा पूर्ण नहीं होगी मैं सनद्ध ही रहूँगा।
“राम काज कीजे बिना मोहि कहाँ विश्राम।”
हे ऐश्वर्य के अधिपति मेरे प्रभु वनवासी श्रीराम ने, महादेव शिव जो समस्त ऐश्वर्य ज्ञान विज्ञान के स्रोत हैं जो आपके गुरु हैं, उनके पार्थिव स्वरूप के महारुद्राभिषेक के लिए आपको सविनय आमंत्रित किया है, सो आप पधारकर इस शिवकार्य को सम्पन्न कर हमें अनुगृहीत कीजिए, ताकि पुरुषोत्तम का यह शिवसंकल्प निर्विघ्न पूर्ण हो सके। रावण ने हनुमान की शब्दावली पर गौर किया, हनुमान ने पूरे आयोजन को शिवकार्य, शिवसंकल्प के रूप में प्रस्तुत किया था। अपने हृदय की प्रसन्नता को छिपाते हुए रावण बोला- कपि राम की पत्नी सीता इस समय मेरे अधिकार में है, मैं पत्नी विहीन पुरुष का आचार्य नहीं बनता।
हनुमान के हृदय में रामधुन बज रही थी सो सहज ही उनके मुख से निकल गया, तो फिर माता सीता को साथ लेकर चलिए दशानन। रावण ने कहा- ठीक है कपि लेकर चलता हूँ, लेकिन कौन सी सीता को लेकर चलूँ मेरी इस दुविधा का निवारण कर सको तो चलूँ .. हनुमान ने पल भर अपने प्रभु को भजा और बोले- महाराज रावण यदि आप मुझे बता सकें कि आपके पास कितनी सीता हैं? तो निश्चित ही प्रभु श्रीराम की कृपा से आपकी इस दुविधा का निवारण हो जाएगा। हनुमान का यह प्रश्न सुनकर रावण चौंक पड़ा, उसे बिलकुल भी आशा नहीं थी कि महादेव शिव के सिवा कोई और उसके हृदय को इतनी गहराई से जान सकता है।
उसने पहली बार हनुमान के नेत्रों में स्थिरता से झाँका, उसे लगा जैसे महादेव स्वयं उसके सामने कपि के वेश में उपस्थित हैं। वह यंत्रचलित सा अपने सिंहासन से कब उठ गया उसे पता ही नहीं चला। हनुमान के नेत्रों में अपलक देखते हुए बोला- मेरे पास दो सीता हैं, एक वो जो लौकिक जगत में राम की पत्नी के रूप में जानी जातीं हैं जो इस समय अशोक वाटिका में स्थित हैं, और दूसरी वे जो जगदम्बा स्वरूप मेरे हृदय में वास करती हैं। कपिश्वर मुझे बताइए मैं इनमें से किसे अपने साथ लेकर चलूँ जिससे मैं राम के शिवसंकल्प को पूरा कर सकूँ। हनुमान ने निमिष भर को अपने नेत्र बंद किए, अपने चित्त में सदैव वर्तमान श्रीराम को प्रणाम किया और उच्च स्वर में बोले- रावण जिसे तू बलात उठाकर लाया है, जो प्रभु श्रीराम की पत्नी के रूप में जानी जाती हैं, उनकी चिंता तू मत कर, उन्हें तो श्रीराम स्वयं ही तुझे भूलुंठित करने के बाद लंका से ले जाएँगे। अभी तो तू अपने हृदय में विराजमान मातृस्वरूपा जगदम्बा सीता को लेकर चल, क्योंकि किसी भी माता के लिए ये गौरव की बात होती है कि उसका पुत्र शुभ कार्य हेतु किए जाने वाले यज्ञ में उसका आचार्य बने, और यह उस पुत्र का भी परम सौभाग्य होता है कि उसकी माँ की प्रेरणा से मातृकल्याण, जनकल्याण हेतु किए जाने वाले महान यज्ञ के पौरोहित्य कर्म के लिए संसार ने उसके पुत्र को सुयोग्य और उपयुक्त समझ यह सुअवसर प्रदान किया।

रावण हनुमान जी महाराज की बात सुन अनहद आनंद से भर गया और सभासदों को वही बैठा छोड़ अपने हृदय में विराजी जगदम्बा स्वरूप माता सीता को लेकर हनुमान के साथ तत्काल ही राम के शिविर की ओर बढ़ गया। हनुमान जी महाराज को रावण के साथ आता देख श्रीराम की सम्पूर्ण सेना ने हर्ष से हर हर महादेव का जयघोष किया। महादेव के पूजन भजन, स्मरण, कीर्तन को सुनते ही रावण का रोम-रोम पुलकित हो गया। श्रीराम और रावण महादेव के पार्थिव स्वरूप की उपस्थिति में पहली बार एक दूसरे को देख रहे थे। श्रीराम ने बेहद भाव से रावण को प्रणाम किया, रावण ने उन्हें आशीर्वाद दिया, सवा करोड़ पार्थिव शिवलिंग निर्माण महारुद्र यज्ञ के यजमान के रूप में उन्हें संकल्प दिलाया और स्वयं इस महानतम यज्ञ के आचार्य के रूप में संकल्प लिया। फिर अपने हृदय में विराजमान मातृस्वरूपा सीता के जगदम्बा स्वरूप को जो स्वर्ण से भी अधिक शुद्ध थीं, जो पीतवर्णी अग्नि से भी अधिक पावन थी, उनको नमन करते हुए भक्तिभाव से स्मरण किया, यह रावण की सच्ची भक्ति और अच्च्युत निष्ठा का ही प्रताप था कि रावण की उपस्थिति में, उनके द्वारा उच्चारित प्रत्येक ऋचा में, श्लोक में संसार को निराकार ब्रह्म भी साकार प्रतीत होता था।
रावण सस्वर मंत्रों का गायन करने लगे, उनके कंठ से निकलने वाले प्रत्येक शब्द में श्रीराम ही नहीं उपस्थित जनसमुदाय व समस्त सेना को महादेव शिव के दर्शन हो रहे थे, महारुद्राभिषेक करते समय श्रीराम को लगा कि जैसे, स्वर्ण सी शुद्ध और अग्नि से अधिक पवित्र उनकी प्राणप्रिय सीता उनके बामंग में उपस्थित होकर राम के इष्ट और अभीष्ट पूर्ति की प्रार्थना कर रही हैं। रुद्रावतार श्री हनुमान देख रहे थे कि, रावण ने दिए गए वचन के अनुसार अपने हृदय में स्थित मातृस्वरूपा सीता की स्वर्ण के जैसी विशुद्ध भावप्रतिमा को साक्षात् प्रकट करके अपने संकल्प की रक्षा कर ली।
महारुद्राभिषेक की समाप्ति के बाद रावण ने राम से कहा- राम, इस अखिल ब्रह्माण्ड में महादेव शिव ही समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले एक मात्र शक्ति हैं। शिव से संरक्षित शक्ति का क्षरण मात्र शिव ही कर सकते हैं। इस जगत् के प्रत्येक कण में शिव ही आलोकित होते हैं, उनकी उपस्तिथि ही ‘शव’ को ‘शिव’ की गरिमा प्रदान करती है। संसार की समस्त इच्छाएँ चाहे रक्षण हो, क्षरण हो या मरण शिव इच्छाएँ ही होती हैं। जो संसार को साधना चाहते हैं उन्हें शिव को साधना चाहिए, शिव के सधते ही संसार स्वत: ही सध जाता है। और हनुमान की तरफ कनखियों से देखते हुए रावण बोला- राम मैं शिव का भक्त ही नहीं उनका दास भी हूँ, मुझे सिर्फ वे ही प्रिय हैं, किंतु मैं देख रहा हूँ कि मेरे आराध्य महादेव तुम्हारे भक्त हैं, उन्हें तुम अतिप्रिय हो। मेरे निदान के लिए उन्होंने तुम्हारा चयन किया है राम, क्योंकि महादेव अपने इस हटी, दुराग्रही, अतिप्रिय शिष्य को मृत्यु नहीं मुक्ति प्रदान करना चाहते हैं। जिस राम के नाम को स्वयं महादेव ने अपने कंठ में धारण करके कालकूट विष का शमन किया हो वह राम मृत्युदाता नहीं मुक्तिदाता ही हो सकता है। तुम्हारे सदाचार की एक चिंगारी मेरे सभी अनाचारों को पल भर में खाक कर देगी। राजा के ऊपर अपने बंधु-बांधव व प्रजा के पाप पुण्य की जिम्मेदारी होती है इसलिए यह राजा का कर्तव्य होता है कि वह अपने आश्रित जनों को निर्भार करे.. मुझे, मेरे परिवार व समूची प्रजा को तारने के लिए महादेव ने तुम्हारा चुनाव किया है, इसलिए मैं रावण तुम्हारे हाथों सबको अपने गंतव्य तक पहुँचाने के बाद ही इस जगत् से प्रयाण करूँगा। श्रीराम ने कहा-महात्मन यह सब कुछ आप राम से मित्रता करके भी प्राप्त कर सकते थे, फिर मेरे प्रति आपके शत्रु भाव का कारण क्या है? सुनकर रावण मुस्कुराते हुए बोला- राम तुम्हारी मित्रता मुझे ज्ञान से भर देती, किंतु रावण को ज्ञान नहीं, ज्ञान से मुक्ति चाहिए थी। राम मैं सिर्फ़ महादेव के प्रति ही मित्रता के भाव से भरा हुआ हूँ, महादेव के अलावा किसी अन्य का मेरे मित्र भाव में प्रवेश निषिद्ध है, फिर वह भले ही महादेव को ही प्रिय क्यों ना हो.. इसलिए तुम्हें कभी भी रावण की मित्रता नहीं मिलती। मन को त्राण से मुक्त करने वाला मित्र होता है, और शंकाओं के त्राण से मुक्त करने वाला शत्रु होता है। मुझे मन का नहीं शंकाओं का शमन अपेक्षित है, क्योंकि ज्ञान, बल, शक्ति, सत्ता जब अपने चरम पर होती हैं तब वे शंकाओं से प्रदूषित आकाश का सृजन करती हैं। इस संसार में शंका से बड़ा शत्रु कोई नहीं है, महादेव जानते हैं कि राम का सम्पर्क किसी भी भाव से क्यों ना हो वह व्यक्ति को निह्शंक कर देता है। राम-
“शिव समान दाता नहीं, विपद निवारण हार। लज्जा मोरी राखियो वरदा के असवार॥’
मैं पुलस्त्य वंशी रावण महादेव शिव का दास उनका कृपापात्र तुम्हें स्वस्थ मन से आशीर्वाद देता हूँ की तुम्हारे सभी शिवसंकल्प पूरे हों, असुरराज रावण को पराभूत कर तुम सुरराज की ख्याति को उपलब्ध हो, महादेव शिव तुम्हारे विस्मृत नारायणत्व को संसार की चिरस्मृति में स्थान दें। और श्रीराम को विजयीभव का आशीर्वाद देकर आचार्यश्रेष्ठ, ज्ञानपुंज, विद्याविशारद, त्रिलोक विजेता, शिवभक्त दशानन रावण लंका की ओर चल दिए। 

Related Articles

Back to top button